संविधान सभा और प्रधानमंत्री की शक्तियां

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री सत्ता पर पूरी तरह नियंत्रण चाहते हैं. उनके तमाम कदम इसी दिशा में जाते दिखाई देते हैं. क्या भारतीय संविधान उन्हें इसकी अनुमति देता है? संविधान निर्माता प्रधानमंत्री को किस तरह की शक्तियां सौंपना चाहते थे?

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प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, भारत का संविधान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी/Wikimedia Commons)

लंबे समय से इतिहासकारों के बीच इस बात को लेकर बहस होती रही है कि इतिहास को कौन निर्मित करता है? राजा या प्रजा? आधुनिक समय में इसे आप लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए शासक और नागरिक के जरिये देख सकते हैं. इतिहास को बनाने में शक्ति, विज्ञान, तकनीक एवं भाषा की भूमिका होती है. शासक इन चारों पर अपना कब्ज़ा चाहते हैं. उधर जनता भी इन्हें हासिल करने की जुगत में रहती है.

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री इतिहास और वर्तमान पर पूरी तरह नियंत्रण चाहते हैं. उनके तमाम कदम इसी दिशा में जाते दिखाई देते हैं. क्या भारतीय संविधान उन्हें इसकी अनुमति देता है?

भारत के संविधान में अनुच्छेद 74 और 75 में प्रधानमंत्री के पद के बारे में प्रावधान हैं. कोई भी व्यक्ति जब प्रधानमंत्री के रूप में किसी भी सार्वजनिक जगह पर कुछ बोलता है, तो माना जाता है कि देश का ‘सामूहिक अंत:करण’ प्रकट हो रहा है. उसकी भारतीय जनता के बीच देवतुल्य प्रतिष्ठा है. वासुदेव शरण अग्रवाल ने कदाचित इसीलिए जवाहरलाल नेहरू को ‘देवकल्प’ कहा था.

प्रधानमंत्री और संविधान सभा

लेकिन क्या संविधान भी प्रधानमंत्री को इसी रूप में देखता है? इस प्रश्न की विवेचना के लिए हम संविधान सभा की बहसों की ओर मुड़ सकते हैं, यह जानने के लिए कि हमारे संविधान निर्माता प्रधानमंत्री को किस तरह की शक्तियां सौंपना चाहते थे.

सितंबर 1946 से लेकर भारत के पहले आम चुनाव के बीच भारत की संविधान सभा की व्यापक, तीखी लेकिन समावेशी बहसें हुई थीं. यदि कोई व्यक्ति भारत का इतिहास उस समय के लगभग तीन सौ चुनिंदा व्यक्तियों की ज़बानी जानना चाहता हो, उसे संविधान सभा की बहसों को पढ़ना चाहिए.

संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई और यह बैठक 24 जनवरी, 1950 तक चलीं. इस तरह भारत का संविधान बना. जो मुद्दा ज़रूरी था, उसे पटल पर रखा गया लेकिन यदि वह बहस में फंस गया तो उस कार्यवाही को वहीं छोड़कर दूसरा मुद्दा सामने लाया गया. इस बीच पहले वाले मुद्दे पर सदन ने स्वयं को शिक्षित किया, जानकार और सयाने लोगों की मदद ली. भारत की चुनावी राजनीति की केंद्रीय धुरी माने जाने वाले प्रधानमंत्री पद के लिए 30 और 31 दिसंबर 1948 को संविधान सभा की बहसें हुई थीं.

भारत के संविधान पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह केंद्राभिमुख है और शक्तिशाली के पक्ष में ज्यादा झुका है. संविधान सभा की बहसें इसकी गवाह हैं और हमें इससे मुंह नहीं चुराना चाहिए.

भारतवर्ष उस दौर में विभाजन से गुजर रहा था और संविधान सभा के सदस्यों ने यह महसूस किया था कि विभाजन की हिंसा को एक बेहतर केंद्रीय शासन से रोका जा सकता था. इसी के साथ एक ढीले-ढाले उपमहाद्वीप को एक सुपरिभाषित सीमा वाले देश में बदला जाना था. ऐसे में शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में भावनात्मक माहौल बन चुका था. संविधान सभा में प्रांतों की स्वायत्तता, उनके लिए बेहतर गुंजाइश तलाशने के प्रयत्नों के बावजूद जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बीआर आंबेडकर सहित देश के कई प्रमुख नेता एक सक्षम केंद्रीय शासन के हिमायती थे.

डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा था कि ‘जिन कानूनों को बड़ी लगन और शिद्दत से’ संसद में बनाया गया है, उन्हें यदि प्रांतीय सरकारें न लागू करें तो क्या होगा? यह बात उन्होंने 30 दिसंबर 1948 को उस समय कही थीं जब समवर्ती सूची पर बहस हो रही थी. उनका मानना था कि श्रम कानून, बाल-विवाह निरोध तथा अस्पृश्यता निवारण के क्षेत्र में प्रगतिशील कदम एक मजबूत केंद्र की मदद से ही उठाए जा सकते हैं. इसने भी ‘केंद्र में एक मजबूत प्रधानमंत्री’ की आवश्यकता के पक्ष में माहौल बनाया.

मजबूत प्रधानमंत्री तक तो बात ठीक थी लेकिन इससे उन राजनीतिक दलों के पिछड़ने की आशंका बनी रहती थी जिनके दल का प्रधानमंत्री नहीं था. मद्रास से मुस्लिम सदस्य महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने 30 दिसंबर 1948 को स्विटज़रलैंड का उदाहरण देते हुए अपना संशोधन पेश किया और कहा कि उस देश में राजनीतिक दलों का निर्वाचन नहीं होता. वहां संसद के सदस्यों का निर्वाचन होता है और वे अपना मंत्रिमंडल निर्वाचित करते हैं. उन्होंने कहा कि जब राजनीतिक दल नहीं होंगे तो जो मंत्रिमंडल चुना जाएगा वह किसी राजनीति से संबंध रखने वाला नहीं होगा और उन लोगों के समक्ष केवल देश के कल्याण का उद्देश्य होगा और इस प्रयोजन के लिए वे परस्पर सहयोग करेंगे.

इसी प्रकार संविधान सभा के एक अन्य महत्त्वपूर्ण सदस्य केटी शाह ने उस दिन अपने संशोधन में यहां तक कहा कि मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में प्रधानमंत्री को किसी विशिष्ट पदनाम से न पुकारा जाए, उसे केवल मंत्री कहा जाए.

उनका उत्तर देते हुए डॉ. आंबेडकर ने उनका संशोधन मानने में असमर्थता जाहिर की. उन्होंने कहा कि मैं समझता हूं कि सुशासन का बहुत कुछ अंश इस बात पर निर्भर है कि शासन की बागडोर किनके हाथों में है. यदि शासन का नियंत्रण किसी विशेष दल द्वारा किया जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि शासक वर्ग उस दल के हित साधन के लिए कार्य करेगा जिसके लोग शासन का नियंत्रण करते हैं और जो उस विशिष्ट दल के प्रतिनिधि है. अतः ऐसा प्रस्ताव रखने में कोई त्रुटि नहीं है कि मंत्रिमंडल के चुनाव का ऐसा तरीका हो कि जिससे अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य भी मंत्रिमंडल में आ सकें.

चूंकि यह पहले ही कहा जा चुका था कि “राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए एक मंत्रिमंडल होगा जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा’, इसलिए यह व्यवस्था सुकर समझी गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल में शक्तियों का संकेंद्रण न हो लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा अपने मंत्रिमंडल में किसी व्यक्ति को शामिल करने के विशेषाधिकार ने उसे अपार शक्तिशाली बना दिया. यह प्रधानमंत्री की अगाध शक्ति का स्रोत बन गया.

प्रधानमंत्री कल्ट का विकास

शायद इसलिए 1950 के दशक से ही डॉ. बीआर आंबेडकर की चेतावनियों के बाद भारत में ‘प्रधानमंत्री का पर्सनैलिटी कल्ट’ विकसित होने लगा था. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारत के बेताज बादशाह थे. भारत के अंदर और बाहर वे ‘देश’ का प्रतिनिधित्व करते थे.

