‘लोकतंत्र की जननी’ को अपना अलग डेमोक्रेसी इंडेक्स बनाने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी है?

अपनी जनतांत्रिक छवि चमकाने के लिए ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ होने के दावों से शुरू हुई भारत सरकार की यात्रा फिलवक्त डेमोक्रेसी रेटिंग गढ़ने के मुक़ाम तक पहुंची है. अभी वह किन-किन मुकामों से गुजरेगी इसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: pmindia.gov.in)

‘भारत- जिसने औपनिवेशिक हुकूमत से आज़ादी के बाद जनतांत्रिक संरचनाओं को अपनाया और हर नागरिक को संविधान के तहत बुनियादी अधिकार प्रदान किए- वहां जनतंत्र की परंपरा कमजोर की जा रही है….’

दुनिया के अग्रणी विद्वानों- जिनमें से कई भारतीय मूल के हैं – द्वारा पिछले दिनों जारी बयान में प्रगट सरोकार काबिलेगौर हैं. बयान में साफ कहा गया है कि किस तरह यहां ‘मूलभूत आजादियों को भी कुचला जा रहा है या कमजोर किया जा रहा है. ’

गौरतलब है कि साझे बयान का फोकस न्यूज़क्लिक न्यूज़ पोर्टल पर हुए संगठित हमले, भीमा कोरेगांव मामले में पांच साल से अधिक समय से हुई गिरफ्तारियों और उत्तर पूर्व दिल्ली में हुए दंगों के बाद इसी तरह जेल में डाले गए लेखकों, कार्यकर्ताओं पर रहा हैे, लंबे समय तक जेल में रखने के बावजूद चार्जशीट तक दाखिल न होने पर है, लेकिन वह यहां की बद से बदतर होती स्थिति को ही रेखांकित कर रहा है.

तय बात है कि एक ऐसे समय में जबकि चुनाव आसन्न हैं और मोदी सरकार द्वारा देश के अंदर उठाए जा रहे दमनात्मक कदमों को लेकर मामला सरगर्म है, यहां तक कि चुनावों का ऐलान होने के बाद विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारी, प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खातों को बहाना बनाकर सील देने के कदम ने देश-दुनिया में चिंता प्रगट की जा रही है, उस समय इस बयान ने निश्चित ही मोदी की अगुवाईवाली हुकूमत को कत्तई खुश नहीं किया होगा.

आधिकारिक तौर पर इस बयान को लेकर मुल्क के मौजूदा हुक्मरानों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है और न ही उनके हिमायतियों ने इसके बारे में कुछ कहा है. उसकी पूरी कोशिश यही होगी कि हुकूमत के प्रति आलोचनात्मक रुख रखने वाले अन्य बयानों, रिपोर्ट की तरह इस बयान को भी भुला दिया जाए या दफना दिया जाए.

वैसे विगत दस सालों से जबसे राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से प्रधानमंत्री बने जनाब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली है , ऐसी तमाम आलोचनाओं के बारे में एक तयशुदा रुख रहा है कि इन पर गौर नहीं करना है. अधिक से अधिक यही कहना रहा है कि ऐसी बातें उन लोगों की करतूत है जो यहां विगत एक दशक से हो रही ‘अभूतपूर्व प्रगति’ को लेकर ईर्ष्या रखते हैं.

देश के अंदर तो ऐसी आलोचनाओं से निपटने के लिए उन्होंने तो जो रास्ता तय किया है, उसके बारे में खुद साझा बयान ही जिक्र करता है:

‘हम इस खास मौके पर इसलिए लिख रहे हैं ताकि दुनिया का ध्यान इस बात की ओर खींचा जा सके कि तमाम लेखकों, पत्रकारों  और सामाजिक कार्यकर्ताओ को लंबे समय से कारावास में भेजा गया है और उनके खिलाफ अभी आरोपपत्र भी दाखिल नहीं किए गए हैं और उन्हें महज इस बात के लिए प्रताड़ित किया जा रहा है कि उन्होंने हिन्दोस्तां की मौजूदा हुकूमत की आलोचना की..’

हुकूमत के कर्णधार शायद इस गलतफहमी का भी शिकार रहे हैं कि देश के अंदर वह जो भी करे, उसके बारे में उन्हें कहीं जवाब देना नहीं पड़ेगा.

एक तरह से उनका व्यवहार उस संस्कृत  सुभाषितम को ही साकार करता दिखता रहा है, जिसमें कहा गया है कि ‘बिल्ली आंख मूंदकर दूध पीती है और सोचती है कि किसी की निगाह नही पड़ रही है.’

दरअसल उन्हें हाल तक यही लगता रहा है कि अपने आप को ‘लोकतंत्र की माता अर्थात जननी’ कह देने से ही यह तमाम आलोचनाएं हवा हो जाएंगी. मगर अब शायद उन्हें महसूस हो रहा है कि इतना काफी नहीं है.

हवा का रुख बदल रहा है.

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याद कर सकते है कि विगत साल की शुरुआत में भारत के ‘डेमोक्रेसी की मम्मी’ अर्थात ‘जनतंत्र की जननी’ होने के दावे अधिक जोर से उछलने लगे थे.

मार्च 2023 में जनतंत्र को लेकर जो शिखर सम्मेलन हुआ- जिसकी पहल अमेरिका तथा कुछ अन्य मुल्कों ने की थी- उस इजलास में अपनी बात रखते हुए वजीरे आज़म मोदी ने इस बात पर खूब जोर दिया था कि भारत ‘वाकई जनतंत्र की जननी’ रहा है और अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने वेदों और महाभारत का भी हवाला दिया था. वह शायद इसी बात का विस्तार था जिसके तहत वह दावा करते रहे हैं कि ‘जनतंत्र इस देश में और हमारी संस्कृति  में एकाकार है.’

लोगों  को यह भी याद होगा कि पिछले साल भारत में जी-20 सम्मेलन हुआ, उसके बहाने देश भर में इस बात का खूब ढिंढोरा पीटा गया कि भारत किस तरह ‘जनतंत्र की माता’ है, इतना ही नहीं सम्मेलन में पहुंचे मेहमानों को भी यह बात बार-बार सुनाई गई कि ‘जनतंत्र की जननी’ वाले भारत में उन सभी का स्वागत है.

वैसे इस मसले पर ढपली बजाने में दक्षिणपंथी थिंक टैंक और यूट्यूब पीछे नहीं थे, भले ही उपलब्ध प्रमाण इस बात का कोई प्रमाण नहीं दे रहे हों.

जी-20 सम्मेलन जैसे बीत गया और रफ्ता-रफ्ता जनतंत्र की इस कथित जननी के दावे और विकसित होती वैश्विक सच्चाई सामने आने लगी, तो यह दावे बेकार होते गए.

हम यह भी कह सकते हैं कि गाज़ा में बसी फिलिस्तीनी जनता पर इज़रायल ने जिस जनसंहारात्मक युद्ध थोप दिया, जिसका बहाना हमास मिलिटेंट द्वारा इज़रायल के अंदर घुसकर नागरिकों पर हमले ने प्रदान किया था- और जिस हमले की दक्षिण अफ्रीका, आयरलैंड, ब्राजील, कोलंबिया और नामीबिया जैसे छोटे-छोटे देशों ने भी कड़ी भर्त्सना  की, उस मसले पर भारत सरकार के ढुलमुल रवैये ने ‘जनतंत्र की जननी’ होने के गुब्बारे की हवा निकाल दी.

इधर बीच, इस बात के आधिकारिक संकेत भी मिल रहे हैं कि मोदी सरकार खुद बेचैन हैं और उसे महसूस हो रहा है कि ‘जनतंत्र की जननी’ का पहाड़ा पढ़ने से बात नहीं बननेवाली है.

पिछले दिनों आई यह ख़बर कि भारत अपना खुद का जनतंत्र सूचकांक अर्थात डेमोक्रेसी इंडेक्स तैयार करना चाहता है, इसी बात की ताईद करती है.

ऐसी ख़बरें भी आ रही हैं कि इस देशज डेमोक्रेसी सूचकांक को तैयार कर उसके आंकड़े जल्द से जल्द चुनावों के पहले प्रकाशित किए जाए ताकि भारत की आम जनता को यह समझाया जा सके कि पश्चिमी थिंक टैक जो भी कहते रहें, भारत का जनतंत्र फल-फूल रहा है और डेमोक्रेसी की रेटिंग में भारत को निचले पायदान पर दिखाने की उनकी कोशिशें पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं.

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दरअसल लेखकों, पत्रकारों की गिरफ्तारी को लेकर दुनिया के अग्रणी बुद्धिजीवियों की चिंताएं या महज दो साल पहले दुनिया में जनसंहारों का अध्ययन करने वाले समूहों द्वारा भारत में विकसित होती स्थिति को लेकर प्रगट की गई बातों ने ही सरकार को सोचने के लिए मजबूर नहीं किया है!

विगत लगभग दस साल से जबसे मोदी वजीरे आज़म बने है, तभी से भारत में जनतंत्र की स्थिति को लेकर देश विदेश के सरोकार संपन्न विद्धानों, कार्यकर्ताओं में, या विचार केंद्रों/थिंक टैंक्स में एक अलग तरह की बेचैनी उजागर होती रही है (जिसका एक प्रतिबिंबन लेख के शुरुआत में उल्लेखित अग्रणी विद्धानों के साझा बयान में भी देखने को मिल रहा था) भारत ही नहीं दुनिया के तमाम जनतांत्रिक मुल्कों में ‘जनतंत्र के पीछे हटते जाने ’(democratic backsliding) को लेकर प्रगट की जा रही चिंताओं का ही यह हिस्सा है.

‘फ्रीडम हाउस’ जैसे अमेरिका में स्थापित थिंक टैंक की बात हो- जिसने भारत को ‘आंशिक तौर पर स्वतंत्र जनतंत्र’ (partially free democracy) के तौर पर संबोधित किया (2021) से लेकर स्वीडन मे बसे वी-डेम इंस्टिट्यूट हो, जिसने भारत को ‘चुनावी अधिनायकतंत्र’ घोषित किया, ऐसे विभिन्न आकलन प्रस्तुत होते रहे हैं.

इकोनॉमिस्ट की इंटेलिजेंस यूनिट ने तो भारत के बारे में प्रस्तुत अपने तीखे आकलन में इतना तक कह दिया कि भारत एक ‘त्रुटिपूर्ण जनतंत्र’ (flawed democracy) है.

जानने योग्य है कि जब-जब भारत को लेकर ऐसी तीखी आलोचनाएं प्रस्तुत हुई तब तब भारत के नीति आयोग, जिसका गठन आज़ादी के बाद बने योजना आयोग को समाप्त करके हुआ था- और जो एक तरह से भारत सरकार का अपना ‘पब्लिक पाॅलिसी थिंक टैंक’ है, की तरफ से भारत का जोरदार बचाव किया गया. उसकी तरफ से यही कहा गया कि यह सब पूर्व औपनिवेशिक देशों के प्रचार का हिस्सा है, जो मोदी के तहत भारत ने की प्रगति को लेकर ईर्ष्या रखते हैं.

अपुष्ट सूचनाओं के अनुसार देशज डेमोक्रेसी रेटिंग तैयार करने की जरूरत नीति आयोग और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच चली आंतरिक चर्चाओं के दौरान ही रेखांकित की गई. समाचारों के अनुसार, सरकार की तरफ से ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन से संपर्क किया गया, जो कई मसलों पर भारत सरकार के साथ काम करता रहता है- ताकि वह भारतीय परिस्थिति को मद्देनज़र रखते हुए अपने सूचकांक तैयार करे ताकि भारत की स्थिति को बेहतर साबित किया जा सके. इसे विकसित करने की चर्चाओं में खुद नीति आयोग के प्रतिनिधि भी शामिल रहते आए हैं.

वैेसे यह मसला विचारणीय है कि ऐसा देशज सूचकांक- जिसका स्वरूप इस तरह का हो- जो भारत सरकार की छवि को चमकाता दिखता हो, किस हद तक उपयोगी हो सकता है?

एक विश्लेषक ने संपादक के नाम लिखे अपने पत्र में लिखा है कि यह समूची कवायद एक तरह से ‘उस बच्चे की हरकत की तरह प्रतीत होती है जो अपने रिपोर्ट कार्ड को चुपचाप संशोधित कर रहा है, जिसके नंबर खराब आए हैं ’

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आम चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, इन चुनावों में भाजपा द्वारा चार सौ पार सीटें जीतने के दावे भी हो रहे हैं, मगर संकेत यही मिल रहे हैं कि खुद मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार इसे लेकर नर्वस है.

