‘सबसे अच्छा बचाव यही होता है कि हम सही वक्त आक्रमण करें’.
भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा जारी चुनावी घोषणा पत्र को खारिज करने तथा विवादास्पद बनाने के इरादे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसमें जो ‘मुस्लिम लीग की छाप’ होने का अनर्गल दावा किया, उसके बारे में यही कहा जा सकता है.
उनके तमाम सलाहकारों और रणनीतिकारों का आकलन रहा होगा कि कांग्रेस का घोषणापत्र, जो जातिगणना से लेकर आर्थिक नीति में एक नई जमीन तोड़ने की कोशिश कर रहा है, जिसमें एक नई कांग्रेस के बीज छिपे हैं, जिसमें किसी भी स्थान पर न हिंदू और न मुसलमान का जिक्र आता है, सिर्फ भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों का उल्लेख होता है, उस पर ‘एम’ लेबल चिपका देने से अचानक सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में हवा बहने लगेगी.
प्रश्न उठता है , ‘मुस्लिम लीग’ का बेतुका जिक्र क्या भाजपा की उस ग्रंथि का प्रतिबिंब है कि यह बात खुल न जाए कि आजादी के पहले जिन्ना की अगुआई वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर उसके ‘विचारधारात्मक पुरखों ने’ कैसे-कैसे गुल खिलाए हैं!
विचारों की इस लड़ाई को आगे बढ़ाया कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने. उन्होंने वजीरे आजम के इस ‘गैर-जिम्मेदाराना बयान’ की आलोचना की कि वह मुद्दा भटकाने की कोशिश करते हैं. वे उन बातों को भी सामने ले आए, जिन्हें हिंदुत्व परिवार के लोग भुला देना चाहते हैं.
– एक, हिंदुत्व परिवार के इन ‘विचारधारात्मक पुरखों’ ने किस तरह भारतीय अवाम के खिलाफ अंग्रेजों का समर्थन किया था और मुस्लिम लीग से हाथ मिलाया था ,
– दो, किस तरह उन्होंने 1942 के ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के गांधी के आह्वान का विरोध किया था,
– तीन, किस तरह श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो बाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने, की अगुआई में हिंदू महासभा ने बंगाल, सिंध और उत्तर पश्चिमी प्रांतों में मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकारें चलाईं.
याद करें कि 1937 के चुनावों में कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी थी, जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन द्वारा भारत को झोंकने पर इस्तीफा दिया था और यहां हिंदू महासभा थी, जो राजनीतिक शून्यता का लाभ उठाने में पीछे नहीं रही, जबकि मुस्लिम लीग तथा कुछ छोटी पार्टियों को छोड़कर बाकी सारी पार्टियां जेल में थी. सत्ता का स्वाद चखने के लिए उन्हें मुस्लिम लीग का साथ भी मंजूर हुआ.
– चार, भारत छोड़ो आंदोलन में न केवल हिंदू महासभा शामिल नहीं हुई बल्कि मुस्लिम लीग के साथ कई प्रांतों में सरकार कायम करने के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेज सरकार को सलाह देने लगे कि इस आंदोलन का किस तरह दमन करना चाहिए
– पांच, अधिक महत्वपूर्ण, सावरकर उन दिनों पूरे देश में अभियान चला रहे थे कि हिंदू युवाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती होना चहिए. उनका आह्वान था ‘हिंदूओं का सैन्यीकरण करो, राष्ट्र का हिंदूकरण करो.’
मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक बनाने का लक्ष्य
एक चर्चित अमेरिकी युद्ध पत्रकार टाॅम ट्रेनर (Tom Treanor) ने वर्ष 1944 में सावरकर का लंबा साक्षात्कार (1) लिया था. इंटरव्यू उस वक्त लिया गया था जब भारत के तमाम अग्रणी राजनेता या तो अंग्रेजों की जेलों में बंद थे या भूमिगत थे. लेकिन सावरकर जेल के बाहर थे. यह इंटरव्यू बाद में टाॅम ट्रेनर की किताब ‘वन डॅम थिंग आफ्टर अनादर: द एडवेंचर्स ऑफ एन इनोसेंट मैन टैप्ड बिटवीन पब्लिक रिलेशंस एंड द एक्सिस’ में प्रकाशित हुआ था.
