राम मंदिर था या नहीं, ये बहस अनंत काल तक चलाई जा सकती है, लेकिन मुद्दा इतिहास या तार्किकता का नहीं बल्कि धर्म के नाम पर बरगलाने और उसके सहारे सत्ता पर कब्ज़े की सांप्रदायिक योजना का है.
23 दिसंबर 1949 को हिंदू कट्टरपंथ ने अयोध्या की धरती पर एक कड़वा बीज रोपा था जिसमें अस्सी के दशक के बीच से फल आने शुरू हुए.
गांधीजी की हत्या के बाद हिंदू कट्टरपंथी संगठनों के लिए खुलकर काम करना मुहाल हो गया था. उनके हाथ गांधी की हत्या के खून से सने हुए थे और निकट भविष्य में ये दाग़ धुलने की कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए बेहतर समझा गया कि एक नन्हा बीज रोप दो और सही समय का इंतज़ार करो.
जब 22-23 दिसंबर की रात केके नैयर नामक स्थानीय प्रशासक ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखीं तो आरएसएस के मुखपत्र ने लिखा, ‘23 दिसंबर की ऐतिहासिक सुबह जन्मस्थान पर श्री रामचंद्र और सीता देवी की मूर्तियां प्रकट होने का चमत्कार हुआ.’
इसी ‘चमत्कार’ के एवज में नैयर की पत्नी शकुन्तला नैयर को 1951 के चुनावों में आरएसएस ने जनसंघ का टिकट देकर जितवाया था. अब इन दोनों तथ्यों का आपस में क्या संबंध है, यह पाठक के अपने विवेक पर छोड़ा जा सकता है.
नैयर ने जिस मस्जिद में ये मूर्तियां स्थापित करवाईं उसकी स्थापना मीर बाक़ी ने 1528 में की थी. वो बाबर का सिपहसालार था इसीलिए इसे बाबरी मस्जिद के नाम से पुकारा गया.
इतिहास की बात करें तो इस मस्जिद की बाहरी और भीतरी दीवारों पर अंकित अभिलेख बताता है कि मीर बाक़ी ने इस मस्जिद का निर्माण बाबर के आदेश पर किया था. लेकिन जब इस मस्जिद का निर्माण हो रहा था उसी दौरान बाबर अपनी आत्मकथा में दो बार अयोध्या आने का ज़िक्र करता है. लेकिन वो न ही किसी राममंदिर का नाम लेता है और न ही बाक़ी द्वारा बनवाई गयी इस मस्जिद को ज़िक्र के लायक समझता है.
अगर यह मस्जिद वाकई बाबर के आदेश पर रामजन्मभूमि को तोड़कर बनाई गयी होती तो निश्चित ही यह बाबर के लिए शेखी बघारने का विषय होता.
यहां तक बाद में अबुल फ़ज़ल भी अपनी आइन-ए-अकबरी में अयोध्या को भारत के महानतम शहरों में गिनते हुए कहता है कि यह शहर त्रेता युग में हुए भगवान राम के सीधे संरक्षण में है. परंतु वो भी ऐसी किसी मस्जिद का ज़िक्र नहीं करता जिसे रामजन्मभूमि को तोड़कर बाबर ने बनवाया हो.
तुलसीदास जैसे महान रामभक्त भी इस मस्जिद के निर्माण के महज़ तीस साल बाद लिखी अपनी रामचरितमानस में न ही किसी ऐसी मस्जिद का नाम लेते हैं न ही उनके तमाम लेखन में कहीं इस तथाकथित अत्याचार का कोई विवरण मिलता है.
इस तरह ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस बात का कहीं ज़िक्र नहीं मिलता कि इस मस्जिद का निर्माण किसी राम मंदिर को तोड़कर करवाया गया था.
इसके अलावा पुरातात्विक स्रोतों की दृष्टि से भी मस्जिद के नीचे के स्तरों पर किसी ध्वंस के प्रमाण नहीं मिलते. यह तब भी नहीं मिलते जब अटल बिहारी सरकार के समय बीबी लाल जैसे पुरातत्वविद ने अयोध्या का व्यापक उत्खनन और सर्वेक्षण करवाया था जिनका रिश्ता इतिहासलेखन की दक्षिणपंथी विचारधारा से जगजाहिर है.
