भारत इज़रायल से आखिर क्या सीख रहा है?

अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी कहा था कि ‘अरबों की जिस ज़मीन पर इज़रायल क़ब्ज़ा करके बैठा है वह उसे खाली करनी होगी.’ उस विवेक से हम ऐसी संस्कृति तक आ पहुंचे हैं, जहां अमानवीय इज़रायली हिंसा के बावजूद भारतीय जनमानस का एक बड़ा हिस्सा उसके प्रति चुप्पी या समर्थन का भाव रखे हुए है.

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(फोटो साभार: Rebecca Ruth Gould/Flickr Collective/Creative Commons)

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में फिलिस्तीनी कविता के पाठ के एक कार्यक्रम को विश्वविद्यालय प्रशासन ने अचानक रद्द कर दिया. द वायर में छपी एक खबर के अनुसार जब प्रशासन से इसका कारण पूछा गया तो उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया. यह कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है. आश्चर्य इस बात पर भले किया जा सकता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ शिक्षक ऐसा प्रयास अभी तक कर पा रहे हैं!

वास्तविकता यह है कि विश्वविद्यालयों में ऐसे मुद्दों पर कार्यक्रम करने की हिम्मत न शिक्षक कर पा रहे हैं और न प्रशासक उन्हें ऐसी छूट देने को तैयार दिख रहे हैं. बचा-खुचा माहौल छोटे फायदों और महत्वाकांक्षाओं से ग्रस्त गोदी शिक्षकों की फौज़ ने खराब कर रखा है.

इधर अमेरिका में शिक्षकों-विद्यार्थियों ने जमकर फिलिस्तीन में इजरायल द्वारा जारी हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध किया है. युद्धविरोधी यहूदियों की भी इसमें अच्छी भागीदारी रही. लेकिन हजारों फिलिस्तीनियों के मारे जाने के बावजूद आखिर क्या कारण है कि भारत में शिक्षक-विद्यार्थी फिलिस्तीनियों के खिलाफ जारी युद्ध के विरोध में एकजुट और मुखर हो पाने में असमर्थ हैं? यह संवेदनहीन संस्कृति कैसे तैयार हुई!

गांधी ने कहा था कि ‘फिलिस्तीन अरबों का वैसे ही है जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रांसीसियों का.’ स्वाधीनता आंदोलन के लोकतांत्रिक मूल्यों से संपन्न वह भारतीय संस्कृति ऐसी थी कि दशकों बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अपने भाषण में कहा था कि ‘अरबों की जिस जमीन पर इजरायल कब्जा करके बैठा है वह जमीन उसे खाली करनी होगी.’

उस विवेक से प्रस्थान कर हम एक ऐसी संस्कृति तक आ पहुंचे हैं जहां इजरायली हिंसा का रूप इतना आक्रामक और अमानवीय होने के बावजूद भारतीय जनमानस का एक बड़ा हिस्सा संवेदनहीन ढंग से उसके प्रति चुप्पी या समर्थन का भाव रखे हुए है!

यह बदलाव अधिकांशतः पिछले दस वर्षों का है. जिस तरह फिलिस्तीन पर नियंत्रण की पूरी इजरायली प्रक्रिया इस पद्धति पर आधारित थी कि फिलिस्तीनी पक्ष कभी किसी तक पहुंच ही न पाए, उसी तरह पिछले दस वर्ष के हिंदुस्तान में यह बड़े पैमाने पर हुआ कि फिलिस्तीन के बारे में प्रोपगैंडा किया गया और अफवाहें फैलाई गईं, उसकी छवि को आतंकवाद से पाट दिया गया, फिलिस्तीनियों के इतिहास और उनके दर्द को लोगों तक पहुंचने से रोका गया.

मध्य-पूर्व में अमेरिकी-इजरायली साम्राज्यवादी विस्तार की नीतियों के हित के अतिरिक्त एक बड़े पैमाने पर यह सब इजरायल के यहूदी राष्ट्रवाद के प्रति हिंदुत्ववादियों के उस अपनापे के बोध के लिए भी किया गया जो धार्मिक वर्चस्व के एजेंडा की पूर्ति के लिए समानरूप से ‘श्रेष्ठताबोध’ और ‘अन्य’ (इन दोनों प्रसंगों में मुसलमान) के प्रति घृणा की वृत्ति पर आधारित है.

इसके साथ यहूदी वर्चस्व पर आधारित इजरायल के कट्टर सांप्रदायिक स्वभाव को भारतीय राष्ट्रवाद के वर्तमान हिंदुत्व स्वरूप से जोड़ा गया है और यहूदियों को एक ऐसे समुदाय के रूप में स्थापित किया गया है जो सदियों तक प्रताड़ित रहा है. ऐसी छवियों से मीडिया को पाट दिया गया है कि अपनी ‘पुण्य भूमि’ पर पूर्ण नियंत्रण का और उसके लिए किसी से भी युद्ध करने का इजरायलियों को अधिकार है.

प्रकारांतर से यह संदेश दिया जाता है कि हिंदुत्ववादियों को भी ‘अखंड भारत’ के लिए किसी भी हद तक जाने का अधिकार है. इस छवि पर इतना जोर दिया गया है कि इजरायली सत्ता द्वारा दशकों से फिलीस्तीनियों पर की जा रही रोज की प्रताड़नाओं की बात गुम हो जाती है. यह छवि हिंदुत्ववादियों को भारतीय अल्पसंख्यकों के हाशियाकरण में सहज ही सहयोग पहुंचाती है.

