पहला आम चुनाव: इतिहास का सबसे बड़ा जुआ

इस ऐतिहासिक चुनाव का श्रेय कई इंसानों और संस्थाओं को दिया जा सकता है, लेकिन किसी भी मूल्यांकन की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू और सुकुमार सेन के साथ उन दो संस्थाओं से होनी चाहिए जिनके उत्कृष्ट मूल्यों को दोनों इंसान रूपायित करते थे - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय सिविल सेवा.

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जवाहरलाल नेहरू. (पेंटिंग साभार: रोहन पोरे)

आज जब हिंदुस्तान आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, हम देश के पहले आम चुनाव को याद कर सकते हैं- आस्था का एक विराट उत्सव जिसकी इतिहास में कोई उपयुक्त मिसाल नहीं है. हाल ही में स्वाधीन हुए देश ने एक झटके से सार्वभौम वयस्क मताधिकार को चुन लिया था, जबकि पश्चिम में यह अधिकार पहले धनाढ्य वर्ग को मिला था, कामगार वर्ग तथा स्त्रियों को बहुत बाद में जाकर यह हासिल हो पाया था- वह भी कठिन संघर्ष के बाद.

अगस्त 1947 में आज़ाद होने के दो साल बाद भारत ने चुनाव आयोग की स्थापना कर ली थी. मार्च 1950 में सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिए गए. अगले महीने संसद में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम पारित हो गया. इस अधिनियम को पेश करते वक़्त प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि किसी भी सूरत में 1951 के वसंत तक चुनाव हो जाएंगे.

नेहरू की व्यग्रता समझ में आती थी, लेकिन वह इंसान थोड़ा सशंकित था जिसे इस चुनाव को मुमकिन बनाना था, और जो भारतीय लोकतंत्र का एक अज्ञात नायक है.

यह दुखद है कि हम सुकुमार सेन के बारे में बहुत कम जानते हैं. उन्होंने कोई संस्मरण नहीं लिखा, न ही शायद उनके कोई दस्तावेज़ मौजूद हैं. उनका जन्म 1899 में हुआ था. उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज तथा लंदन विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी, जहां उनको गणित में स्वर्ण पदक मिला था. वे 1921 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए और विभिन्न ज़िलों में न्यायाधीश बतौर काम करने के बाद 1947 में पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव नियुक्त हुए, जिसके बाद वे बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली आए थे.

यह सेन के भीतर बैठा गणितज्ञ था जिसने नेहरू को थोड़ा धैर्य रखने के लिए कहा था. इतना विशाल दायित्व किसी अधिकारी को नहीं सौंपा गया था, किसी हिंदुस्तानी को तो एकदम नहीं. इक्कीस वर्ष या उससे अधिक आयु के 17.6 करोड़ हिंदुस्तानी, जिनमें से लगभग 85 प्रतिशत पढ़ या लिख नहीं सकते थे. सबसे पहले प्रत्येक मतदाता की पहचान कर उसे पंजीकृत करना था.

अगला सवाल था- अमूमन निरक्षर मतदाताओं के लिए चुनाव-चिह्न, मतदान-पत्र और मतदान पेटियां कैसे तैयार की जाएं? मतदान केंद्रों का निर्माण होना था, पर्याप्त दूरी पर होना था और ईमानदार तथा योग्य मतदान अधिकारियों की भर्ती होनी थी. निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव आयोग को पारदर्शी मतदान सुनिश्चित करना था. चूंकि आम चुनाव के साथ राज्य की विधान सभाओं के चुनाव भी होने थे, सुकुमार सेन के साथ विभिन्न प्रांतों के चुनाव आयुक्त काम कर रहे थे, जो स्वयं सिविल सेवक थे.

अंततः 1952 के आरंभिक महीनों में चुनाव कराने का निर्णय लिया गया. एक अमेरिकी पत्रकार ने ठीक ही लिखा था कि चुनावी प्रक्रिया ने ‘विकराल समस्या’ पैदा कर दी थी. [1] सेन की चुनौती को समझने के लिए इन आंकड़ों पर ग़ौर करें. क़रीब 4,500 संसदीय क्षेत्रों के लिए- लगभग पांच सौ संसद और बाक़ी प्रांतीय विधान सभाएं- 224,000 मतदान केंद्र तैयार किए जाने थे और उन्हें स्टील की लगभग 20 लाख मतदान पेटियों से लैस किया जाना था. इन पेटियों को तैयार करने के लिए 8,200 टन स्टील की ज़रूरत थी. मतदाताओं के नाम टाइप करने तथा उनको क्रमानुसार व्यवस्थित करने के लिए 16,500 क्लर्कों को छह महीने के अनुबंध पर नियुक्त किया गया था. इन नामावलियों को छापने के लिए लगभग 3,80,000 रीम[2] काग़ज़ का इस्तेमाल किया गया था. 56,000 पीठासीन अधिकारियों के अलावा 2,80,000 ‘कमतर’ अमला था, और 2,24,000 पुलिसकर्मी भी तैनात किए गए थे. ये चुनाव दस लाख वर्ग मील के विशाल, विविध और दुर्गम भूगोल पर संपन्न होने थे. सुदूर पहाड़ी गांवों की नदियों पर पुलों का निर्माण होना था. हिंद महासागर के छोटे द्वीपों पर मतदाता सूचियों को मतदान केंद्रों तक ले जाने के लिए पानी के जहाज़ों का उपयोग किया गया था.

इसके अलावा एक सामाजिक समस्या भी थी. उत्तर भारत की बेशुमार स्त्रियां अपना नाम बताने से झिझकती थीं. वे किसी की मां या बीवी के रूप में अपना पंजीयन कराना चाहती थीं. सुकुमार सेन इस ‘विचित्र और निरर्थक रूढ़ि’ से बहुत नाराज़ हुए. उन्होंने अधिकारियों को इन स्त्रियों के नाम जोड़ने के निर्देश दिए, लेकिन इसके बावजूद 28 लाख स्त्री मतदाताओं को सूची से हटाना पड़ा. इस पर बहुत शोर मचा, लेकिन सेन ने इसे ‘शुभ संकेत’ की तरह देखा. उन्हें लगा कि अगले चुनाव तक ये पूर्वाग्रह मिट जाएंगे और स्त्रियों को सूची में उनके नाम से दर्ज किया जा सकेगा.

14 जनवरी 1952 को दिल्ली के एक मतदान केंद्र पर मतदान के दौरान की तस्वीर. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

इस चुनाव ने अनूठे नवाचारों को भी प्रेरित किया था. मसलन, दैनिक जीवन से लिए गए चित्रात्मक चुनाव-चिह्न जिनके जरिये निरक्षर मतदाता अपने प्रिय राजनीतिक दल को चुन सकते थे. ये चुनाव-चिह्न आसानी से पहचाने जा सकते थे: बैलों की जोड़ी, झोपड़ी, हाथी, मिट्टी का दीपक. इसके साथ ही, एक साथ कई मतदान पेटियों का इस्तेमाल हुआ. अगर मतदान पेटी सिर्फ़ एक होती, तो नया मतदाता गलती कर सकता था. इसलिए हर मतदान केंद्र पर प्रत्येक राजनीतिक दल की भिन्न मतदान पेटी रखी गई, जिस पर उसका चुनाव-चिह्न अंकित था. जालसाज़ी रोकने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने ऐसी स्याही निर्मित की थी जिसका दाग़ उंगली पर एक हफ़्ते बना रहता था. इस स्याही की 3,89,816 कुप्पियां इस्तेमाल की गई थीं.[3]

भारतीय आम चुनाव से ठीक पहले की अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर भी ध्यान देना ज़रूरी है. एशिया के एक अन्य देश में वियेत मिन्ह के योद्धा अपनी भूमि को बचाने के लिए फ्रांस से लड़ रहे थे, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सेनाएं उत्तरी कोरिया के हमले को नाकामयाब कर रही थीं. दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकानेर नेशनल पार्टी ने मतदाताओं के अंतिम अश्वेत समुदाय केप कलर्ड्स को मताधिकार से वंचित कर दिया था. अमेरिका ने हाल ही में अपने पहले हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया था. अरसे से सोवियत संघ के लिए जासूसी कर रहे ब्रिटिश राजनयिक डोनाल्ड मैक्लीन और गाइ बर्गेस अपनी पहचान खुलने के भय से रूस भाग गए थे. 1952 में तीन राजनीतिक हत्याएं भी हुई थीं: जॉर्डन के राजा, ईरान के प्रधानमंत्री, और हिंदुस्तान के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली खान को 16 अक्टूबर को यानी हिंदुस्तान में पहला वोट पड़ने के नौ दिन पहले गोली मार दी गई थी.

