संप्रदायवादियों की दिलचस्पी धर्म में नहीं, उसके राजनीतिक इस्तेमाल में है: बिपन चंद्र

अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद वास्तविक मुद्दा नहीं हैं, क्योंकि जनता इस मुद्दे को लेकर शांतिपूर्ण रह रही है. वास्तविक मुद्दा सांप्रदायिकता का विकास और सांप्रदायिक संगठनों द्वारा सांप्रदायिक तनाव को हवा देना है.

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(फोटो साभार: विकिपीडिया)

अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद वास्तविक मुद्दा नहीं हैं, क्योंकि जनता इस मुद्दे को लेकर शांतिपूर्ण रह रही है. वास्तविक मुद्दा सांप्रदायिकता का विकास और सांप्रदायिक संगठनों द्वारा सांप्रदायिक तनाव को हवा देना है.

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फोटो: विकीपीडिया

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा प्रचंड सांप्रदायिकता पैदा कर रहा है और उससे देश की एकता एवं अखंडता को ही ख़तरा पैदा हो गया है. पूरा उत्तर प्रदेश बारूद के ढेर में बदल गया है और महज़ एक चिंगारी विस्फोट करने के लिए काफ़ी है. मेरठ और कानपुर जैसे दंगा-ग्रस्त क्षेत्र ही इससे प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि लखनऊ जैसा क्षेत्र भी इससे प्रभावित हो रहा है जहां कभी दंगे नहीं हुए थे और जो 1947 में भी दंगों से बचने में सफल रहा था.

फिर भी अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद वास्तविक मुद्दा नहीं हैं क्योंकि अयोध्या और उत्तर प्रदेश की जनता इस मुद्दे को लेकर काफ़ी समय से शांतिपूर्ण रह रही है. वास्तविक मुद्दा है सांप्रदायिकता का विकास और विभिन्न सांप्रदायिक संगठनों द्वारा सांप्रदायिक तनाव को हवा देना.

हम उन घटनाओं का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें जिनके कारण वर्तमान संकट पैदा हुआ है. 16वीं सदी के आरंभ में बाबर के एक गवर्नर ने अयोध्या में एक मस्जिद का निर्माण कराया था. कुछ लोगों ने दावा किया कि यह मस्जिद ऐसी जगह बनी जहां राम मंदिर का वजूद था.

मगर दिसंबर 1949 से पहले तक यह मुद्दा नहीं बन सकता था. दिसंबर 1949 में कुछ हिंदुओं को मस्जिद में घुसने की इजाज़त मिली और उन्होंने वहां हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कर दीं, शीघ्र ही सांप्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त मजिस्ट्रेट ने मस्जिद को विवादास्पद क्षेत्र घोषित कर उसपर ताला लगा दिया और हिंदू मुसलमान दोनों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया.

इस कार्रवाई में पक्षपात नीहित था. परंतु फिर भी, यह परिस्थिति एक तात्कालिक समाधान के रूप में सभी पक्षों को स्वीकार थी क्योंकि मामला कोर्ट तक पहुंच गया था. 1980 के दशक के आरंभ तक शांति बनी रही और उसके बाद विश्व हिंदू परिषद सक्रिय हो उठी.

परिषद ने राम जन्मभूमि की मुक्ति की मांग करते हुए एक व्यापक जन आंदोलन छेड़ दिया. आंदोलन का स्वरूप भावत्मक रूप से बहुत ही विस्फोटक था. एक रथ का जुलूस निकाला गया जिसमें हथकड़ी पहने राम की मूर्ति रख दी गई. जनता से गुहार की गई कि जन्मभूमि को वापस लेकर राम को स्वतंत्र करें. तभी अचानक 11 फ़रवरी 1986 को ज़िलाधीश ने मंदिर का ताला खुलवा दिया और हिंदुओं को मंदिर में पूजा करने की इजाज़त दे दी.

हिंदू संप्रदायवादियों ने जश्न मनाया जबकि दूसरी ओर मुसलमानों में ग़ुस्सा और निराशा थी. शीघ्र ही इस विवाद में मुस्लिम संप्रदायवादी भी शामिल हो गए, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाई गई और बाबरी मस्जिद को मुसलमानों को सौंपने को लेकर जन-अभियान शुरू कर दिया गया.

ऊपर से देखने पर यह विवाद धार्मिक लगता है. मगर ऐसा है नहीं. वास्तव में हिंदू अथवा मुस्लिम संप्रदायवादियों की दिलचस्पी धर्म में नहीं अपितु राजनैतिक उद्देश्यों के लिए केवल उसका इस्तेमाल करने में है. जन-राजनीति के इस युग में जनता की धार्मिक भावनाओं को जगाकर और यह भय पैदा करके कि उनका धर्म ख़तरे में हैं वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं.