इस धारणा का बहुत विस्तार किया गया है कि हिंदुओं को तो इजरायल के यहूदियों का दर्द समझना ही चाहिए क्योंकि वे भी वैसे ही प्रताड़ित रहे हैं जैसे भारत में हिंदू सदियों से दूसरे धर्मावलंबियों, विशेषकर मुसलमानों से. इस तरह भारतीयों (जिन्हें बस हिंदू मान लिया जाता है) के मन में यह बोध पुख्ता किया जा रहा है कि सर्वसत्तावादी रवैये के साथ ही अक्षय और अजेय हिंदू राष्ट्र बन सकता है. जैसे कि और कोई रास्ता नहीं है. रास्ता वही है जो इजरायल ने अपनाया है. यह पूरी पद्धति यहूदी-राष्ट्रवादियों को अरबों-फिलिस्तीनियों के खिलाफ और क्रमशः हिंदुत्ववादियों को भारतीय मुसलमानों के खिलाफ आक्रामकता को वैधता प्रदान करने की ओर ले जाती है.

भारतीय यूट्यूबर्स अमेरिकी-इजरायली नीतियों से इस संदर्भ में ब्रांडिंग करने की कला बखूबी सीख रहे हैं. प्रगतिशील बौद्धिकों की ब्रांडिंग पर सत्ता का अभूतपूर्व ध्यान है. हिंदुत्ववादी शक्तियां अनपढ़ इन्फ्लुएंसरों के जरिये रोमिला थापर और इरफान हबीब जैसे अनेक देशप्रेमी बौद्धिकों की छवि को विकृत कर उन्हें राष्ट्रद्रोही के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं.

नियो नाजियों से सीख रहे ये लोग सोशल मीडिया और विश्वविद्यालयों में ‘बुद्धिविरोधी अभियान’ (मैनेजर पाण्डेय के शब्द) चला रहे हैं. फिलिस्तीन पर बात कैसे हो? गोदी मीडिया और गोदी शिक्षकों के बीच अधिकांश चेतनशील बौद्धिकों को खामोश रहकर जीने की ऐसी विवशता शायद ही कभी रही हो.

यूट्यूबर्स की एक फौज यह दिखाने में लगी हुई रहती है कि किस तरह इजरायल की सारी नीतियां भारत के हितार्थ हैं. यह समझाया जाता है कि इजरायली नीतियों का समर्थक हमें मात्र इसलिए हो जाना चाहिए कि वह भारत के पड़ोसियों के खिलाफ वैसा ही दृष्टिकोण रखता है जैसा भारत चाहता है. वह भारतीय मानचित्र को वैसे देखता है जैसे भारत चाहता है न कि जैसे पाकिस्तान या चीन. इस धारणा का राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीय युवाओं में प्रत्यारोपण फिलीस्तीन के बचे-खुचे मानचित्र को भी जैसे भारतीयों के बोध से मिटाते चले जा रहा है.

यह तर्क अंततः हमें इस निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए है कि भारतीयों को आंख बंद कर इजरायल का समर्थन कर देना चाहिए और फिलिस्तीन में मृतकों (जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं) से मुंह मोड़ लेना चाहिए. इस नए सांस्कृतिक परिवेश में कुछ ही महीनों में हजारों फिलिस्तीनी बच्चों का मर जाना सिर्फ और सिर्फ एक सूचना है.

आखिर में फिलीस्तीन सूचना-युद्ध के लिए उपयोगी सिर्फ एक उत्पाद, एक प्रोडक्ट बन कर रह जाता है जिसके माध्यम से इस्लामोफोबिया तैयार कर, आतंकवाद को एक आकृति देकर भारत में भी अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति की इमारत खड़ी की जाती है. हिंदुत्ववादी राष्ट्र की स्थापना के लिए फिलीस्तीन एक उपकरण बन जाता है. इस सांप्रदायिक इमारत को मजबूत बनाने के लिए उन्मादग्रस्त ऐसे कूढ़मगज युवाओं को तैयार कर दिया गया है जिनमें संवेदना सिर्फ हिंदुत्व और हिंदू भारत के प्रति है, मनुष्य और मानवाधिकारों के प्रति नहीं.

बुद्ध और गांधी के देश में घृणा का इतना वर्चस्व कायम करने में जो शक्तियां सफल हुई हैं, प्रतिपक्ष में खड़ी ताकतें उन्हें पिछले वर्षों में अधिकांशतः चुनावी नज़र से देखकर, नफरत की पूरी मशीनरी की बहुत सीमित समझ तक सिमट चुकी हैं. आखिर उनकी आकांक्षा भी सत्ता तक ही ज्यादा सिमटी रही, इसलिए धुंधलाते भविष्य का अंदाजा उन्हें भी कहां था. इसलिए घृणा से मुक्ति अब लोकतांत्रिक दायित्व और नागरिक भूमिकाओं की पुनर्व्याख्या और आंदोलनकारी पुनर्प्रतिष्ठा के बगैर संभव नहीं है.

(लेखक असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं)