इज़रायल का गाज़ा तट पर हमला और जनसंहार जारी है. फ़िलिस्तीनी जनता और हमास ने इसके खिलाफ जबरदस्त प्रतिरोध दिया है. फ़िलिस्तीन के हर प्रतिरोध और अपनी हर आलोचना को इज़रायल एंटी-सेमेटिक (यहूदी विरोधी) कहकर ख़ारिज करने का प्रयास करता है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ काफी कुछ लिखा गया है. मगर इस बहस का एक ऐतिहासिक पहलू भी है और जहां ज़ायोनीवादी विचार और राजनीति का दबदबा आज भी कायम है.
यह ऐतिहासिक पहलू इस सवाल से जुड़ा हुआ है कि क्या इज़रायल पश्चिम में हो रहे यहूदी उत्पीड़न का खात्मा था?
क्या इज़रायल के जरिये पश्चिम में यहूदी प्रश्न को सुलझा लिया गया था? इज़रायल फ़िलिस्तीन पर कोई भी चर्चा विना एडवर्ड सईद के अधूरी है. प्राच्यवाद (Orientalism) सईद की क्लासिक रचना मानी जाती है. सईद ने साम्राज्यवाद को पूरब के प्रति पश्चिम के नजरिये में तलाशा है. एक ऐसा नजरिया जिसमें पूरब हमेशा हीन और पश्चिम हमेशा श्रेष्ठ रहा है, यह सिर्फ एक मान्यता नहीं है बल्कि पश्चिम में पूरब संबंधी ज्ञान का आधार भी है.
यह ज्ञान पूरब को जानने और उस पर शासन करने की रणनीति से जुड़ा हुआ था. पश्चिम ने आधुनिक दौर में पूरब को उसके ‘पिछड़ेपन’ से उबारने की जिम्मेदारी उठाई. पश्चिम की इस नैतिकता को उपनिवेशवाद की वजह मानते हुए सईद ने इसे ‘साम्राज्यवाद की नैतिक ज्ञानमीमांसा’ कहा. उनकी किताब प्राच्यवाद ‘अन्य के प्रति पश्चिम की अवधारणा (ज्ञान) और बर्ताव (नैतिकता)’ को केंद्र में रखकर लिखी गई है.
सईद का मानना है कि पूरब से यह ‘फर्क’ पश्चिम की अस्मिता का आधार है जो पश्चिम के आलोचनात्मक और संदेहवादी विचारक को भी प्राच्यवाद के भीतर कैद रखती है, जिससे यह पश्चिम में सर्वमान्य बन जाता है.
फ्रांसीसी चिंतक मैक्सिम रोदिंसों से पूरी रजामंदी जताते हुए वह मानते हैं कि प्राच्यवाद (पश्चिमी श्रेष्ठातावाद) ‘पश्चिम के सर्वहारा और उनके उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए भी लाभदायक था….’. इस तरह प्राच्यवाद सर्वकल्याणकारी भी था.
फ़िलिस्तीन और बालफूर घोषणा
‘फ़िलिस्तीन का सवाल’ नामक अपनी किताब में सईद लिखते हैं कि प्राच्यवादी नजरिये के मुताबिक माना गया कि फ़िलिस्तीन को ‘फिर से कब्जे में लेना है और उसे फिर से नए सिरे से गढ़ना है.’ सन् 1833 में फ़िलिस्तीन की यात्रा पर आए फ्रांसीसी यात्री अल्फोंस डी. लामार्तिन ने अपनी ‘रेज़ूमे पॉलिटिक’ नाम की किताब में फ़िलिस्तीन को वास्तव में एक देश मानने से इनकार कर दिया.
सईद के मुताबिक प्राच्यवादी नजरिये के कारण वहां के लोगो को वास्तव में नागरिक नहीं माना गया. सईद ने इस नजरिया को ज़ायोनीवादी नारे– ‘बिना लोगों के देश, उन लोगों के लिए जिनके पास अपना कोई देश नहीं है’- का आधार माना है. ज़ायोनीवादी विचार और प्राच्यवाद में संबंध स्थापित करने के बाद बालफूर घोषणा को सईद ने इस नजरिये का एक स्वाभाविक नतीजा माना, जिसके तहत फ़िलिस्तीन पहली बार यहूदी समुदाय का ‘होम लैंड’ घोषित हुआ.