सांप्रदायिकता के मध्यवर्गीय संघटना के दायरे से निकल कर व्यापक जन आंदोलन का रूप देने के लिए धर्म के भावत्मक और ज्वलनशील तत्वों का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसलिए हिंदू और मुसलमान दोनों ही संप्रदायवादी बाबरी मस्जिद अथवा राम जनभूमि के रक्षा के नाम पर शहीदी जत्थों का निर्माण कर रहें हैं.

धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी मानसिकता के लोग, दल और समुदाय अचानक नींद से जाग उठे हैं और भारतीय समाज तथा राष्ट्र के प्रति संंभावित नुकसान की गंभीरता को समझने लगे हैं. वे अनसुलझी गुत्थी का सामना कर रहे हैं. अनेक किस्म के समाधान पेश की जा रहे हैं. यह पिंजरे से चिड़िया के उड़ जाने के बाद उसे पकड़ने की कोशिश जैसा है.

अगर कुछ समस्याओं को ठीक समय पर हाल नहीं किया जाए तो वो दु:स्वप्न बन जाती हैं. जब विश्व हिंदू परिषद राम को मुक्त कराने का अभियान चला रही थी उस वक़्त कुछ नहीं किया गया, उसे नज़रंदाज़ किया गया. हमारे समाचार पत्रों ने भी इस ओर ध्यान नहीं खींचा. ज़िला जज के निर्णय के समय पर भी जब समस्या अपने आरंभिक चरणों में थी, कुछ नहीं किया गया और इस तरह एक वर्ष का मूल्यवान समय व्यर्थ चला गया. सरकार और राजनैतिक पार्टियां तब जागीं जब हिंदू और मुसलमान संप्रदायवादियों ने एक दुष्ट अभियान प्रारंभ कर दिया.

अभी तक कुछ ज़रूरी क़दम ज़रूर उठाए जाने थे. एक ऐसे देश में जहां का सदियों पुराना इतिहास है ऐसे क़दम उठाना अनिवार्य है. इस देश में अन्याय, उत्पीड़न, दमन, भेद-भाव आदि का इतिहास है, मगर साथ ही सहिष्णुता, मिली-जुली संस्कृति के विकास, और सुख शांतिपूर्ण जीवन की तगड़ी परपराएं भी हैं मगर वर्तमान का इस्तेमाल क्या अतीत में जो ग़लत हो चुका है, उसको ठीक करने के लिए किया जा सकता है?

निश्चय ही मध्य युग में धार्मिक उत्पीड़न, भेद-भाव और अत्याचारों के उदाहरण मिलते हैं. निश्चय ही मंदिर तोड़े गए थे और अनेक जगहों पर उनके ऊपर मस्जिद या किसी अन्य ढांचे का निर्माण किया गया था. परंतु यह भारतीय इतिहास के अन्य युगों एवं दूसरे देशों के इतिहास के बारे में भी सच है. यह सभ्यता के निम्न स्तर की विशेषताएं थीं- विशेष कर शासक वर्गों की, जो जनता को आतंकित करने और अपना शासन क़ायम रखने के लिए किसी भी साधन को अपना सकते थे.

धार्मिक उत्पीड़न का सहारा जनता को जीतने और उसका धर्म उत्पीड़न करने के लिए नहीं लिया जाता था. उसका सहारा इसलिए लिया जाता था कि जनता नए आर्थिक राजनैतिक प्रभुत्व को मानने के लिए बाध्य हो.

प्राचीन भारत में भी विभिन्न धार्मिक मतवादों ने एक-दूसरे को उत्पीड़ित किया था और विरोधियों से निबटने के लिए राज्य सत्ता का इस्तेमाल किया जाता था. उदाहरण के लिए यह कैसे हुआ कि चार्वाक मत का तमाम साहित्य लुप्त हो गया, जबकि ब्राह्मण ग्रंथ पूरी तरह से सुरक्षित रह गए? बौद्ध साहित्य को प्राप्त करने के लिए हमें चीन और तिब्बत क्यों जाना पड़ता है?