उन दिनों इंग्लैंड में भी आम चुनाव हो रहा था. विंस्टन चर्चिल एक बार फिर अपनी कंजर्वेटिव पार्टी को सत्ता में लाना चाहते थे. तीस और चालीस के दशक में चर्चिल ने भारतीय स्वतंत्रता का विरोध किया था कि वे (अंग्रेज़) राजा के प्रथम मंत्री ब्रितानी साम्राज्य के विघटन की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए नहीं बने  थे. यह काम उनके उत्तराधिकारी क्लेमेंट एट्ली के ज़िम्मे आया था, जिन्होंने लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री के रूप में उस अधिनियम पर हस्ताक्षर किए थे जिसके तहत अंग्रेजों की उपमहाद्वीप से विदाई हो गई थी.

इंग्लैंड का चुनाव एक द्विदलीय द्वंद्व था, जबकि भारतीय राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की विविधता बेमिसाल थी. स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख उत्तराधिकारी नेहरू की पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सत्ता में थी. उसके विरोध में कुछ ज़बरदस्त प्रतिभाशाली व्यक्तियों द्वारा नवगठित राजनीतिक दल खड़े हुए थे. इनमें प्रमुख थे वयोवृद्ध गांधीवादी जेबी कृपलानी द्वारा गठित किसान मज़दूर प्रजा पार्टी और समाजवादी पार्टी जिसके मार्गदर्शकों में 1942 के ‘भारत छोड़ो’ क्रांति के नौजवान नायक जयप्रकाश नारायण शामिल थे.

कृपलानी और नारायण की पार्टियां कांग्रेस पर ग़रीबों के प्रति अपनी वचनबद्धता से मुकरने का आरोप लगा रही थीं. वे उस पुरानी ‘गांधीवादी’ कांग्रेस के प्रतिनिधि होने का दावा करते थे, जो भूमिपतियों और पूंजीपतियों के बजाय कामगारों और किसानों के हितों को वरीयता देती थी.[4] जनसंघ भी कांग्रेस की आलोचना करता था. यह हिंदुस्तान के सबसे बड़े मज़हबी समुदाय, हिंदुओं को एक ठोस मतदाता समूह में संघटित करना चाहता था. इस पार्टी ने अपने उद्देश्य 21 सितंबर 1951 को नई दिल्ली में आयोजित अपनी पहली औपचारिक बैठक में बखूबी व्यक्त कर दिए थे. इसके सत्र की शुरुआत वेद-पाठ और ‘वंदे मातरम’ से हुई थी. मंच पर पार्टी के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अन्य नेता बैठे हुए थे…

जिनके पीछे सफ़ेद पृष्ठभूमि में शिवाजी की, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में कौरवों की पापी शक्तियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने के लिए ग्लानि-ग्रस्त अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण की, राणा प्रताप और मिट्टी के केसरिये दिए की तस्वीरें थीं. पंडाल में लटके बैनरों पर महाभारत की पंक्ति ‘संघ शक्ति कलि युगे’ अंकित थी, जो उद्घोष करती थी कि कलियुग में शक्ति सिर्फ़ (जन) संघ के पास है.[5]

ये तस्वीरें हिंदू महाकाव्यों से ली गई थीं, लेकिन उन योद्धाओं की स्मृति भी जगाती थीं जिन्होंने मुसलमान आक्रांताओं के साथ युद्ध लड़े थे. लेकिन वह कौरव कौन था जो पापी शत्रु का प्रतिनिधित्व करता था? पाकिस्तान, मुसलमान, जवाहरलाल नेहरू या कांग्रेस?

संघ के नेताओं के भाषणों में ये सभी घृणा के पात्र थे. जनसंघ पाकिस्तान के समावेश (या शायद उस पर विजय) के जरिये मातृभूमि का एकीकरण चाहता था. वह हिंदुस्तानी मुसलमानों को ऐसे अल्पसंख्यकों के रूप में देखता था जिन्होंने ‘अभी भी इस देश और इसकी संस्कृति को अपनाना और इसे अपने पहले प्रेम बतौर बरतना नहीं सीखा’ था. वह मुसलमानों की देशभक्ति पर प्रश्न करता था और कांग्रेस पार्टी पर उनके ‘तुष्टिकरण’ का आरोप लगाता था.[6]

एक समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी और बीआर आंबेडकर केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य रहे थे. आंबेडकर ने केंद्रीय क़ानून मंत्री के रूप में भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने में मदद की थी, लेकिन चुनावों के समय शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को पुनर्जीवित करने के लिए मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था. वे अपने भाषणों में निचली जातियों की उपेक्षा करने के लिए कांग्रेस की तीखी आलोचना करते थे.

उनका कहना था कि आज़ादी इन लोगों के जीवन में कोई बदलाव नहीं लाई है – ‘वही पुराने अत्याचार, वही पुराने दमन, वही पुराने पक्षपात…’. आंबेडकर का कहना था कि आज़ादी हासिल करने के बाद कांग्रेस एक ‘धर्मशाला’ बन गई है, जिसके उद्देश्य और सिद्धांत बिखर गए हैं, और जिसने ‘मूर्ख और धूर्त, दोस्त और दुश्मन, सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षतावादी, सुधारवादी और कट्टरपंथी, पूंजीवादी तथा पूंजीवाद-विरोधियों के लिए दरवाज़े खोल दिए हैं’.[7]

इन सबके अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) भी थी. भाकपा के बहुत-से सदस्य 1948 में किसानों की बग़ावत का नेतृत्व करने के लिए भूमिगत हो गए थे. उन्हें उम्मीद थी कि यह बग़ावत चीन की तरह देशव्यापी क्रांतिकारी लहर में परिवर्तित हो जाएगी. लेकिन पुलिस और कुछ जगहों पर सेना ने कठोर कार्रवाई की थी. इसलिए कम्युनिस्ट समय रहते चुनाव लड़ने के लिए मैदान में आ गए थे. उन्हें अस्थायी क्षमादान दे दिया गया था. ये उग्रवादी अपने हथियार छोड़ कर वोट हासिल करने निकल पड़े थे. उनकी कार्य-प्रणाली में आए इस आकस्मिक बदलाव ने ऐसी दुविधाएं पैदा कर दी थीं जिनके लिए मार्क्स या लेनिन की कोई किताब मदद नहीं कर सकती थी.