यह अकारण नहीं कि विगत दो माह के अंदर ही उसने ऐसी तमाम क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन करने की कोशिश की, जिनके साथ पहले बहुत कटुतापूर्ण संबंध रहे हैं- चंद्रबाबू नायडू की अगुवाई वाली तेलुगु देशम पार्टी ने कभी भाजपा सरकार एवं मोदी के नेतृत्व के बारे में बेहद प्रतिकूल बातें कही थी. बीजू जनता दल ने तो भाजपा के साथ 2009 में बाकायदा संबंध तोड़ दिए थे, मगर उसके दरवाजे जाकर भी उसे गठबंधन में शामिल होने की अपील करने में भाजपा ने समय नहीं गंवाया (यह अलग बात है कि वहा मामला नहीं बना).

चुनावी बॉन्ड के खुलासे ने तो उसकी सिद्धांत की राजनीति के दावों को फिर एक बार खोखला साबित कर दिया है. ‘आज़ादी के बाद हुए इस सबसे बड़े घोटाले’ ने तो चुनावों के ऐन वक्त़ उसके लिए मुश्किल पैदा की है. यह कयास भी लगाए जा रहे हैं कि चुनावों मे उसे इस घोटाले की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

2019 के चुनावों मे पुलवामा हमले का बहाना बनाकर उसने जो अंधराष्ट्र्रवाद की हवा चला दी थी, ऐसा कोई भावनात्मक मुद्दा भी उसके पास नहीं है. राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के जरिये कम से कम उत्तर भारत में आंधी चलने के उसके इरादे भी काफूर होते दिख रहे हैं.

कुछ तटस्थ विश्लेषक यह भी दावा करते दिख रहे है कि कहीं 2024 का यह चुनाव 2004 की पुनरावृत्ति न हो! याद कर सकते है कि 2004 के चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इंडिया शाइनिंग का अभियान चलाकर यह सोचा था कि उसकी सत्ता में दोबारा वापसी होगी मगर चुनाव नतीजों ने उसके इस अहंकार को चूर-चूर कर दिया था.

अगर हम इन पश्चिमी थिंक टैंकों के आकलन को थोड़ा भूल भी जाएं, लेकिन हम खुद देख सकते हैं कि ऐसे तमाम मौके हमारे सामने उपस्थित होते रहे है, जिससे यहां के जनतंत्र की वास्तविक स्थिति और स्वास्थ्य के बारे में किसी को भी अंदाजा लग सकता है.

जम्मू कश्मीर को मिले विशेष दर्जे की रातों रात समाप्ति, एक राज्य को महज गवर्नर/राष्ट्र्रपति के आदेश पर दो संघीय प्रदेशों में तब्दील कर देना (2019) या सीएए जैसे कानून का निर्माण- जो असमावेश पर आधारित है और जो भारत के संविधान के बुनियादी उसूलों और मूल्यों का उल्लंघन करता है, जो सारतः धर्म पर आधारित नागरिकता प्रदान करता है और आज़ादी के बाद कई दशकों से चली आ रही भारत की प्रतिबद्धता की वह आस्था या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा को उलट देता है- इसकी तरफ न केवल पड़ोसी मुल्कों का बल्कि दुनिया के इंसाफपसंद लोगों का ध्यान गया है.

मुमकिन है भाजपा की अगुवाई वाली यह सरकार अपनी छवि चमकाने के लिए यह दुस्साहस फिर भी करे कि अपने चहेती संस्था की मदद से अपने लिए अनुकूल डेमोक्रेसी रेटिंग तय कर दे और अपने मुंह मियां मिटठू बनने का अपना संकल्प पूरा करे.

