देश के वामपंथी और समाजवादी बौद्धिकों ने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का पूरा दारोमदार मंडलवादी और आंबेडकरवादी आंदोलनों पर डाल दिया लेकिन इन आंदोलनों ने देश को इतने भ्रष्ट नेता दिए कि उनके पास धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का नैतिक बल ही नहीं बचा.
बाबरी मस्जिद विध्वंस के पच्चीस साल बाद अयोध्या की राजनीति को याद करते हुए लोकतंत्र और संविधान के मेरुदंड में एक सिहरन सी दौड़ती है. यह भी तय कर पाना कठिन हो जाता है कि 1992 के बाद पैदा हुई और बड़ी हुई युवा पीढ़ी को वह घटना किस तरह से बताई जाए और कितनी बताई जाए.
उस समय भले उपद्रवी कारसेवकों ने दिन दहाड़े बाबरी मस्जिद तोड़ डाली थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी रक्षात्मक हो गई थी. लालकृष्ण आडवाणी प्रायश्चित की मुद्रा में दिखे थे तो अटल बिहारी वाजपेयी ने आलोचना की थी. देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राजनीति आक्रामक थी और उसने न सिर्फ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर पाबंदी लगाई थी बल्कि जिन चार राज्यों में भाजपा की सरकार थी उसे बर्खास्त भी किया था.
हालांकि उस घटना के लिए उसे भी दोष देने वाले कम लोग नहीं थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के मौन की भी निंदा हुई थी और उन्हें मौनी बाबा कहा गया था. पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 1990 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाए जाने को सही ठहराया था. इतना ही नहीं मुलायम सिंह और कांशीराम ने 1993 में मिलकर चुनाव लड़ा और उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराकर सरकार बनाई.
उसके बाद भाजपा सत्ता में इसी शर्त पर आ पाई कि प्रधानमंत्री उदार दिखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी बनेंगे और अयोध्या, 370 और कामन सिविल कोड को सरकार अपने एजेंडे से बाहर रखेगी. तकनीकी रूप से आज भी स्थिति वैसी ही है लेकिन व्यावहारिक रूप से अब उस कट्टर राजनीति का कोई मजबूत विकल्प दिख नहीं रहा है.
भले ही मुलायम सिंह अब भी कहें कि 1990 में उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलाकर सही काम किया था या लालू प्रसाद कहें कि उन्होंने आडवाणी की रथ रोक कर और उन्हें गिरफ्तार करके सही किया था लेकिन उनकी राजनीतिक शक्ति क्षीण हो चुकी है.
सबसे बड़ी बात यह है कि उस समय मीडिया में एक शक्ति थी प्रतिरोध की और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की. अंग्रेजी मीडिया ने तो सवाल खड़े ही किए थे लेकिन अपना प्रसार और प्रभाव घटाते जा रहे इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार जनसत्ता ने अपनी खोती जा रही प्रतिष्ठा बहाल कर ली थी.
अयोध्या विवाद में सुलह करा रहे संपादक प्रभाष जोशी ने ‘राम की अग्निपरीक्षा’ जैसा आलेख लिखकर अपने तमाम मित्रों और सहयोगियों को चौंका दिया था. प्रभाष जोशी की अन्य संगठनों के साथ संघ और भाजपा के साथ भी निकटता थी लेकिन इस घटना से वे भड़क उठे और उन्होंने उस धतकरम के लिए संघ परिवार को खूब कोसा.
हालांकि उनके तमाम सहयोगी हिंदुत्व के कट्टर समर्थक थे और किसी तरह से लीपापोती कर रहे थे लेकिन प्रभाष जी के विरोध के बाद वे भी या तो खामोश हो गए थे या उस कांड के लिए रक्षात्मक. प्रभाष जोशी ने ‘हिंदू होने का धर्म’ लिखकर न सिर्फ भारत की उदार परंपरा की याद दिलाई थी बल्कि गांधी, बिनोबा से होते हुए चली आ रही भारतीय लोकतंत्र की सर्वधर्म समभाव वाली विरासत को भी रेखांकित किया था.