मसलन, बंगाल से चुनाव लड़ रही एक स्त्री कम्युनिस्ट तय नहीं कर पाती थी कि वह मुचड़ी हुई साड़ी पहने जो ग़रीबों के साथ उसके तादात्म्य को साबित कर सके, या साड़ी को धोकर, प्रेस कराकर पहने जो उसके मध्यवर्गीय मतदाता को आकर्षित कर सके. तेलंगाना (जहां किसान विद्रोह सबसे ज़्यादा तीव्र था) के एक संसदीय प्रत्याशी को जब किसी वरिष्ठ अधिकारी ने एक पेय पेश किया, उसने अपने अनुभव को इस तरह याद किया था -मेरा सर चकराने लगा क्योंकि वह फल का रस नहीं बल्कि ह्विस्की थी.[8]

इस सूची में जातियों और मज़हबों के आधार पर गठित क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी थे, जिनके निशाने पर सिर्फ़ कांग्रेस थी. नेहरू को पार्टी में अपने नेतृत्व को मिलती चुनौती हाल ही ख़त्म हुई थी. वल्लभभाई पटेल की मृत्यु के बाद उनका अपनी सरकार में कद बढ़ गया था, लेकिन उनके सामने ढेरों समस्याएं थीं. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी नाराज़ थे जिन्हें अभी तक बसाया नहीं जा सका था. दक्षिण में तेलुगु और उत्तर में सिख अधीर हो रहे थे. कश्मीर का मसला दुनिया की नज़रों में सुलझा नहीं था. स्वतंत्रता से ग़रीबी तथा असमानता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था, और इसके लिए सिर्फ़ सत्ताधारी पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता था.

इस चुनाव की कथा को समाचार-पत्रों की सुर्खियों के मार्फ़त भी सुनाया जा सकता है, ख़ासतौर से इसलिए कि इनके द्वारा रेखांकित मुद्दे हिंदुस्तानी चुनावों में आज भी बने हुए हैं. उत्तर प्रदेश के एक अखबार की हेडलाइन थी, ‘कड़े विरोध का सामना करते मंत्री’. एक अन्य अखबार ने लिखा था, ‘जातियों के संघर्ष ने बिहार कांग्रेस को कमज़ोर किया’. उत्तर-पूर्व के एक अखबार में यह ग़ज़ब का वाक्य था, ‘मणिपुर में स्वायत्तता की मांग’. गुवाहाटी में हेडलाइन थी,  ‘असम में कांग्रेस की कामयाबी की संभावना: मुसलमानों और आदिवासियों का वोट महत्त्वपूर्ण’. ग्वालियर में ख़बर थी, ‘कांग्रेसियों में असंतोष: प्रत्याशियों की सूची ने बड़ी खाई पैदा की’. कलकत्ता की हेडलाइन थी: ‘पश्चिम बंगाल के कांग्रेस प्रमुख को (पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थियों के ) विरोध का सामना करना पड़ा ’. लखनऊ की एक रिपोर्ट की शुरुआत यूं होती थी – ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की कोई उम्मीद नहीं’, जेबी कृपलानी दावा करते थे कि राज्य के अधिकारी सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में मतदान में हेरा-फेरी करेंगे. बंबई में चुनाव अभियान के दौरान तीन ग़ज़ब की हेडलाइन आई थीं: ‘कांग्रेस मुसलमानों के समर्थन के भरोसे’; ‘अनुसूचित जातियों के प्रति कांग्रेस की उदासीनता: डॉ. आंबेडकर ने अपने आरोप दोहराए’; ‘शहर की चुनावी झड़पों में चौदह लोग घायल’. कभी ऐसी हेडलाइन भी आती थी जो अपने समय को तो दर्शाती थी, लेकिन हमारे समय की क़तई नहीं थी, ख़ासतौर से जो पटना के द सर्चलाइट में छपी थी: ‘बिहार में शांतिपूर्ण मतदान की उम्मीद’.

उस दौर में कांग्रेस का चुनाव चिह्न ‘बैलों की जोड़ी’ हुआ करता था. (फोटो साभार: जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड)

पार्टी के बाहर व्यापक विरोध और पार्टी के अंदर थोड़ी आलोचना का सामना करते हुए नेहरू ने अपना चुनाव अभियान शुरू किया- सड़क, हवाई जहाज़ और रेल. इसकी तुलना पार्टी के एक भावुक कार्यकर्ता ने ‘समुद्रगुप्त, अशोक और अकबर की शाही मुहिमों’ और ‘फाह्यान तथा ह्वेन त्सांग की यात्रा’ से की थी. नौ हफ़्तों के भीतर नेहरू ने देश को एक सिरे से दूसरे तक नाप डाला था. उन्होंने कुल मिलाकर 25,000 मील का सफ़र तय किया था- 18,000 मील हवाई जहाज़ से, 5200 मील कार, 1600 मील ट्रेन और 90 मील नाव से.[9]

एक विश्लेषक ने लिखा था कि कांग्रेस की चुनावी मुहिम सिर्फ़ ‘एक इंसान पर टिकी थी : नेहरू, नेहरू और नेहरू. वे एकसाथ सेना-प्रमुख, फील्ड कमांडर, प्रवक्ता और पैदल सैनिक थे.’[10] नेहरू ने अभियान की शुरुआत रविवार 30 सितंबर को पाकिस्तान की सीमा से सटे लुधियाना से की थी. सभा-स्थल का यह चुनाव महत्वपूर्ण था. इस भाषण में ‘सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ सम्पूर्ण युद्ध’ का ऐलान हुआ था. उन्होंने ‘उन सांप्रदायिक संस्थाओं की निंदा की थी जो हिंदू और सिख संस्कृति के नाम पर सांप्रदायिकता का वही विषाणु फैला रही थीं जो कभी मुस्लिम लीग ने फैलाया था…’. अगर ये ‘कुत्सित सांप्रदायिक तत्त्व’ सत्ता में आ गए, वे ‘देश को तबाह कर देंगे’. इसलिए नेहरू ने अपने पांच लाख श्रोताओं से ‘अपने दिमाग़ की खिड़कियां खुली रखने और दुनिया के हर कोने से ताज़ा हवा आने देने’ का आह्वान किया.

यह स्वर गांधी की याद दिलाता था. नेहरू का अगला बड़ा भाषण 2 अक्टूबर की दोपहर पुरानी दिल्ली में हुआ था. उस विशाल जनसभा के दौरान वे हिंदुस्तानी ज़बान में अस्पृश्यता और जमींदारी, दोनों के उन्मूलन को लेकर सरकार के दृढ़ निश्चय के बारे में बोले थे. एक बार फिर उन्होंने सांप्रदायिक ताक़तों को मुख्य शत्रुओं के रूप में पहचाना था जिनके प्रति ‘कोई उदारता नहीं बरती जाएगी’ और जिन्हें ‘हम अपनी पूरी ताक़त से कुचल देंगे’. पिच्यानवें मिनट के उनके भाषण के दौरान बार-बार ज़ोरदार तालियां बजीं, विशेष रूप से जब उन्होंने यह घोषणा की: ‘अगर कोई भी व्यक्ति मज़हब के आधार पर दूसरे व्यक्ति को मारने के लिए अपना हाथ उठाएगा, तो मैं, सरकार के मुखिया के रूप में और सरकार से बाहर रहते हुए भी, उसके ख़िलाफ़ अपनी आख़िरी सांस तक लड़ूंगा.’