साक्षात्कार मुख्यतः दो बिंदुओं को रेखांकित करता है-
- आजाद भारत को लेकर सावरकर की दृष्टि,
- नेताओं की विशाल कतार में उनका बढ़ता अलगाव
भारत की स्वाधीनता बहुत करीब थी और सावरकर के एजेंडा पर सबसे बड़ा सवाल था, स्वतंत्र भारत में मुसलमानों दोयम दर्जे के नागरिक हों. वह इससे संबंधित अपनी राय रखते हैं और रेखांकित करते हैं कि वह उसके लिए ‘गृहयुद्ध’ के लिए भी तैयार हैं:
टाॅम: ‘आप मुसलमान को किस तरह बरतना चाह रहे हैं ?’
सावरकरः ‘अल्पसंख्यक के तौर पर- आप के नीग्रो की तरह.’
टाॅमः ‘और अगर मुसलमान अलग होने में और अपना मुल्क कायम करने मे कामयाब हो जाते हैं तो ?’
सावरकर: ‘जैसा कि आप के मुल्क ने किया’ उन्होंने जवाब दिया, अपनी उंगली से इशारा करते हुए उन्होंने कहा ‘फिर गृह युद्ध होगा।’
दिलचस्प है कि इन दिनों सावरकर एक अभियान के तहत हिंदू युवकों का आह्वान कर रहे थे कि ब्रिटिश सेना में भर्ती हो. उनका नारा था ‘हिंदुओं का सैन्यीकरण करो, राष्ट्र का हिंदूकरण करो.’ उनकी यह रणनीति न केवल मुसलमानों के प्रति उनकी प्रचंड नफरत से संचालित थी बल्कि उन्हें यह भी लग रहा था कि अगर हिंदू बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना में शामिल होते हैं, तो हिंदू राष्ट्र का उनका सपना साकार करना सुगम होगा.
साक्षात्कारकर्ता टाॅम इस बात को आसानी से देख रहे थे कि किस तरह सावरकर जिन्ना के दावे को मजबूत कर रहे हैं.
टॉम के अनुसार, अगर सावरकर का बस चलेगा तो मुस्लिमों को कुछ भी नही मिलेगा. यही वह रुख है जो जिन्ना जैसे लोगों को पाकिस्तान के पक्ष में अधिक तर्क प्रदान करता है, जिसमें उनकी यही योजना है कि मुसलमान हिंदुओं से अलग हो जाएं.
गौरतलब था कि न केवल स्वाधीनता आंदोलन के मुख्य सरोकारों से वह विपरीत खड़े थे बल्कि यूरोप में फासीवाद के उभार तथा हिटलर की अगुआई में नस्लीय सफाये की जारी मुहिम को लेकर जवाहरलाल नेहरू तथा आंदोलन के अन्य नेताओं ने जो विरोध की आवाज़ बुलंद की थी, उसके विपरीत वह औपनिवेशिक भारत में हिटलर की प्रशंसक जमात में शामिल थे.
इंसानियत के खिलाफ हिटलर के अपराधों के बावजूद सावरकर उसकी प्रशंसा कर रहे थे. मिसाल के तौर पर जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहे भेदभाव को उन्होंने सही ठहराया था.
‘जर्मनी को पूरा अधिकार है कि वह नात्सीवाद का सहारा ले या इटली फासीवाद का सहारा ले और बाद का घटनाक्रम इस बात को साबित करता है कि सरकार के वह वाद और रूप दरअसल उन दिनों की परिस्थितियों के लिए बिल्कुल लाभकारी थे.’
वर्ष 1940 में जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था, उन्होंने कहा:
‘यह मानने का कोई कारण नहीं कि हिटलर एक मानवीय राक्षस हो क्योंकि वह नात्सी होने की बात करता है और चर्चिल देवतुल्य हो क्योंकि वह अपने आप को जनतांत्रिक कहता है. जर्मनी जिस स्थिति में था उसमें नात्सीवाद उसका मुक्तिदाता बन सका.’
हिटलर के प्रति सावरकर का सम्मोहन इस कदर था कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर नेहरू की इस बात के लिए आलोचना की कि वह हिटलर की मुखालिफत करते थे. वह मानते थे कि भारत के मुसलमानों के साथ भी उसी तरह का व्यवहार किया जा सकता है जैसा कि जर्मनी के यहूदियों के साथ किया गया.