प्रभाष जोशी ने देश को सिर्फ हिंदू होने के धर्म की ही याद नहीं दिलाई थी बल्कि पत्रकारिता को उसके कर्तव्य बोध का स्मरण कराया था. तब संघ परिवार के लोगों ने कहना शुरू किया था कि प्रभाष जोशी को राज्यसभा की सीट नहीं दी गई इसलिए वे ऐसा लिख रहे हैं.
विडंबना यह है कि आज न सिर्फ राजनीति इस देश की धर्मनिरपेक्ष विरासत और संकल्प को भूल चुकी है बल्कि पत्रकारिता ने भी उन मूल्यों को धोकर पी लिया है. प्रभाष जोशी की विरासत का दावा करने वाले उन्हीं लोगों के साथ खड़े हैं जो सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा शुरू होने से पहले ही घोषणा कर रहे हैं कि राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हो चुका है. प्रभाष जी ने सत्ता का कभी लाभ नहीं लिया लेकिन अपने को उनका उत्तराधिकारी बताने वाले भरपूर फायदा ले रहे हैं.
प्रभाष जोशी की पत्रकारिता सरकार विरोध पर चलती थी लेकिन उनके उत्तराधिकारी पत्रकारिता और सरकार दोनों को चला रहे हैं. उन्होंने ऐसे रामराज्य का समर्थन किया है जहां संत महंत तपस्थलियों से निकलकर राज सिंहासन पर विराजमान हो गए हैं.
लेकिन इससे बड़ा हादसा पिछड़ों और दलितों की उस राजनीति के साथ हुआ है जिस पर वामपंथी और समाजवादी बौद्धिकों ने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का पूरा दारोमदार डाल दिया था. कई बौद्धिक और सामाजिक कार्यकर्ता यह आत्मविश्वास भी जताते थे कि क्या हिंदू समाज का जातिगत विभाजन इस देश को सांप्रदायिक होने से बचा नहीं लेगा. वह मंडल आयोग की रपट के सहारे बनाई गई एक आलसी राजनीति की तात्कालिक रणनीति थी जो कुछ समय तक कामयाब भी रही लेकिन अंततः उसने हिंदुत्व के आगे घुटने टेक दिए. पिछड़ी जातियां हिंदुत्व के साथ सत्ता में भागीदारी का आनंद ले रही हैं और सिद्धांत, आख्यान और विमर्श से पीछा छुड़ा लिया है. यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि मंडलवादी और आंबेडकरवादी आंदोलन ने देश को इतने भ्रष्ट नेता दिए कि उनके पास धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का नैतिक बल ही नहीं बचा. वे पिछड़ों दलितों की सत्ता में भागीदारी का शोर मचाते रहे और या तो अपने परिवार का खजाना भरते रहे या अपना निजी जीवन विलासिता में डुबोते रहे.
धर्मनिरपेक्ष या सामाजिक सद्भाव की राजनीति के बौद्धिक ध्वज साम्यवादी अपने-अपने क्षेत्रों में ध्वस्त हो गए और पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाली समाजवादी चरित्र और आचरण से भ्रष्ट होने के साथ सिद्धांत और विचार से च्युत हो गए.
समाजवादियों को सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवाद रास आया और साम्यवादियों को आर्थिक नियतिवाद. कांग्रेस ने कम से कम दस साल तक भाजपा को सत्ता में आने से रोका लेकिन उसके लिए उदारीकरण का सहारा लिया और सामाजिक राजनीतिक विमर्श या संगठन निर्माण से मुंह मोड़े रही.
अगर साम्यवादियों ने शैक्षणिक तबके के सीमित गुटों में सक्रियता दिखाई और उन्हीं को प्रोत्साहित किया तो समाजवादियों ने ईर्ष्या और द्वेष का वातावरण निर्मित करके या तो दलालों को महत्त्व दिया या कुछ स्वार्थ प्रेरित जातिवादी लोगों को जगह दिलाई. वे सब इतने कमजोर या दोगले थे कि धर्मनिरपेक्षता का आख्यान आगे बढ़ा ही नहीं सकते थे.
सत्ता के मद में चूर कांग्रेसियों ने देश में धर्मनिरपेक्ष आख्यान निर्मित करने में उतना ही ध्यान दिया जितना उनके करीबी लोग कर सकते थे. उन्होंने समाज के वैसे लोगों से कभी संपर्क ही नहीं किया जो अपने-अपनी सीमाओं में कभी कट्टरता से लड़ रहे थे तो कभी सद्भाव की नई व्याख्या कर रहे थे. जनता के पास जाने की तो बात ही बहुत दूर की थी.