जबकि महात्मा गांधी को किसी सर्वशक्तिशाली प्रधानमंत्री का विचार आकर्षित नहीं करता था. वे नहीं चाहते थे कि अपना शासन चलाने के मामले में भारत ब्रिटेन की फोटोकॉपी बन जाए. उन्होंने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ही ‘हिंद स्वराज’ में स्पष्ट कर दिया था कि वे भारत के लिए वैसी सरकार की कल्पना नहीं करते हैं. वे ‘प्रधानमंत्री’ नामक पद को लेकर बिल्कुल उत्साहित नहीं थे.

उन्होंने कहा था: ‘संसद की भलाई के बजाय प्रधानमंत्री को अपनी सत्ता की ज्यादा चिंता सताती है. उनकी ऊर्जा इस बात पर ज्यादा खर्च होती है कि कैसे उनकी पार्टी को सफलता मिले. उनकी चिंता में हमेशा यह भी नहीं रहता है कि संसद कैसे अच्छा काम करे. प्रधानमंत्री संसद से अपनी पार्टी का काम करवाने के लिए जाने जाते रहे हैं.’

गौरतलब है कि यह बात उन्होंने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के लिए कही थी. गांधी ने बाद में अपनी राय में थोड़ी बहुत ढील दे दी हो, लेकिन वे सत्ता की किसी औपचारिक संरचना का हिस्सा नहीं बने. यहां तक कि वे भारत की संविधान सभा में भी शामिल नहीं हुए जबकि संविधान सभा के कई सदस्य चाहते थे कि वे इसमें शामिल हों.

27 जनवरी 1948 में संविधान सभा के सदस्य तजम्मुल हुसैन ने उन्हें दुनिया का महानतम व्यक्ति कहकर प्रशंसा की और कहा कि गांधी को संविधान सभा में बुलाया जाना चाहिए. तजम्मुल हुसैन को लग रहा था कि गांधी संविधान सभा को एक निश्चित दिशा दे सकते हैं. गांधी संविधान सभा में शामिल नहीं हुए, और प्रधानमंत्री पद को लेकर उनके विचारों को संविधान में कोई ख़ास जगह नहीं मिली.

नेहरू का काल आज भी एक संदर्भ बिंदु के रूप में उद्धृत किया जाता है. इसी प्रकार इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल को ‘टर्निंग प्वाइंट’ के रूप में पेश किया जाता रहा है. यह सभी प्रधानमंत्री इस आशय का भाषण अपनी चुनावी सभाओं में देते थे कि उनके आने के बाद भारत ‘पहले जैसा’ नहीं रह गया है.

भारत के अधिकांश प्रधानमंत्री इतिहासकारों पर विश्वास करते रहे हैं और उनके एक-एक दिन का ब्यौरा सरकारी कागज़ों में दर्ज़ रहता है. जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल पर सर्वाधिक सामग्री उपलब्ध है और कोई भी विद्वान चार-पांच वर्ष की मेहनत में यह जान सकता है कि देश की आज़ादी से लेकर अपने देहावसान के पहले तक वे क्या कर रहे थे.

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर शेष लोगों ने अपनी भूमिका के मूल्यांकन के लिए भविष्य की पीढ़ियों पर विश्वास किया था. विश्वास तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी होगा लेकिन वे अपना मूल्यांकन खुद पेश करते रहते हैं. इस बार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र ‘मोदी की गारंटी’ से भरा पड़ा है. यहां तक कि वे ‘मोदी की गारंटी की गारंटी’ लेते हैं, कुछ उसी तर्ज पर जब किसी इंश्योरेंस का इंश्योरेंस किया जाता है.

इस समय नरेंद्र मोदी जब संविधान के पदों की नई व्याख्या कर रहे हैं, क्या वक्त है कि हम उन प्रावधानों पर विचार करें जो प्रधानमंत्री को सर्वाधिक शक्तियां प्रदान करते हैं?

(रमाशंकर सिंह इतिहासकार हैं. हाल ही में उनकी ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नामक किताब प्रकाशित हुई है.)