नेहरू जहां भी गए, सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ पूरी सख़्ती के साथ इतना बोले कि कुछ पर्यवेक्षकों को लगा था कि वे हालिया जन्मे जनसंघ को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दे रहे थे. हालांकि उन्होंने दूसरे मुद्दों को भी छुआ था. बिहार में उन्होंने उस ‘जातिवाद के राक्षस’ की भर्त्सना की, जिसने गांधी की कांग्रेस तक को नहीं छोड़ा था. बंबई में उन्होंने अपने श्रोताओं को याद दिलाया कि कांग्रेस के लिए वोट पार्टी और उनकी उस विदेश नीति के लिए भी होगा जो वैश्विक शांति और तटस्थता को प्रस्तावित करती है. भरतपुर और बिलासपुर में उन्होंने अपने वामपंथी आलोचकों के उतावलेपन की निंदा की, जिनके साधन न सही, लक्ष्य वे खुद भी साझा करते थे. वे बोले थे, ‘हम एक-एक ईंट रखकर ही समाजवाद का महल गढ़ सकते हैं’. अंबाला में उन्होंने स्त्रियों से अपना घूंघट हटाकर ‘देश के निर्माण में आगे आने’ का आह्नान किया. केरल और कुछ अन्य जगहों पर उन्होंने आंबेडकर, कृपलानी, जॉन मथाई और जयप्रकाश नारायण जैसे अपने श्रेष्ठ प्रतिपक्षियों की सराहना की थी. ये सभी पार्टी या सरकार में उनके साथी रहे थे. उन्होंने कहा था, ‘हमें ऐसे अनेक योग्य और निष्ठावान लोगों की ज़रूरत है. उनका स्वागत है. लेकिन ये सब अलग दिशाओं में जा रहे हैं और अंततः कुछ भी नहीं कर रहे हैं .’

वे जहां भी गए, उन्होंने बच्चों को अपने साथ राष्ट्रगीत गाने का आह्नान किया. उनका संदेश संकुचित पक्षधरता का नहीं, देशभक्ति का था. जब भीड़ ‘पंडित नेहरू ज़िंदाबाद’ या ‘कांग्रेस ज़िंदाबाद’ का नारा लगाती थी, वे ‘जय हिंद’ या ‘नया हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ नारा लगाने का आग्रह करते थे .

अपने चुनाव-अभियान के दौरान नेहरू ‘सोये कम, यात्रायें अधिक कीं और बोले उससे भी अधिक’. उन्होंने तीन सौ जनसभाओं और सड़क किनारे की अनगिनत सभाओं को संबोधित किया. उन्होंने लगभग 2 करोड़ लोगों से सीधा संवाद किया, जबकि उतने ही लोग उनकी झलक पा सके, जो उन सड़कों के दोनों तरफ़ उत्सुकता से खड़े होते थे जहां से उनकी कार गुज़रती थी. खदान मज़दूर, किसान, चरवाहे, कारख़ानों के कामगार से लेकर खेतिहर मज़दूर. इसके अलावा बड़ी संख्या में तमाम वर्गों की स्त्रियां उनकी सभाओं में आई थीं. कभी श्रोताओं के बीच उनके विरोधी भी आ जाते थे. आगरा-भरतपुर मार्ग पर एक जगह समाजवादियों ने कांग्रेस-विरोधी नारे लगाए. उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में जनसंघ के समर्थकों ने नेहरू की रैलियों में शोर मचाया कि यह आदमी विश्वास के क़ाबिल नहीं है क्योंकि यह गोमांस खाता है.

पत्रकार फ़्रैंक मोरिस ने एक घटना के बारे में लिखा है जो संभवतः केरल में दर्ज हुई थी, जब नेहरू को हथौड़ा और हंसिया फहराते कम्युनिस्टों के समूह का सामना करना पड़ा था. जब नेहरू ने पूछा, ‘आप उस मुल्क में जाकर क्यों नहीं रहते जिसका झंडा आप लिए हुए हैं?’, उन्होंने पलटकर जवाब दिया, ‘आप न्यूयॉर्क जाकर वॉल स्ट्रीट के साम्राज्यवादियों के साथ क्यों नहीं रहते?’[11]

लेकिन ऐसे लोग अपवाद थे. नेहरू की सभाओं में ज़्यादातर लोग उनकी प्रशंसा करते थे. कांग्रेस की एक पुस्तिका में दर्ज यह सार बहुत अधिक अतिरंजित नहीं है :

लगभग हरेक स्थान, शहर, क़स्बे, गांव या सड़क किनारे के पड़ाव पर लोगों ने राष्ट्र-नेता के स्वागत के लिए रात भर इंतज़ार किया. स्कूल और दुकानें बंद हो गईं. ग्वालों और चरवाहों ने दैनिक काम से छुट्टी ले ली. किसान और मजदूरों ने सुबह से शाम की अपनी कड़ी मेहनत से थोड़ी फुरसत निकाल ली. नेहरू के नाम पर सोडा और नीबू पानी की ढेरों बोतलें बिक गईं, यहां तक कि पानी भी कम पड़ गया… नेहरू की सभाओं में लोगों को लेकर जाने के लिए विशेष रेलगाड़ियां चलानी पड़ीं. उत्साही लोग न सिर्फ़ रेल के डिब्बों के फुटबोर्ड पर, बल्कि उनके ऊपर बैठकर भी सफ़र करते थे. बहुत-से लोग भारी भीड़ की वजह से बेहोश हो जाते थे.[12]

(फोटो साभार: जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड)

पत्रकारों ने जनता की मनःस्थिति को अच्छे से दर्ज किया था. बंबई में नेहरू के भाषण के दौरान चौपाटी तक झांझ-मजीरों के साथ एक जुलूस निकला था, जिसमें मुख्यतः मुसलमान शामिल थे. जुलूस के आगे हलधर बैलों का एक जोड़ा (कांग्रेस का चुनाव-चिह्न) चल रहा था. दोपहर के भाषण के लिए सुबह से भीड़ जमा होने लगती थी. ‘नेहरू की एक झलक पाने के उत्साह में’ लगभग हर जगह अवरोध तोड़ दिए गए थे. जब नेहरू दिल्ली में अपना भाषण समाप्त कर मंच से नीचे उतरे, मशहूर मस्सू पहलवान ने उन्हें सोने की जंज़ीर भेंट करते हुए कहा, ‘यह तो कुछ भी नहीं है. मैं तो आपके और देश के लिए जान तक देने को तैयार हूं.’

इसी तरह खड़गपुर के रेलवे नगर में नेहरू को सुनने एक तेलुगु-भाषी स्त्री आई थी. जब वे भाषण दे रहे थे, वह स्त्री प्रसव-पीड़ा से गुज़र रही थी. तेलुगु स्त्रियों ने तुरंत उसके चारों ओर घेरा बना लिया. शिशु का सुरक्षित जन्म हुआ, हालांकि प्रसव में सहायता कर रही स्त्रियां पूरे ध्यान से अपने नायक को सुन रही थीं. जनता नेहरू को देख द्रवित हो जाती थी, और वे जनता को देखकर.

इस लंबे अभियान के दौरान नेहरू के अनुभव सबसे बेहतर उस इंसान को लिखे ख़त में अभिव्यक्त हुए थे जिसे पूरी नज़ाकत और सचाई के साथ उनकी सबसे क़रीबी महिला-मित्र कहा जा सकता है. इस ख़त में उन्होंने एड्विना माउंटबेटन को लिखा था कि ‘मैं जहां कहीं भी जाता हूं…

मेरी सभाओं में विशाल जन-समूह चला आता है. मुझे उनके चेहरों, कपड़ों और प्रतिक्रियाओं की तुलना अपने और अपने शब्दों के साथ करना अच्छा लगता है. हिंदुस्तान के उस हिस्से का इतिहास मेरे सामने उभर आता है और मेरे भीतर अतीत के चित्र उमड़ने लगते हैं. लेकिन अतीत से ज़्यादा वर्तमान मुझे आकर्षित करता है और मैं इन नागरिकों के हृदय और ज़ेहन में उतरने लगता हूं. मैं दिल्ली के सचिवालय में लंबे समय तक कै़द रहा हूं, इसलिए हिंदुस्तान की जनता के साथ यह नया संपर्क मुझे सुखद लगता है… अपनी समस्याओं और कठिनाइयों को सरल भाषा में समझाने की कोशिश और इन सामान्य लोगों के भीतर उतरने का प्रयास थका देता है, लेकिन सुख भी देता है.