इसके ठीक उलट संघ परिवार ने गली और मोहल्ले के स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक हर उस व्यक्ति को पकड़े रखा जो हिंदुत्व के आख्यान में उनकी मदद कर सकता था. इसलिए शिक्षा, मीडिया, समाजसेवा, उद्योग और सत्ता की मुख्यधारा से धर्मनिरपेक्ष आख्यान का लोप हो चुका है.
जहां तहां कुछ इलीट किस्म के लोगों के द्वीप हैं जिनका व्यापक समाज से संपर्क ही नहीं है. इसलिए अयोध्या आख्यान से न सिर्फ संविधान, लोकतंत्र और उसकी संस्थाएं कांप रही हैं बल्कि वह समाज भी कांप रहा है जिसे एक वोट बैंक बना दिया गया है और जिसके लिए रामराज लाने का दावा किया जा रहा है.
अल्पसंख्यक समाज और मुगलकालीन इतिहास को लक्ष्य करके चलाया जा रहा अयोध्या आख्यान दरअसल पूरी उदार परंपरा को नष्ट करने का प्रयास है. यह संघर्ष हिंदू बनाम मुस्लिम से ज्यादा हिंदू बनाम हिंदू की लड़ाई है.
वही लड़ाई जिसे डा लोहिया पांच हजार सालों का संघर्ष बताते हैं जो अभी तक निपट नहीं पाया है. विडंबना यह है आजादी के सत्तर साल बाद और लगातार देश पर शासन करने के बाद भी हिंदू अपने को उपेक्षित मान रहा है और अपने साथ अत्याचार का जिक्र कर रहा है. उदार हिंदू का संघर्ष अयोध्या आंदोलन से पहले भी था और राम मंदिर बन जाने के बाद भी रहेगा. उसे उपेक्षित किया जाएगा, मुख्यधारा से बाहर किया जाएगा, पीटा जाएगा और मारा भी जाएगा.
उससे सत्ता छीनी जाएगी और वह घर परिवार और अपनी जाति बिरादरी में भी उपेक्षित होगा. उसे कभी पटेल बनाम नेहरू, गांधी बनाम सुभाष, गांधी बनाम भगत, गांधी बनाम आंबेडकर के विवादों में उलझा कर रखा जाएगा और बाद में सिद्ध किया जाएगा कि गोलवलकर, सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय ही इस देश के असली चिंतक और नायक थे.
ऐसे में उदार हिंदू, उदार मुस्लिम और उदार भारतीयों के सामने कठिन चुनौती है. उन्हें ईर्ष्या, द्वेष और निजी आग्रह पूर्वाग्रह की राजनीति को छोड़कर देश और समाज के लिए अपने को समर्पित करना होगा. उन्हें सिर्फ फेसबुक और वाट्सैप से मिलने वाले ज्ञान के मुकाबले प्रामाणिक ज्ञान और विवेक के साथ खड़ा होना होगा. दो साल बाद गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती है.
गांधी ने रामराज का आह्वान भी किया था और हमें अंग्रेजों के दमनकारी और क्रूर साम्राज्यवाद से लड़ने का हथियार भी दिया था. ध्यान रहे अपनों से लड़ना अंग्रेजों से लड़ने से ज्यादा कठिन है लेकिन भारत के रामायण और महाभारत जैसे दो महाकाव्य सत्य के लिए जितना परायों से लड़ने की सीख देते हैं उतना ही अपनों से भी.
राम ने अपनों के साथ सौहार्द और पिता के वचनों के लिए वनवास लिया था तो उनके वंशज हरिश्चंद्र ने सत्य के लिए सब कुछ त्याग दिया था. गांधी के प्रेरणा सिर्फ राम ही नहीं हरिश्चंद्र भी थे. आज नफरत, हिंसा और असत्य के कारागार में कैद हो रहे राम, हरिश्चंद्र और गांधी को मुक्त कराना होगा. इसी में अयोध्या का समाधान भी है संविधान की रक्षा भी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)