18वीं सदी के मरहट्टों ने मैसूर के पास से श्रंगवेरी मंदिर (और अन्य मंदिरों) में लूटपाट मचाई थी और वह टीपू सुल्तान ही था जिसने उनके पुननिर्माण में सहायता की थी. अगर टीपू सुल्तान धर्मांध होता तो वह धार्मिक सहिष्णुता का इतना बड़ा प्रतीक नहीं बन पाता. दूसरे देशों में भी धार्मिक उत्पीड़न और विनाश आदि के अनेक उदाहरण मिलते हैं. अनातोले फ्रांस ने इसे पेंग्युइन आइलैंड में चित्रित किया है जहां कैथोलिक चर्च के धर्मांध लोग अपने से पहले के प्रस्तर- लेखों को मिटाकर यश-लाभ करते हैं.

ऐतिहासिक अन्याय, ग़लतियों आदि को ठीक करने की प्रक्रिया का क्या कोई अंत है? औरतों के साथ आदमियों ने सदियों से जो अत्याचार किए हैं उनकी क्षतिपूर्ति किस तरह होगी अथवा निम्न जातियों और आदिवासियों के साथ?

दरअसल, अतीत के अध्ययन का बड़ा उद्देश्य अतीत की भूलों से बचना है? अतीत के उत्पीड़न से निबटने का सबसे अच्छा तरीक़ा वर्तमान में उन सबसे बचना है, उनका प्रतिकार करना नहीं. मंदिरों की सामग्री से बनी मस्जिदों, क़ुतुब मीनार या अन्य ऐतिहासिक स्मारकों का ध्वंस नहीं अपितु उनका संरक्षण ही एकमात्र सभ्य आलोचना है अतीत के नकारात्मक लक्षणों का.

ध्यान देने की बात यह है कि अयोध्या जैसी समस्याओं का हल इस बात से निकलेगा कि इतिहासकार इसकी खोज करें कि कि बाबरी मस्जिद के बनने से पहले वहां मंदिर का अस्तित्व था या नहीं. मान लें ऐतिहासिक सत्य उनके पक्ष में जाता है जो यह मानते हैं कि वहां कोई मंदिर नहीं था. मगर फिर भी दूसरा पक्ष इस बात का प्रदर्शन करेगा कि मंदिर तोड़कर ही मस्जिद बनी.

निश्चय ही तब भी मस्जिद को अवश्य रहना चाहिए; और अतीत की पुनर्स्थापना की मांग करना गुंडागर्दी और सांप्रदायिकता होगी. जैन या बौद्ध मंदिर बनाम ब्राह्मण या हिंदू मंदिर के विवाद के संदर्भ में भी यही बात लागू होगी. अतीत की ‘वापसी’ की यह मानसिकता ग़लत है और इसका दृढ़ता से विरोध किया जाना चाहिए.

ये सारी बातें जनता के सामने स्पष्ट होनी चाहिए. ख़ासकर इतिहास-शिक्षण का काम यह है कि वह धार्मिक उत्पीड़न की सामाजिक आर्थिक जड़ों का विश्लेषण करे और यह बताए कि उससे किस तरह समाज, राष्ट्र और राज्य कमज़ोर होते हैं. अनेक इतिहासकार, विशेषकर इलाहाबाद और अलीगढ़ स्कूल के इतिहासकार वर्षों से सांप्रदायिक और औपनिवेशिक इतिहास के स्थान पर वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष इतिहास के शिक्षण की वकालत कर रहे हैं परंतु इस दिशा में कुछ नहीं किया गया. इतिहास के लोकप्रिय स्तर के संस्करणों ने संप्रदायवाद को औचित्य प्रदान किया और जनता के दिमाग़ में ज़हर भरना जारी रखा.

राम जन्मभूमि मुद्दे पर भी जनता को इस सच की जानकारी दी जानी चाहिए थी कि अयोध्या संभवत: राम की जन्मभूमि नहीं थी क्योंकि देश के उस भूभाग में जंगलों की सफ़ाई 600 ई.पू. के लगभग हुई थी. जनता को इस बात के लिए शिक्षित करने की ज़रूरत है कि वास्तविक इतिहास और पौराणिक मिथकशास्त्र में अंतर होता है. रामायण कब लिखी गई, इसके विभिन्न संस्करण क्या क्या हैं, वाल्मीकि रामायण से तुलसी की ‘रामचरितमानस’ का क्या संबंध है, रामायण के युग की बात करना क्या संभव है, क्या काव्य का युग वास्तविक ऐतिहासिक युग होता है? इस तरह के सवालों उठाया जाना था.

इन सवालों के उत्त्तर डी.डी. कोसंबी, आर.एस. शर्मा, रोमिला थापर, एच.डी. सांकलिया और कई अन्य आधुनिक इतिहासकारों के लेखन में मौजूद हैं. अधिकांश परंपरागत इतिहासकारों में इस बात पर बड़ा विवाद रहा है कि रामायण की घटनाएं कब और किस शताब्दी में घटित हुई थीं. वस्तुत: इन घटनाओं को किसी निश्चित कालखंड से जोड़ना मुश्किल है.