इन यात्राओं के दौरान अतीत और वर्तमान एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं और यह विलय मुझे भविष्य की ओर ले जाता है. किसी निरंतर प्रवाहमान नदी की तरह समय चीज़ों को समेटता चलता है.[13]

एक जगह लेकिन नेहरू भी नहीं पहुंच सके थे-  हिमाचल प्रदेश की चीनी नामक तहसील. यहां रहते बौद्ध समुदाय ने इस आम चुनाव का सबसे पहला मतदान किया था. सर्दियों की बर्फ़बारी उनकी घाटी को दुनिया से काट देती थी. उन्होंने पहली बर्फ़ गिरने से कुछ दिन पहले यानी 25 अक्टूबर को ही मतदान कर दिया था. पत्रकार भी इन नागरिकों से मिलने नहीं जा सके थे. उन्हें प्रशासन द्वारा दी गई जानकारी से संतोष करना पड़ा था.

हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर ने लिखा था कि किस तरह ये हिंदुस्तानी मतदाता पश्चिमी लोकतंत्र के नागरिकों से भिन्न थे. उसने लिखा था कि चीनी गांव के निवासी तिब्बत के पंचेन लामा के प्रति निष्ठा रखते थे और स्थानीय बौद्ध पुरोहितों के नियमानुसार अपना जीवन व्यतीत करते थे. उनकी धार्मिक रस्में भी भिन्न थीं. मसलन, गोरासेंग, जो किसी मकान का निर्माण पूरा होने पर मनाई जाती थी. कांगुर ज़ाल्मो अनुष्ठान के तहत लोग कनम के बौद्ध ग्रंथालय जाते थे, ‘जहां आदमी, औरतें और बच्चे पहाड़ियों पर चढ़ते थे, नाचते और गाते थे’. जोखिया चुगसिमिग अनुष्ठान के तहत लोग अपने रिश्तेदारों के घर जाते थे. अब हर पांच साल में होने वाला एक अनुष्ठान और आ गया था- चुनाव में मतदान.[14]

बाक़ी हिंदुस्तान में जनवरी और फरवरी में मतदान हुआ था. सबसे अधिक 80.5 प्रतिशत मतदान कोट्टयम संसदीय क्षेत्र में और सबसे कम यानी 18 प्रतिशत शहडोल में दर्ज हुआ था. भारी निरक्षरता के बावजूद देश के लगभग 60 प्रतिशत पंजीकृत मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया था. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एक अध्येता ने लिखा था कि हिमाचल की एक नवयुवती मतदान करने के लिए अपनी कुबड़ी मां के साथ कई मील पैदल चलकर आई थी, क्योंकि ‘वह जानती थी कि कम-से-कम इस दिन उसका महत्त्व है’.[15]

अख़बारों ने ऐसे मतदाताओं के बेहतरीन चित्र उकेरे थे. बंबई के एक साप्ताहिक ने उड़ीसा के आदिवासी ज़िलों में हुए भारी मतदान पर आश्चर्य व्यक्त किया था, जहां सन्थाल और मुंडा समुदाय धनुष-बाण लेकर मतदान केंद्रों पर आए थे. जंगल के एक मतदान-केंद्र पर 70 प्रतिशत मतदान की ख़बर थी. हालांकि कुछ चीज़ों का अनुमान सुकुमार सेन भी न लगा सके थे- नजदीक के मतदान-केंद्र पर सिर्फ़ एक हाथी और दो तेंदुए आए थे.[16]

मदुरई में 110 वर्ष का आदमी अपने पड़पोतों का सहारा लेकर आया था, जबकि अंबाला में 95 साल की बहरी और कुबड़ी स्त्री मतदान करने आई थी. असम के किसी गांव में 90 साल के वृद्ध मुसलमान को निराश होकर लौटना पड़ा था क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने उससे कह कहा था कि ‘वह नेहरू को वोट नहीं दे सकता’. इस बुजुर्ग की पीड़ा के साथ उम्र के दशवें दशक में चल रहे सांगली के एक इंसान की अधूरी रह गई गाथा भी थी जिसने विधानसभा चुनाव के लिए तो वोट डाल दिया था, लेकिन संसद के प्रत्याशी को वोट देने से पहले उसकी मृत्यु हो गई थी.

पंजाब के एक मतदान अधिकारी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि चुनाव आयोग ने कितनी एहतियात और ज़िम्मेदारी के साथ अपने दायित्व को निभाया था- मतदान पेटियों की सुरक्षा, मतदान-कक्षों के बाहर प्रत्याशियों के नाम, चुनाव-चिह्न तथा चुनावी अपराधों की फ़ेहरिस्त, पुलिस दस्ते की तैनाती. ‘इस व्यवस्था की वजह से मतदान शांतिपूर्ण हुआ. मतदाता आए और कतार में खड़े हुए. यहां तक कि कोई बातचीत करता भी दिखाई नहीं देता था. लग रहा था कि लोग चुनाव को एक पवित्र कार्य की तरह बरत रहे थे… जब मैं अपने केंद्र पर बैठा मतदाताओं को मतदान करते देखता था, मेरी छाती चौड़ी हो जाती थी. हिंदुस्तान अपनी सरकार को चुनने जा रहा था. कौन कहता था कि हम अपनी व्यवस्था संभालने के क़ाबिल नहीं थे?’[17]

बंबई में अत्यंत उत्साह-भरा मतदान हुआ था. दिल्ली में हुक्मरान रहते थे, लेकिन यह महानगरी हिंदुस्तान की सांस्कृतिक, वित्तीय और औद्योगिक राजधानी थी. इसके निवासी राजनीतिक तौर पर बहुत सजग भी थे. चूंकि यहां कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, सभी दल उपस्थित थे, इसलिए चुनावी कढ़ाई में उबाल भी अधिक था. जब चुनाव के दिन यानी 3 जनवरी की ‘सुबह 8 बजे मतदान के लिए सायरन बजे, हर जगह पिछली रात की हलचल के सबूत दिखाई दे रहे थे और नगरपालिका के सफ़ाई कर्मचारी अभी भी सड़कों पर बिखरे चुनावी पर्चे साफ़ कर रहे थे.’

शहर के 9,00,000 निवासियों यानी 70 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग किया था. फ़ैशनपरस्त मध्यवर्ग की तुलना में कामकाजी वर्ग के लोग कहीं ज़्यादा तादाद में आए थे. टाइम्स ऑफ इंडिया की ख़बर थी कि ‘औद्योगिक इलाक़ों में मतदाताओं ने ठंडी और ओस में डूबी सुबह के बावजूद मतदान केंद्रों के खुलने से पहले ही लंबी कतारें लगा ली थीं. इसके बरक्स (मालाबार हिल्स के) डब्ल्यूआइएए क्लब के दोनों मतदान केंद्रों में लोग टेनिस या ब्रिज खेलने आए प्रतीत होते थे, मतदान तो महज़ संयोग था’.