सईद फ़िलिस्तीन पर लिखी अपनी किताब में सर्वमान्यता के बदले सहमति को तरजीह देते हैं. सहमति के आधार पर कायम प्राच्यवादी आधिपत्य पश्चिम के भीतर ही कम से कम विरोध की एक गुंजाइश छोड़ता है. हालांकि सहमति जबरन नहीं बनाई जाती. पश्चिम के साम्राज्यवाद विरोधी स्वर को सईद ने पश्चिम पर पूरब का असर माना है. पश्चिम में फ़िलिस्तीन समर्थन को उन्होंने अरब और फ़िलिस्तीन का प्रभाव कहा है.
पश्चिमी यहूदी समुदाय और ज़ायोनीवादी: इतिहास और आलोचना
‘एक पश्चिम’ की इस अवधारण को हमें यूरोप के इतिहास की रोशनी में परखना होगा. सईद ने अपने एक लेख – ‘ज़ायोनीवादी और लिबरल पश्चिम’– में पूरब के प्रति आम पूर्वाग्रह (प्राच्यवादी नजरिया) रखने के कारण इन दोनों विचारधारा को एक दूसरे के करीब माना हैं. मगर गौर से देखा जाए तो यूरोप की एंटी-सेमेटिक ताकतें ज़ायोनीवादियों के सबसे करीब थी.
1930 के दशक में 90% यहूदियों को पोलैंड से बाहर निकाल देना की एंटी-सेमेटिक विदेश नीति के समर्थन में संशोधनवादी ज़ायोनीवादियों के तरफ से सुझाया गया ‘इवैक्युएशन प्लान’ का प्रस्ताव हो या नाजीवादियों और ज़ायोनीवादियों के बीच हुआ हावड़ा समझौता या ज़ायोनीवादियों द्वारा कुख्यात न्यूरेमबर्ग कानून का समर्थन ये सब इसकी मिसाल पेश करता है.
दोनों के लिए राष्ट्र का आधार नस्ल था. एंटी-सेमेटिक धारा के लिए यहूदी एक अलग नस्ल होने के कारण यूरोपियन राष्ट्र का हिस्सा नहीं था जबकि ज़ायोनीवादियों के लिए यहूदी समुदाय एक नस्ल होने के कारण ‘बिना किसी देश के एक राष्ट्र था’. वे इस मकसद पर सहमत थें कि यहूदियों को यूरोप से दूर फ़िलिस्तीन या किसी अन्य गैर यूरोपीय देश में चले जाना चाहिए.
फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी समाज बंटा हुआ था. यहूदी और गैर यहूदी में अस्मिता का विभाजन पश्चिम में फ़िलिस्तीन के उपनिवेशीकरण की शर्त बन चुका था. पूरब के खिलाफ अस्मिता के आधार पर क्या अब एकमत या एक पश्चिम की बात संभव थी?
फ़िलिस्तीन को इज़रायल में तब्दील कर देने की प्राच्यवादी-ज़ायोनीवादी नैतिकता यहूदी समुदाय को पश्चिम से बेदखल कर देने की नफरत से भरी एक एंटी-सेमेटिक परियोजना थी. यहूदी लेखक कार्ल कोर्श ने इस ज़ायोनीवादी परियोजना को आत्म-घृणा और यहूदियों के एक वामपंथी मजदूर संगठन बुंद ने पलायनवादी करार दिया. सईद साम्राज्यवाद को जिस नैतिक बुनियाद पर समझना चाहतें हैं क्या वह पश्चिम को अब एक सूत्र में बांध सकती थी?
इस मायने में यह पश्चिम के लिए सर्वकल्याणकारी नहीं था. ज्ञान के नजरिये से यह पूरबी अन्यता और पिछड़ेपन के साथ-साथ यहूदी अन्यता और पिछड़ेपन पर भी आधारित थी. यहूदी समुदाय का तर्कसंगत विरोध पश्चिम के भीतर मौजूद एक ऐसी ज्ञानमीमांसा की ओर संकेत है जो नस्ल और सभ्यता की श्रेष्ठता पर आधारित इस साम्राज्यवादी ज्ञानमीमांसा का विकल्प हो और उसे चुनौती देती हो.
बोल्शेविक राजनीति में इस वैकल्पिक नैतिकता और ज्ञान को तलाशा जा सकता है, जिन्होंने रूस में यहूदी समुदाय को लामबंद किया था.
ज़ायोनीवादी चिंतन को नकारते हुए बोल्शेविकों ने यहूदी समुदाय को राष्ट्रीयता मानने से इनकार कर दिया था और सबसे बढ़कर इसने राष्ट्रीयतायों के आत्म-निर्णय के सिद्धांत को मजदूर आंदोलन से जोड़ दिया था. उनके मुताबिक यहूदी समस्या का हल यूरोप के जनवादीकरण में था. फ़िलिस्तीन का उपनीवेशीकरण अब यहूदी समुदाय को पश्चिम से खदेड़ कर बाहर कर देने के हर एंटी-समेटिक प्रयास का एक नया आधार था. इसलिए कम से कम फ़िलिस्तीन के मसले पर साम्राज्यवाद का विरोधी होना यहूदी समुदाय के लिए अब जरूरी हो गया था. क्योंकि अब साम्राज्यवाद का विरोध किए बिना यहूदी समुदाय पश्चिम में अपनी मौजूदगी कायम नहीं रख सकता था.