बावजूद इसके वहां कभी कोई राम मंदिर था या नहीं- यह बहस अनंत काल तक चलाई जा सकती है. लेकिन यह मुद्दा दरअसल इतिहास और तार्किकता का कतई मोहताज़ नहीं है. यह आधुनिक राजनीति में लोगों को धर्म के नाम पर बरगलाने और उसके सहारे राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की सांप्रदायिक योजना से जुड़ा मुद्दा है.
सांप्रदायिक विचारधारा वास्तव में इतिहास पर नहीं इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या पर टिकी होती है. इस व्याख्या में स्रोत और विवेचना की जगह आस्था और भावना प्रधान हो जाती है.
इसीलिए ऐतिहासिक रूप से राममंदिर के साक्ष्य न प्रस्तुत कर पाने की स्थिति में यह आराम से कहा जा सकता है कि मुद्दा दरअसल इतिहास से नहीं हिंदुओं की आस्था से जुड़ा है.
हाल के दिनों में सांप्रदायिकता राजनीतिक रूप से बहुत मजबूत हो गयी है. इसलिए वो इतिहास का मिथ्याकरण करने, उसे जनभावना का मुद्दा बना देने और उसकी बिसात पर लोगों के सांप्रदायीकरण करने में पहले से कहीं ज्यादा सक्षम है.
यह काल्पनिक पद्मावती को इतिहास बनाकर उसे राजपूत अस्मिता पर हमला करार देकर तलवारें लहराने का ज़माना है. जहां इतिहास के चरित्रों पर शिगूफे छोड़कर भीड़ को उकसाया जा रहा हो वहां इतिहास और इतिहासलेखन की भला किसे फ़िक्र है?
बहरहाल, प्राचीन और मध्यकालीन भारत में तमाम धर्मस्थान तोड़े गए इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. इन धर्मस्थानों में हिंदू मंदिर भी हैं, जैन और बौद्ध मठ भी. भारतीय इतिहास में मस्जिद शायद आधुनिक काल में ही तोड़ी गयी है.
जब आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठन ने अपने छद्म नामों से राममंदिर आंदोलन को इस आधार पर जिंदा किया कि वो अतीत में हिंदुओं के खिलाफ किये गए हर अन्याय का बदला लेंगे.
इतिहास का बदला चुकाने की यह सोच हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ती है क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति नहीं चाहती कि लोग अपना ध्यान वर्तमान के मुद्दों यानी उनकी जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर केन्द्रित करें. दुनिया में हर कहीं जहां इस तरह का कट्टरपंथ पैदा हुआ उसके पीछे पैसे और संसाधन लगाने वाला वर्ग हमेशा समाज का अभिजात्य वर्ग रहा है.
जर्मनी में संपन्न बुर्जुवा पूंजीपति वर्ग ने हिटलर के नाजी-विरोधी आंदोलन को खाद-पानी मुहैय्या कराया था. गुलाम भारत में मुस्लिम लीग के पीछे यूनाइटेड प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) सहित कई राज्यों का मुस्लिम जमींदार तबका सक्रिय था जिसे डर था कि आज़ाद भारत में कांग्रेस उनकी जमींदारियां छीन लेगी.
आरएसएस की दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की के पीछे विदेशों, खासकर अमेरिका और यूरोप में बसे एनआरआई चंदे का बड़ा हाथ है. नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने में अडानी और अम्बानी जैसे धनकुबेरों के साथ किस तरह की अंदरूनी सांठगाठ हुयी थी, यह इस सरकार के साढ़े तीन साल के कामकाज से पता चल जाता है.
बहरहाल ख़ास बात यह है कि मध्यकाल में धर्मस्थलों को नुकसान पहुंचाना एक राजनीतिक आदत की तरह था. इसका उद्देश्य अपनी जीत की घोषणा के साथ-साथ मुल्ला वर्ग को खुश करके उनका समर्थन जुटाना होता था.
यह इतनी आम बात थी कि मंदिर तोड़ने वाले न सिर्फ मुस्लिम थे बल्कि तमाम हिंदू राजाओं और पंथों ने भी अपनी विजय के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे के मंदिर तोड़ने से कभी परहेज नहीं किया. जैसे मराठों ने श्रृंगेरी के शारदा मठ को न सिर्फ लूटा बल्कि उसकी मूर्ति को भी खंडित कर दिया.
इसी क्रम में आलवार और नायनार संतों के आपसी हिंसक संघर्ष में एक-दूसरे के मंदिरों को तोड़ना एक आम बात थी. शैव और वैष्णव मतों के इस आपसी संघर्ष ने एक-दूसरे की धार्मिक आस्था को हतोत्साहित करने के लिए मंदिर तोड़े. चोल और चालुक्यों के बीच के संघर्ष में दोनों के ही आज की परिभाषा में ‘हिंदू’ होने के बावजूद तमाम बार मंदिर तोड़े गए.
मुस्लिम शासक भी इस मामले में कतई पीछे न रहे. औरंगजेब ने तो अपने दिनों-दिन कमजोर होते साम्राज्य में उलेमा वर्ग का समर्थन बनाये रखने के लिए अपेक्षाकृत कट्टरपंथी नीति अपनाई. अयोध्या में उसके समय निर्मित दो मस्जिदों के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता लेकिन काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा का केशव देव मंदिर तो उसने तोड़े ही थे.
यकीन मानिए बनारस के मंदिर को ध्वस्त करने वाले औरंगजेब के आदेश पर बीडी पांडे के अध्ययन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. कच्छ के राजा की रानी के साथ बदसलूकी करने वाले पंडों को सजा देने के लिए मंदिर गिराने का आदेश किसी ऐसे ‘हिंदू’ को आश्वस्त नहीं कर सकता जिसका खून सांप्रदायिक राजनीति की कढाई में खौलाया जा रहा हो.
हालांकि दूसरी तरफ बांदा-चित्रकूट के कई मंदिरों सहित अन्य कई मंदिरों को औरंगजेब द्वारा प्रश्रय देने के ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं. लेकिन काशी और मथुरा के मंदिरों को तोड़ने का औरंगजेबी फरमान किसी भी प्रकार अकबर द्वारा स्थापित और बाद के दिनों में विकसित हुयी साझी मुगलिया संस्कृति के अनुरूप नहीं था.
इसीलिए सवाल उठता है कि भले ही इतिहास के धरातल पर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को ऐतिहासिक रूप से सुलझा लिया जाए; काशी और मथुरा का क्या करेंगे?
उसके लिए तो इस बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि वहां पहले कोई मंदिर मौजूद था या नहीं. भूलिए मत कि रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद के समय एक अत्यंत प्रचलित नारा था— ‘अयोध्या तो अभी झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है.’
दरअसल, जनता का इतिहास लिखना और उसे आम लोगों की चेतना का हिस्सा बनाना एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है. सेकुलर बुद्धिजीवियों में अगर कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दें तो बाकी लोग स्थानीय भाषाओं में लिखना अपनी बेइज्जती समझते हैं.
दूसरी तरफ आरएसएस अपने सामान्य बुद्धि प्रचारकों के माध्यम से जनता के एक बड़े हिस्से की ऐतिहासिक चेतना को बुरी तरह विकृत कर चुकी है.
लोगों को यह बात समझाना जरूरी है कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक है कि अतीत की गलतियां दोहराई नहीं जानी चाहिए. अगर हम आज पुराने बदले चुकाने बैठ जाएंगे तो वर्तमान चौपट हो जाएगा.
मध्यकाल में जो कुछ हुआ है वो इसीलिए नहीं दोहराया जाना चाहिए क्योंकि वो अपनी चेतना में ‘मध्यकालीन’ है. जो कुछ मध्यकालीन है वो निश्चय ही आधुनिक नहीं है.
एक बात यह भी बतानी जरूरी है कि मध्यकाल में मंदिर ढहाने वालों की ढहती हुयी राजनीतिक सत्ता भले ही मुल्ला वर्ग के समर्थन से कुछ मजबूत हुयी हो, आम मुसलमान की जिंदगी में उससे इंच-भर भी परिवर्तन नहीं आया था.
ठीक उसी तरह अगर राममंदिर का निर्माण हो भी जाता है तो आम हिंदू की जिंदगी में इससे राई-रत्ती कोई फर्क नहीं पड़ेगा. बदला चुकाने के झूठे अहसास से भले ही लोग पिछले साढ़े तीन साल में हुए अपने कष्टों को कुछ समय के लिए भूल जाएं.
(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)