बंबई में हुए मतदान के अगले दिन लुशाई (जिन्हें अब मिज़ो कहा जाता है) पहाड़ियों की बारी थी. संस्कृति और भूगोल, दोनों ही दृष्टियों से इससे बड़ी विषमता नहीं हो सकती थी. बंबई के मतदान-केंद्र बहुत सघन थे, कुल 1349 केंद्र मात्र 92 वर्ग मील में फैले हुए थे, जबकि पाकिस्तान और बर्मा की सीमा से लगे इस आदिवासी इलाक़े में 113 मतदान केंद्र 8,000 वर्ग मील में फैले हुए थे. एक लेखक का कहना था कि इन पहाड़ियों पर रहने वाले लोगों ने ‘युद्धकाल के सिवाय अब तक कोई कतार नहीं देखी थी’. लेकिन तब भी उनके भीतर चुनावों के प्रति ‘ज़बरदस्त उत्साह’ था. वे ‘बीहड़ जंगलों के ख़तरनाक रास्तों से’ कई दिनों तक पैदल चलकर मतदान केंद्रों तक पहुंचे. ‘रात के वक़्त ख़ेमे डालकर अलाव के चारों ओर गाने गाए और सामुदायिक नृत्य’ किया. इस तरह 4 जनवरी को वे 92,000 मिज़ो जो ‘सदियों से किसी मसले का समाधान अपने तीरों और भालों से करते आए थे, पहली बार मतपत्र के माध्यम से अपना निर्णय सुनाने आ गए थे’.

जनवरी के मध्य में जब मतदान की प्रक्रिया जारी थी, लंदन की पत्रिका न्यू स्टेट्समेन में एक युवा हिंदुस्तानी लेखिका ने अपने लेख में चुनाव के मैदान में उतरे विभिन्न राजनीतिक दलों की ताक़तों और कमज़ोरियों का करारा विवरण देते हुए लेख के अंत में लिखा था कि यह ‘एक असमान लड़ाई है. कांग्रेस को ग्रामीणों को महज़ इतना याद दिलाने की ज़रूरत थी कि उसने ब्रिटिश राज से छुटकारा दिलाया था’. कांग्रेस का संघर्ष और बलिदान, उसके नेता की ज़बरदस्त और देशव्यापी लोकप्रियता की वजह से जनता कांग्रेस सरकार की कमज़ोरियां माफ़ कर देती थी.

यह लेखिका भविष्य के प्रति आशान्वित थीं, लेकिन आगाह भी कर रही थीं कि ‘नेहरू अवश्य नाव खे कर ले जाएंगे, लेकिन बहुत-से लोग इस उम्मीद में वोट डाल रहे होंगे कि चुनाव के बाद वे उन सारे बेईमान, संकीर्ण, सनकी और सौदेबाज़ों को (कांग्रेस से) निकाल बाहर करेंगे जो एक राष्ट्रीय झंडा, एक राष्ट्रभाषा, भतीजों-भतीजियों की नौकरी, सरकारी लाइसेंस और शराबबंदी को रोटी, कपड़ा और मकान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मानते हैं.’[18]

मतदान फरवरी के आख़िरी हफ़्ते में समाप्त हो गया था. कांग्रेस आसानी से जीत गई थी. पार्टी ने संसद में 489 में से 364 और विधानसभाओं में 3,280 में से 2,247 सीटें हासिल की थीं. लेकिन कांग्रेस के आलोचकों ने रेखांकित किया था जीती गई सीट और चुनाव में पड़े वोट के प्रतिशत के बीच भारी अंतर था. संसद के लिए कांग्रेस ने 45 प्रतिशत वोट के साथ 74.4 प्रतिशत सीटें जीती थीं, जबकि राज्यों के चुनाव में यही आंकड़ा 42.4 प्रतिशत और 68.6 प्रतिशत था. इसके बावजूद कांग्रेस के 28 मंत्री हार गए थे. इनमें राजस्थान से जय नारायण व्यास और बंबई से मोरारजी देसाई जैसे दिग्गज शामिल थे. सबसे विचित्र यह था कि साम्यवादी रविनारायण रेड्डी- जिन्होंने चुनाव अभियान के दौरान जीवन में पहली बार ह्विस्की पी थी-  सबसे बड़े अंतर से चुनाव जीते थे, नेहरू से भी अधिक.

मतदान की पूर्व-संध्या पर सुकुमार सेन ने कहा था कि ये चुनाव ‘मानव इतिहास में लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘प्रयोग’ हैं. मद्रास के एक बुज़ुर्ग संपादक उतने आशान्वित नहीं थे. उनकी शिकायत थी कि ‘बहुत बड़ी तादाद में लोग पहली बार मतदान करेंगे. इनमें से बहुत लोग नहीं जानते कि मतदान क्या है, मतदान क्यों करना चाहिए और किसे वोट देना चाहिए. आश्चर्य नहीं कि इस समूचे अभियान को इतिहास के सबसे बड़े जुए की तरह देखा गया है’.[19]

यही संशय ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के ऑल सोल्स कॉलेज से पढ़े विलक्षण विद्वान पेंडेरेल मून को भी था जिन्होंने इंडियन सिविल सर्विस में काम करने के बाद हिंदुस्तान में ही रहने का फै़सला किया था. मून ने 1941 में पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए पश्चिमी लोकतंत्र की भारतीय परिस्थितयों में अनुपयुक्तता की बात की थी. ग्यारह साल बाद वे पहाड़ी राज्य मणिपुर के मुख्य आयुक्त थे, और जैसे-तैसे मतदान और मतगणना की व्यवस्था संभाल रहे थे. जब उनतीस जनवरी को मणिपुर में चुनाव हुए, मून ने अपने पिता को ख़त लिखा था कि ‘भावी और कहीं अधिक प्रबुद्ध युग लाखों निरक्षर लोगों द्वारा अपना मत दर्ज़ कराये जाने के इस प्रहसन को विस्मय के साथ देखेगा’.[20]

दिलचस्प है कि उन्हीं दिनों नेहरू के भीतर भी सार्वभौम मताधिकार को लेकर संशय उमड़ रहे थे. बीस दिसंबर 1951 को उन्होंने दिल्ली में ‘मनुष्य की अवधारणा और पूर्व तथा पश्चिम में शिक्षा का दर्शन’ विषय पर यूनेस्को के परिसंवाद को संबोधित करने के लिए चुनाव-अभियान से अवकाश लिया था. अपने समापन वक्तव्य में नेहरू ने स्वीकार किया था कि लोकतंत्र या स्व-शासन सबसे बेहतर शासन-प्रणाली है, लेकिन क्या

वयस्क मताधिकार के जरिये चुने गए लोगों के आचरण में चिंतन के अभाव और प्रचार के शोर की वजह से गिरावट नहीं आ जाती… वह (मतदाता) शोर और कोलाहल से प्रभावित होता है, बेवजह दोहराई जा रही चीज़ों से प्रभावित होता है और तानाशाह या किसी ऐसे गूंगे व संवेदनहीन राजनेता को जन्म देता है जो तमाम कोलाहल के सामने स्थिर रहा आता है और सिर्फ़ इसलिए चुन लिया जाता है क्योंकि दूसरे लोग इस कोलाहल से ढह चुके होते हैं.