1930 में फ़िलिस्तीन में जब अरबों ने यहूदियों का प्रतिरोध किया तो जहां ज़ायोनीवादियों ने इसे एंटी-सेमिटिज़्म कहा वहीं बुंद ने इसे उपनीवेशीकरण का प्रतिरोध माना. यहूदी समुदाय के बीच इज़रायल सर्वमान्य नहीं था मगर हो सकता है कि इसे लेकर उनके बीच एक व्यापक सहमति रही हो. व्यवहारिक तौर पर इसका मतलब है कि फ़िलिस्तीन में यहूदियों का विस्थापन उनकी मर्जी से हुआ था जबरन नहीं.
अपने एक लेख में सईद ज़ायोनीवादियों की पूरी राजनीतिक परियोजना को व्यवहारिक तौर पर समझाने के लिए इस व्यवस्था के दो पहलू को समझाते हैं
(1) संचय (जमाखोरी): इसके तहत ज़ायोनीवादी व्यवस्था सत्ता, जमीन और विचारधारात्मक वैधता को संचित करती है.
(2) विस्थापन (बेदखली): इसके तहत वह लोगों, अन्य विचारों, पुरानी वैधता को विस्थापित करती है. यहूदियों के पश्चिम से इज़रायल के नागरिक में तब्दिल हो जाने की प्रक्रिया ज़ायोनीवादी राजनीतिक परियोजना का अभिन्न अंग थी, जिसे सईद ने संचय और विस्थापन के रूप में न देखकर नैतिक परियोजना के रूप में देखा है. इसलिए ज़ायोनीवादियों के व्यवहारिक प्रणाली में मैं दो और पहलुओं को शामिल करूंगा.
(3) फ़िलिस्तीन में यहूदी लोगों का संचय: बालफूर घोषणा ने फ़िलिस्तीन में नागरिक के रूप में यहूदियों के संचय का कानूनी आधार पेश किया. इसलिए यह भविष्य में बनने वाले इज़रायल की सबसे अहम बुनियाद थी.
(4) पश्चिम से यहूदियों की बेदखली: पश्चिम के यहूदी समुदाय का सबसे पहला पलायन जिसे पहला ‘अलियाह’ कहा जाता है रूसी साम्राज्य के यहूदी उत्पीड़न का नतीजा था. यह 1882 से 1903 का समय है जब ज़ायोनीवादी राजनीति पहली बार मंच पर आती है. 1924 से 1929 में पोलैंड में एंटी-सेमेटिक ताकतों का उभार से ‘चौथे अलियाह’ को जोड़ा जाता है. जबकि इसका पांचवा चरण 1929-1939 है जो जर्मन में नाजीवाद के आगमन और पूर्वी यूरोप में उनके प्रभाव का समय है.
पूरबी यूरोप से भगाए जाने पर पश्चिम यूरोप में शरण लेना यहूदी समुदाय के लिए स्वभाविक था. ऐसे में यहूदी अप्रवासन को रोकने के लिए इंग्लैंड ने एलियंस एक्ट 1905, अमेरिका ने 1921 में इमरजेंसी कोटा एक्ट और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अधिकांश देशों ने यहूदी समुदाय के अप्रवासन पर रोक लगा दी. जर्मन में यहूदी समुदाय के उत्पीड़न पर चिंता जताते हुए 14 जुलाई 1938 को फ्रांस में एवियन कांफ्रेंस में 32 देशों के प्रतिनिधियों की सभा बुलाई गई.
हालांकि, किसी भी पश्चिमी देश ने यहूदी शरणार्थीयों को अपने यह जगह देने से इनकार कर दिया. फ़िलिस्तीन में यहूदियों के विस्थापन को सहमति के आधार पर नहीं समझा जा सकता. मगर सईद ने यहूदी उत्पीड़न (होलोकास्ट या अन्य यहूदी नरसंहार) के तथ्य को नजरंदाज नहीं किया है.
उनके मुताबिक पश्चिम द्वारा इज़रायल बनाने के प्रयास का एकमात्र मकसद ‘ईसाई यूरोप द्वारा यहूदी उत्पीड़न को खत्म करना था.’ एक बार उनके इस राजनीतिक मूल्यांकन की बुनियाद पर उनके सिद्धांत को इज़रायल और फ़िलिस्तीन के मसले पर अगर हम लागू करें तो ऊपर की गई सारी आलोचनाओं को निरस्त किया जा सकता है.