मगर वह इस सवाल से बच नहीं सकती कि आखिर इस जनतंत्र की अंतर्वस्तु क्या है जो पीड़ित समुदायों की हिमायत के नाम पर, उन्हें न्याय दिलाने के लिए आननफानन कानून बनाती है, मगर उसके दायरे से मुसलमानों को बाहर रखती है. इतना ही नहीं,अमल को पड़ोस के महज तीन मुल्कों तक सीमित रखती है- जो मुस्लिम बहुल देश है और अपनी इस मनमानी सोच के चलते इन मुल्कों मे ही मुसलमानों में मौजूद अल्पसंख्यक संप्रदाय- जो खुद वहा उत्पीड़न का शिकार है, उनकी तरफ देखती भी नही.

अपने सीमित चुनावी फायदे- जिसके लिए उसके पास अब महज धार्मिक ध्रुवीकरण का सहारा है- के लिए उसकी तरफ से की जा रही यह मनमानी किस तरह दो अन्य पड़ोसी मुल्कों श्रीलंका और म्यांमार में उत्पीड़ितों की अनदेखी करती है, उसके प्रमाण भी सभी के सामने हैं.

याद रहे कि म्यांमार में  रोहिंग्याओं के नस्लीय सफाये के अभियान को लेकर दुनिया भर में चिंता प्रगट की जा रही है, मगर चूंकि रोहिंग्या मुसलमान हैं, इसके चलते भाजपा को उसका उत्पीड़न नज़र तक नहीं आता. इतना ही नहीं श्रीलंका में तमिलों का उत्पीड़न- जिनका बड़ा हिस्सा हिंदुओं का है – एक कड़वी सच्चाई है, मगर उनके उत्पीड़न की भी अपने आप को हिंदुओं का हिमायती बताने वाली भाजपा सरकार अनदेखी करती है.

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अपनी जनतांत्रिक छवि चमकाने के लिए ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ होने के दावों से शुरू हुई भारत सरकार की यह यात्रा फिलवक्त डेमोक्रेसी रेटिंग गढ़ने के मुक़ाम तक पहुंची है. अभी वह किन-किन मुकामों से गुजरेगी इसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती.

जनाब मोदी- जो महज अपने करीबी सलाहकारों की बात सुनते हैं- उन्हें पता नहीं इस बात का इल्म है या नहीं कि उनकी यह कवायद दुनिया भर में हंसी का विषय बनने वाली है.

भारत के मुख्यधारा के मीडिया को उन्होंने भले ही अपने चारण में, अपने चीयरलीडर में तब्दील किया हो, जो रात दिन उनके गुणगान करने में मुब्तिला रहता है और विपक्ष को ही कटघरे में खड़ा करता दिखता है, मगर अभी भी देश के अंदर और देश के बाहर ऐसी तमाम आलोचनात्मक आवाज़े बुलंद हैं. उन्हें उनकी यह ताज़ा कवायद, उनकी दो अन्य कारगुजारियों की याद दिला रही है.

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा की अगुवाई में उन्होंने पहना मोनोग्राम्ड सूट– जिसमें  खुद उनका नाम लिखा था और अहमदाबाद के ऐतिहासिक सरदार पटेल स्टेडियम का रातोंरात उनके नाम से नामकरण करने का हास्यास्पद कदम.

यह दोनों कदम ऐसे थे जिसने उनकी तुलना दुनिया के तानाशाहों द्वारा उठाए गए कदमों के साथ हुई थी.

वैसे वह अगर उनकी हुकूमत की छवि को लेकर वाकई चिंतित हैं तो उन्हें शायद ऐसी कवायद को वैधता प्रदान करने के बजाय एक दूसरा कदम उठाना चाहिए. एक अख़बार में इस मुददे पर टिप्पणी करते हुए विश्लेषक/सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा दी गई सलाह उनके लिए मुफीद जान पड़ती है.

पत्र लेखक ने लिखा था कि ‘जितने सूचकांकों पर भारत हाल के सालों में लुढ़का है, उसे देखते हुए शायद सरकार के लिए यह अधिक आसान होगा कि वह सत्यजित राय द्वारा निर्देशित ‘हीरक राजार देशे’ (अर्थात हीरे के राजा के देश में) में प्रयुक्त तकनीक का प्रयोग कर सकती है. वह बड़ी ब्रेनवाॅशिग मशीन में निवेश कर सकती है जो जनता को यही समझा देगी कि सब कुछ कितना सुंदर है.’

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)

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