अयोध्या जैसी परिस्थिति से बचने के लिए ज़रूरी है कि इतिहासकार द्वारा लिखी गई पुस्तकें पढ़नी-पढ़ानी चाहिए, मिथक या पुराण बनाने वालों द्वारा लिखे इतिहास से हम दूर ही रहें. केवल तभी लोग पौराणिक घटनाओं की सत्यता में विश्वास के बिना भी धर्म में गहरी आस्था रखेंगे. राम जन्मभूमि मुद्दे को जिस चीज़ ने भावनात्मक हवा दी है वह है भौतिक और प्रामाणिकता जिसे मिथ्या इतिहास ने मुहैया किया है.

हमारी जनता को उन हज़ारों परित्यक्त मंदिरों और मस्जिदों के बारे में भी बताया जाना चाहिए जो देहाती क्षेत्रों में बिखरे पड़े हैं और जिनका उपयोग लोगों और जानवरों के द्वारा सभी तरह के काम के लिए किया जाता है. दरअसल इस्लाम किसी इमारत अथवा भौतिक वस्तु की पवित्रता को स्वीकार नहीं करता और हिंदू मत के अनुसार जैसे ही मूर्ति हटा ली जाती है वह मंदिर ईंट या पत्थरों से बना एक साधारण ढांचा भर रह जाता है.

मगर इस तरह के क़दम नहीं उठाए गए. इतिहास और जनता के बारे में जनता की चेतना को रूपांतरित नहीं किया गया. अब परिस्थिति बड़ी विकट हो गई है.

हिंदू सांप्रदायिकता भारत में इतनी कमज़ोर क्यों रही? इसका एक कारण यह है कि वह धार्मिक सरगर्मी पैदा करने में असमर्थ रही. हिंदू अथवा उनकी संस्कृति ख़तरे में हैं का नारा भावत्मक रूप में बहुत ज़ोरदार नारा नहीं था. पीपल का पेड़ काट देने पर, गो-हत्या और गोमांस बेचने के मुद्दे पर हिंदू सांप्रदायिकता को जगाने की कोशिश की जाती थी और फिर सांप्रदायिक हिंसा से सड़कें लाल हो जाती थीं. परंतु इस तरह के मामले क्षेत्रीय मुद्दे बनकर रह जाते थे और वे हिंदू धर्म के ख़तरे में होने की भावना को बड़ी दूर तक क़ायम नहीं रख पाते थे.

मगर राम जन्मभूमि में हिंदू सांप्रदायिकता को आग-भड़काऊ मुद्दा मिल गया. राम को भारत में और ख़ास तौर पर उत्तर भारत में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है. वे उन सभी मूल्यों और आदर्शों के अवतार हैं जिनकी कामना कोई भी हिंदू (या मुस्लिम) करता है. वे लाखों लोगों के दिलों और दिमागों में बसे हैं. जैसे ही इस तरह का विश्वास फैलता है कि वास्तविक राम जन्मभूमि का वजूद है और अब वह हिंदुओं के हाथ में है तो व्यापक हिंदू जन समुदाय इसे अपने हाथ से जाने नहीं देगा और इस दिशा में व्यापक जनोत्तेजना पैदा होगी. मुझे विश्वास नहीं कि कोई भी सरकार इस तरह के जनोन्माद का सामना करने की हिम्मत करेगी.

दूसरी ओर, भारतीय मुसलमान इस्लाम के ख़तरे में होने की गुहार लगाते रहे हैं. इस गुहार के बल पर ही जिन्ना और मुस्लिम लीग 1940 के दशक में व्यापक जन-समर्थन हासिल करने में कामयाब हुए थे. इस तरह की पुकार की ओर मुसलमान उन्मुख न हों. इस दिशा में आज़ादी के बाद कुछ नहीं किया गया. और अब सांप्रदायिक नेताओं के लिए हरा भरा चारागाह मिल गया है. उनके लिए अब यह अधिक आसान है कि वे बाबरी मस्जिद-रामभूमि के विवाद को इस्लाम पर हमले की शुरुआत के रूप में चित्रित करें और जनता से कहें कि इसे रोका जाना ज़रूरी है. वरना इस्लाम हिंदुस्तान से धीरे-धीरे ख़त्म हो जाएगा.