यह दुर्लभ आत्मस्वीकार उनके हालिया अनुभवों पर आधारित था. एक सप्ताह बाद नेहरू ने संकेत किया था कि बेहतर शायद यह होता कि गांव और ज़िला स्तर पर प्रत्यक्ष चुनाव और उच्च स्तरों पर अप्रत्यक्ष चुनाव कराए जाएं, क्योंकि ‘इतनी विराट जनसंख्या के लिए प्रत्यक्ष चुनाव एक पेचीदा समस्या है. प्रत्याशी मतदाता के संपर्क में कभी आ नहीं पाते और दूरियां बनती जाती हैं.’[21]

नेहरू में किसी मसले के दोनों पहलुओं को देखने की असाधारण क्षमता थी, जो राजनेताओं के बीच दुर्लभ थी. वे किसी व्यवस्था से प्रतिबद्ध होते हुए भी उसकी त्रुटियों को देख सकते थे. दूसरे पर्यवेक्षक अधिक आशावादी थे. अंबाला का द ट्रिब्यून ‘उस ज़िम्मेदारी और राजनीतिक परिपक्वता से बेहद प्रभावित’ था ‘जिसका परिचय वयस्क मतदाताओं ने पूरे देश में दिया था’. उसने जोड़ा था कि ‘आम जनता शिक्षित भद्र वर्ग से बेहतर नज़र आई’. टाइम्स ऑफ इंडिया का मानना था कि इन चुनावों ने ‘उन तमाम संशयवादियों को हक्का-बक्का कर दिया जो सोचते थे कि वयस्क मताधिकार इस देश के लिए बहुत जोख़िम भरा प्रयोग होगा’. हिंदुस्तान टाइम्स का कहना था कि ‘दुनिया भर के लोग सहमत हैं कि विश्व इतिहास के सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनावों के दौरान भारतीय जनता का आचरण सराहनीय रहा है…’

(फोटो साभार: जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड)

अंतिम परिणाम आने और कांग्रेस के निर्विवाद रूप से सत्ताधारी दल के रूप में उभरने से पहले नेहरू के संशय मिट गए थे. उन्होंने कहा था कि ‘तथाकथित निरक्षर मतदाताओं के प्रति मेरा सम्मान बढ़ गया है. हिंदुस्तान में वयस्क मताधिकार को लेकर मेरे संदेह पूरी तरह मिट गए हैं’.[22] विदेशी समाचार-पत्र अमूमन एकमत थे. हालांकि कुछ अमेरिकी अख़बार चिंतित थे कि चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी अब संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, ‘इसलिए हिंदुस्तान जल्दी ही पश्चिमी दुनिया के हाथ से निकल जाएगा’. [23]

वहीं, बर्कले के एक अध्येता ने कहा था कि यह चुनाव उन विश्लेषकों के मुंह पर तमाचा था ‘जिन्होंने इसका यह कहकर मज़ाक उड़ाया था कि इससे हिंसा भड़केगी, निरक्षरों के मतों के साथ बेईमानी होगी और प्रतिनिधित्व पर आधारित शासन-प्रणाली विकृत हो जायेगी’.[24]

अधिकांश विदेशी पर्यवेक्षक बहुत ख़ुश थे, उन्हें कोई समस्या नहीं दिखी थी. एक अंग्रेज दंपति (पति इंडियन सिविल सर्विस के भूतपूर्व अधिकारी और पत्नी मेन्चेस्टर गार्जियन की रिपोर्टर) ने कहा था: ‘पूरे भारत में चुनावी उपद्रवों में मात्र आधा दर्जन सिर फूटे’. मतदाताओं का ऐसा ‘अनुशासित व्यवहार सिर्फ़ अंग्रेजों की कतारों में देखने को मिलता है. चुनाव प्रचार भी शालीन और शांतिपूर्ण था. चुनावों की पूरी रंगत, यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा के मंचों पर भी, बारिश के किसी सुहाने दिन के दौरान (लंदन के) हाइड पार्क की याद दिलाती थी’.[25]

एक तुर्क पत्रकार ने चुनाव की प्रक्रिया के बजाय उसकी आत्मा पर लिखा था. उसने नेहरू की सराहना की थी कि उन्होंने उन एशियाई मुल्कों का अनुसरण नहीं किया जिन्होंने ‘असहमति तथा आलोचना को कुचलते हुए तानाशाही और केंद्रीयकृत सत्ता’ को स्थापित किया था. प्रधानमंत्री ‘ऐसे प्रलोभनों से दूर रहे’, लेकिन इसका सबसे बड़ा ‘श्रेय स्वयं इस राष्ट्र को जाता है. सत्रह करोड़ साठ लाख हिंदुस्तानियों को उनके विवेक के साथ मतदान पेटी के समक्ष अकेला छोड़ दिया गया था.

यह प्रत्यक्ष और गुप्त मतदान था. एक तरफ़ धर्मतंत्र, अंधराष्ट्रीयता, और सांप्रदायिक अलगाववाद था, दूसरी तरफ़ धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता, स्थायित्व और दुनिया के साथ दोस्ताना व्यवहार था. उन्होंने संयम और प्रगति को चुनकर व प्रतिक्रियावाद और अशांति को नकार कर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया’.[26] यह पर्यवेक्षक इस क़दर प्रभावित था कि वह अपने देश का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर सुकुमार सेन से मिलने गया. मुख्य चुनाव आयुक्त ने उन्हें मतदान पेटियां, मतदान पत्र और चुनाव-चिह्नों के साथ एक मतदान-केंद्र का मॉडल भी दिखाया ताकि वे अपने देश के लोकतंत्र के सामने आ रही समस्याओं से निबट सकें.

एक अर्थ में यह तुर्क पत्रकार सही था. इस चुनाव के सत्रह करोड़ साठ लाख नायक थे, या मुख़्तसर ढंग से कहें तो 10 करोड़ 70 लाख नायक, यानी वे लोग जिन्होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद मतदान किया था. लेकिन कुछ लोग कहीं विशिष्ट थे. लखनऊ विश्वविद्यालय के सम्मानित समाजविज्ञानी डीपी मुखर्जी ने ध्यान दिलाया था कि ‘सबसे बड़ा श्रेय उन लोगों को जाता है जिन्हें भारतीय इतिहास के इस पहले विलक्षण प्रयोग का दायित्व दिया गया था. एक ईमानदार प्रधानमंत्री द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारी को नौकरशाही ने उतनी ही ईमानदारी से निभाकर अपना मूल्य साबित किया है’.[27]

यह तुलना महत्त्वपूर्ण है, और विडंबनापूर्ण भी. क्योंकि ऐसा भी समय था जब नेहरू के मन में नौकरशाही के प्रति नफ़रत के सिवाय और कुछ नहीं था. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘आज हिंदुस्तान में जो चीज़ सबसे अधिक चौंकाती है, वह उच्च सेवाओं, ख़ासतौर से इंडियन सिविल सर्विसेज़ में आ रही नैतिक और बौद्धिक गिरावट है. यह आला अधिकारियों में सबसे अधिक है, लेकिन सभी सेवाओं के भीतर मौजूद है.’[28] यह शब्द 1935 में लिखे गए थे, जब इन अधिकारियों के पास उन्हें और उन जैसे इंसानों को जेल में ठूंस देने की ताक़त हुआ करती थी. पंद्रह साल बाद नेहरू उन्हीं लोगों के हाथों में चुनाव की ज़िम्मेदारी सौंप रहे थे जिनको किसी समय उन्होंने साम्राज्यवादी कठपुतलियां कहकर ख़ारिज़ कर दिया था.

पहले चुनाव की पटकथा उन ऐतिहासिक शक्तियों ने मिलकर लिखी थी, जो लंबे अरसे तक एक दूसरे के ख़िलाफ़ रही थीं- ब्रितानी उपनिवेशवाद और हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद. इन दोनों ने मिलकर एक नए राष्ट्र को एक झटके से लोकतंत्र की राह पर रख दिया था. 1952 के बाद विधानसभाओं के असंख्य चुनावों के अलावा सोलह आम चुनाव हो चुके हैं. इनमें से कोई भी चुनाव हाइड पार्क की सभा जैसा नहीं रहा. इन चुनावों ने भय, हिंसा और बेईमानी को देखा है. लेकिन भारतीय चुनाव कहीं निष्पक्ष रहे हैं, निरंतर होते रहे हैं. मतदान का प्रतिशत 60 से ऊपर है, यानी पश्चिमी लोकतंत्रों से अधिक. महत्त्वपूर्ण यह कि निचली जातियों के लोग बड़ी तादाद में मतदान करते हैं, जो बूर्ज़्वा लोकतंत्र की प्रक्रिया में आम हिंदुस्तानी की आस्था का सबूत है.