उनके जीवन का एक और शर्मनाक अध्याय था जब अंडमान में उम्रकैद की सज़ा के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सरकार को याचिकाएं भेजना कि उन्हें जल्द रिहा किया जाए. लंबे समय बाद ब्रिटिश सरकार ने उनकी विनती पर गौर किया और उन्हें घर भेजा, अलबत्ता उन पर प्रतिबंध कायम रखे और उन्हें यह भी निर्देश दिया कि वह राजनीतिक गतिविधियों में शामिल न हों. तथ्य बताते हैं कि उन्हें रिहाई तभी मिल सकी, जब 1937 में प्रांतीय चुनाव हुए और कांग्रेस पार्टी की अगुवाई में मुंबई प्रांत में सरकार बनी.
ब्रिटिशों के साथ ‘उत्तरदायी किस्म के सहयोग की नीति’ ( policy of responsive cooperation )
कभी सावरकर के सहयोगी रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जीवनयात्रा गुणात्मक तौर पर अलग नहीं थी. वर्ष 1901 में जन्मे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राजनीतिक करिअर की शुरुआत 1929 में की और वह बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने. वर्ष 1939 में वह हिंदुओं के पक्ष को आगे बढ़ाने के लिए हिंदू महासभा से जुड़े. 1937-41 के दरमियान जब बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग की साझा सरकार थी तब वह विपक्ष के नेता बने. बाद में वह फजलुल हक के मंत्रिमंडल मे वित्तमंत्री बने, जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ जगह जगह सरकारें बनाईं. (2) जैसा कि हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार चलाने का यह अनुभव महज बंगाल तक सीमित नहीं था, वह सिंध तथा उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत तक फैला था, और हिंदू महासभा की सचेत नीति का हिस्सा था. (3)
सावरकर के सहयोगी होने के नाते श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो बाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने (1944), इन सभी निर्णयों के साझेदार थे और उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े व्यापक जनांदोलन को कुचलने में कोई गुरेज नहीं था. अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न बंगाल’ में रमेशचंद्र मजूमदार तत्कालीन बंगाल गवर्नर को मुखर्जी द्वारा भेज गए पत्र का विवरण साझा करते है, जिसमें वह भारत छोड़ो आंदोलन के दमन के तरीके सुझाते हैं.
‘श्यामा प्रसाद अपने पत्र के अंत में कांग्रेस द्वारा छेड़े गए जनांदोलन के बारे में चर्चा छेड़ते हैं. वह चिंता प्रगट करते हैं कि यह आंदोलन आंतरिक अव्यवस्था को बढ़ावा देगा और युद्ध के दौरान आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा करेगा और जनता को भड़का देगा. वह राय प्रगट करते है कि सत्ता में बैठी किसी भी सरकार को ऐसे आंदोलन को दबाना चाहिए, लेकिन यह उनके हिसाब से सिर्फ दमन से नहीं होगा … पत्र में वह सिलसिलेवार उन कदमों का जिक्र करते है, जो इस संदर्भ में उठाए जा सकते हैं. (4 )
वह साफ तौर पर इस राय के थे,
‘कोई भी, जो इस युद्ध के दौरान, जनभावना को भड़काने की कोशिश करता है, जिससे आंतरिक अव्यवस्था या असुरक्षा फैलती है, उसका सरकार द्वारा विरोध किया जाना चाहिए – जो उन दिनों सत्तासीन हो’ (5)
उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह भी वादा किया कि उनकी सरकार बंगाल के अंदर इस आंदोलन को दबाने के लिए हर मुमकिन प्रयास करेगी. (6)
यह वही श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ की स्थापना की और आज इस पार्टी की कतार में वरणीय हैं.
इस तरह हिंदुत्व के पुरखों के अतीत को समझा जा सकता है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं.)
संदर्भ:
1. https://www.dailyo.in/politics/tom-treanor-vd-savarkar-mahatma-gandhi-hitler-nationalist-hindu-mahasabha-20207
2. Media House, Delhi 2006
3. Craig Baxter, Jan Sangh, The Biography of a Indian Political Party’ Philadelphia : University of Pennysylvania Press, 1969, Page 20
4. History of Modern Bengal’ Ramesh Chandra Mazumdar Part II, Page 350-351
5. Prabhu Bapu (2013), Hindu Mahasabha in Colonial North India, 1915-1930, Constructing Nation and History, Routledge, pp 103
6. A G Noorani (2020), The RSS and The BJP : A Division of Labour, Leftword Books, Page 56
7. ( https://thewire.in/history/rss-hindutva-nationalism )