अब क्या करने की ज़रूरत है? अनेक क़दम उठाए जा सकते हैं. सबसे पहले मुसलमानों को यह आश्वासन मिलना चाहिए कि अयोध्या का मामला एक असामान्य मामला है. वह एक प्रक्रिया का प्रारंभ नहीं है. मगर यह आसान नहीं हैं. हिंदू संप्रदायवादियों के मूंह ख़ून लग चुका है. अब वे मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के उद्धार की बात कर रहे हैं.

सेक्युलर दलों और भारत तथा उत्तर प्रदेश की सरकार को दृढ़ता एवं पूरी शक्ति के साथ यह घोषित करना होगा कि इसकी इजाज़त नहीं दी जाएगी, और अयोध्या के मामले में जो भी ढुलमुलपन दिखाया गया अब उसे कतई दुहराया नहीं जाएगा. यह प्रक्रिया अब और नहीं चलेगी. इस तरह की दृढ़ स्थिति हिंदू सांप्रदायिकता के लिए एक चेतावनी होगी और मुसलमानों के लिए आश्वासन भी कि अब मस्जिदों को मन्दिरों में बदलने की किसी भी प्रक्रिया की नई शुरुआत नहीं होगी. मुस्लिम जनता परिस्थितियों को समझने, बुद्धिमत्ता से आचरण करने और सांप्रदायिक अवसरवादियों को पीछे धकेलने में समर्थ है. केवल उसके भय और आशंका को दूर करने की ज़रूरत है.

दूसरी बात यह है कि अयोध्या विवाद का एक सामान्य हल निकालने के लिए दोनों धर्मों के सही आस्थासंपन्न और सदभावपूर्ण व्यक्तियों को एकजुट किया जाना चाहिए. उनमें विचारों का आदान-प्रदान होगा और उससे एक सर्वमान्य रास्ता निकलेगा. मगर इस प्रक्रिया में संप्रदायवादी नेताओं को शामिल नहीं किया जाना चाहिए जिनका निहित स्वार्थ सांप्रदायिक तनाव को बनाए रखने में है और जो 1946-47 के संप्रदायवादी नेताओं की तरह ही राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए ख़ून की नदियां बहाने में संकोच नहीं करते. कई संभव समझौतों के सुझाव भी दिए गए हैं. महत्व की बात यह है कि एक सर्वमान्य हल निकाले के लिए अत्यधिक पटुता की ज़रूरत है जो परस्पर सद्भाव क़ायम करेगी और नफ़रत के सौदागर अलग-थलग पड़ जाएंगे.

संप्रदायवादी विचारधारा के विरुद्ध एक व्यापक अभियान चलने की ज़रूरत है. जनता को भी फ़िरक़ापरस्ती की हक़ीक़त के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए. उन्हें यह बताना चाहिए कि संप्रदायवादी जो उत्तर पेश करते हैं, वे ग़लत हैं. जो प्रश्न खड़े करते हैं वे भी ग़लत हैं. संप्रदायवादी उन हितों को आगे नहीं बढ़ाते जिनका वे दावा करते हैं. वे धर्म का इस्तेमाल ग़ैर धार्मिक राजनैतिक स्वार्थों पर परदा डालने के लिए करते हैं.

अंतिम बात तो यह है कि भारत सरकार को पूरी तरह से स्पष्ट कर देना चाहिए कि जब तक इस विवाद का हल नहीं निकाल लिया जाता तब तक वह किसी भी तरह की हिंसा की इजाजत नहीं देगी. सेक्युलर लोगों को यह मांग करनी चाहिए कि सरकार किसी भी तरह की सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए सत्ता तंत्र, पुलिस, सेना और नौकरशाही का कठोरतापूर्ण उपयोग करे. जहां तक सांप्रदायिकता का सवाल है भारत को एक कठोर राज्य बनाने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है. एक बहुधर्मी समाज में धार्मिक मुद्दों को लेकर उठने वाले विवाद और झगड़े लंबे समय तक चलेंगे. मगर यह स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार और जनता उसके गिर्द किसी हिंसा को संगठित होने नहीं देगी.

अंत में हम यह बताना चाहते हैं कि जो सांप्रदायिकता के साथ खेल करते हैं और राजनैतिक लाभ के लिए कभी एक तरह की सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं और कभी दूसरी तरह की सांप्रदायिकता को कि ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के विपरीत भी घटित हो सकता है. जैसा कि कबीरदास ने कहा है: ‘दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोय.’

(इतिहासकार बिपन चंद्र ने यह लेख 1987 में ‘राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद’ शीर्षक से लिखा था. यह उनके निबंध संग्रह ‘समकालीन भारत’ से लिया गया है जो अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स से 2001 में प्रकाशित है.)

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