यह सही है कि भारतीय लोकतंत्र बिखरा हुआ है, इसकी अपनी खामियां हैं. यह तमाम स्तरों पर भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है – राजनेताओं से लेकर जन सेवक तक. लेकिन यह आज भी जीवित है. इसका श्रेय कई इंसानों और संस्थाओं को दिया जा सकता है, लेकिन किसी भी मूल्यांकन की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू और सुकुमार सेन के साथ उन दो संस्थाओं से होनी चाहिए जिनके उत्कृष्ट मूल्यों को दोनों इंसान रूपायित करते थे – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय सिविल सेवा.

(मूल अंग्रेज़ी लेख आशुतोष भारद्वाज द्वारा अनूदित)

 संदर्भ

[1] रिचर्ड एल. पार्क, ‘इंडियाज जनरल इलेक्शन’, फ़ार ईस्टर्न सर्वे, 9/1/1952.

[2] एक रीम में पांच सौ पन्ने होते हैं.

[3] चुनाव-प्रक्रिया का यह विवरण सुकुमार सेन, रिपोर्ट ऑन फ़र्स्ट जनरल इलेक्शन इन इंडिया, 1951-52 ( नई दिल्ली: इलेक्शन कमीशन, 1955); और इरेन टिंकर तथा मिल वाकर, ‘द फ़र्स्ट जनरल इलेक्शन इन इंडिया एंड इंडोनेशिया’, फ़ार ईस्टर्न सर्वे, जुलाई 1956 पर आधारित है.

[4] मसलन, अशोक मेहता, पोलिटिकल माइंड ऑफ इंडिया (बॉम्बे: सोशलिस्ट पार्टी, 1952).

[5] पटना के सर्चलाइट की खबर, 22/11/ 1951

[6] क्रेग बैक्स्टर, जन संघ: बायोग्राफ़ी ऑफ एन इंडियन पोलिटिकल पार्टी (बॉम्बे: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1971)पृष्ठ 87-8 इत्यादि.

[7] हिंदुस्तान टाइम्स, दिल्ली, 12/10/1951; टाइम्स ऑफ इंडिया, बॉम्बे 9/11/51; अशोक मेहता, पूर्वोद्धरित, पृष्ठ 61.

[8]   मणिकुंतल सेन,इन सर्च ऑफ फ़्रीडम: एन अन्फ़िनिश्ड जर्नी (कलकत्ता: STREE, 2001), पृष्ठ 220-1; रवि नारायण रेड्डी, हीरोइक तेलंगाना:रेमिंसेंस एंड एक्सपीरियंस (नई दिल्ली: कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, 1973), पृष्ठ 71-2.

[9] नेहरू के अखिल भारतीय चुनावी दौरे पर केंद्रित यह और आगे के पैराग्राफ़ टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स की खबरों के साथ पिल्ग्रिमेज एंड आफ़्टर: स्टोरी ऑफ हाउ कांग्रेस फ़ॉट एंड वन जनरल इलेक्शंन (नई दिल्ली: ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी, 1952) पर आधारित हैं.

[10]  माइकल ब्रेचर, नेहरू: पोलिटिकल बायोग्रफ़ी (लंदन: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1959), पृष्ठ. 439.

[11] फ़्रैंक मोरिस, जवाहरलाल नेहरू: बायोग्रफ़ी (न्यूयॉर्क: द मैकमिलन कम्पनी, 1956), पृष्ठ. 413.

[12] पिलग्रिमेज एंड आफ़्टर, पृष्ठ. 23.

[13] लेडी माउंटबेटन के नाम नेहरू का ख़त, 3 दिसंबर 1951, सर्वेपल्ली गोपाल की किताब जवाहरलाल नेहरू: बायोग्रफ़ी: खंड दो, 1947-1956 (दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1979),  पृष्ठ. 161.

[14] मतदान और मतदाता के व्यवहार का यह विवरण मुख्यतः तात्कालिक अख़बारों विशेषकर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स पर आधारित है.

[15]  आयरीन टिंकर वॉकर, द जनरल इलेक्शन इन हिमाचल प्रदेश, इंडिया,1951’, पार्लियामेंटरी अफ़ेयर्स, खंड 6, क्रमांक 3, ग्रीष्म 1953.

[16]  इकनोमिक वीकली का संपादकीय 5/1/1952

[17] मार्ग्रेट डब्ल्यू. फ़िशर और जोन वी. बोंड्यूरंट द्वारा सम्पादित इंडियन इक्स्पिरीयन्स विद डेमोक्रैटिक इलेक्शन,  इंडियन प्रेस डायजेस्ट्स, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफ़ोर्निया, बर्कले, क्रमांक 3, दिसंबर 1956, पृष्ठ 7-8 में उद्धृत.

[18] अमिता मलिक, ‘एज इंडिया वोट्स’, न्यू स्टेट्समेन, 19/1/1952.

[19] सी. आर. श्रीनिवासन, ‘द इलेक्शन आर ऑन’, इंडियन रिव्यू, जनवरी 1952, जोर मेरा.

[20] Mss. Eur. F. 230/26, ओरिएंटल एंड इंडिया ऑफिस कलेक्शंस, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में पत्र से उद्धृत.

[21] ट्रिब्यून (अंबाला), 22 दिसंबर 1951; हितवाद, 30 दिसंबर 1951; दोनों ऊपर उद्धृत फ़िशर एंड बोंड्यूरेंट, पृष्ठ 56-7, 58, में उद्धृत.

[22] यह पैराग्राफ़ उपरोक्त किताब में उद्धृत प्रेस रिपोर्ट पर आधारित है, पृष्ठ. 61f; नेहरू के उद्धरण डब्ल्यूएच मोरिस-जोंस के ‘द इंडियन इलेक्शन’, इकोनॉमिक वीकली, 28/6/1952 और 5/7/1952 से लिए गए हैं.

[23] सैम्यूअल श्वर्टज, ‘कम्यूनिज़म एंड द इंडियन इलेक्शन’, अमेरिकन स्कॉलर, ऑटम 1952.

[24]  रिचर्ड लेनर्ड पार्क,‘इंडियन इलेक्शन रिज़ल्ट्स’, फ़ार ईस्टर्न सर्वे, 7/1/1952.

[25] ताया जिनकिन और मौरिस जिनकिन, ‘द इंडियन जनरल इलेक्शंस’, वर्ल्ड टुडे, खंड 8, अंक 5, मई 1952.

[26] अहमद एमिन यालमन, संपादक, डेली वतन, इस्तांबुल, टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 फरवरी 1951.

[27] मुखर्जी, ‘फ़र्स्ट फ़्रूट्स ऑफ जनरल इलेक्शंस’, इकोनॉमिक वीकली, 26 जनवरी 1952.

[28] जवाहरलाल नेहरू, एन ऑटोबायोग्रफ़ी: विद म्यूज़िंग्स ऑन रीसेंट इवेंट्स इन इंडिया (1936: पुनर्मुद्रण लंदन: द बाड्ली हेड, 1949), पृष्ठ. 598 (यह उद्धरण 25 अक्टूबर 1935 को बदेनवेलर में जोड़े अंश से लिया गया है)