इस मूल्यांकन से फ़िलिस्तीन का उपनिवेशीकरण विभाजित पश्चिमी समाज के लिए एकता कायम करना का जरिया बन जाता है. यहूदी समस्या पश्चिम को दिखाई देती है, है वहीं फ़िलिस्तीन को वह नज़रअंदाज करता है.
सईद ने इसे ‘दोहरा विजन’ कहा है. अब इज़रायल के प्रति यहूदियों का विरोध अतार्किक जान पड़ता है. यहूदी कल्याण से जुड़े होने के कारण उनके लिए किसी वैकल्पिक ज्ञान की खोज करना तर्कसंगत नहीं रह गया. ऐसे में इज़रायल बनाने का मकसद पश्चिम समाज के लिए साझी नैतिकता थी. विभाजित पश्चिमी समाज और अस्मिता फिर से एक बार पूरब (फ़िलिस्तीन और अरब) के खिलाफ एकजुट होकर अपनी नई एकता पाता है.
ऐसे में पूरब के खिलाफ ‘एक पश्चिम’ की अवधारणा जायज़ है. आखिर इज़रायल क्या था? क्या इसने यहूदी उत्पीड़न की नई जरूरत पैदा की थी या चल रहे यहूदी उत्पीड़न को खत्म किया था?
इज़रायल यहूदी उत्पीड़न का जवाब था. ठीक यही नजरिया ज़ायोनीवादी इज़रायल को लेकर अपनाते है. यह उनकी राजनीति का आधार वाक्य है जो आज तक कायम है.
सईद दोहरे विजन को समझाने के क्रम में हाना आरेंट को उधृत करते हैं- ‘यहूदी प्रश्न जिसका कोई हल नहीं था उसका समाधान निकल आया….’. यह ज़ायोनीवादी नज़रिया न केवल सईद के लिए इज़रायल के मूल्यांकन और यहूदी सवाल को समझने की कुंजी है बल्कि पूरब के खिलाफ ‘एक पश्चिम’ की उनकी अवधारणा का आधार भी है. इस तरह इज़रायल के राजनीतिक मूल्यांकन में उन के सिद्धांत का रहस्य छिपा है.
‘इज़रायल यहूदी उत्पीड़न का खात्मा था’ उनकी इस मूल्यांकन को हम क्या उन पर ज़ायोनीवादी विचार का आधिपत्य माने? या इसे एक सर्वमान्य ज्ञान के रूप में लिया जाए? हालांकि ज़ायोनीवादी विचारधारा इसे मानती है केवल इस लिए इसे खारिज नहीं किया जा सकता है. यहूदियों को यूरोप से बाहर निकलना ज़ायोनीवादी राजनीति का ही नहीं बल्कि एंटी-सेमेटिक राजनीति का भी मकसद था, जिसे इज़रायल पूरा करता था.
इज़रायल साम्राज्यवाद और एंटी-सेमेटिक राजनीति का साझा विजय स्तम्भ है. कैसे एक ही साथ इज़रायल यहूदी समस्या का समाधान भी था, वह यहूदी उत्पीड़न का खात्मा भी था और एंटी-सेमटिक राजनीति का मकसद भी?
यह विरोधाभास है. फ्रांसीसी क्रांति ने यहूदियों को मुख्यधारा में शामिल कर लिया था, इटली और जर्मनी के एकीकरण ने भी एक हद तक यहूदी समस्या को सुलझा लिया था. जार की सत्ता जाने के बाद पहली सोवियत सरकार में 80-85% सदस्य यहूदी थें. दरअसल मर रहे यहूदी प्रश्न को फिर से जिंदा किया जा रहा था. इस बार यह सामाजिक से ज्यादा राजनीतिक प्रयासों का नतीजा था.
होलोकास्ट के बाद यूरोपियन देशों ने शरणार्थी संबंधी नीतियों में कोई भी बदलाव नहीं किया. अरब के देश जब संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव लेकर आएं कि होलोकास्ट से बच निकले यहूदी समुदाय को यूरोप अपने पास रखे तो किसी भी पश्चिमी देश ने उनका समर्थन नहीं किया. मतलब, होलोकास्ट से बच निकले यहूदी समुदाय के लोगों को अब पश्चिम से देश निकल दिया गया था. इस तरह से बने इज़रायल में यहूदी उत्पीड़न के खात्मे का मकसद तलाश लेना किसी जादू से कम नहीं है. क्या सईद ने साम्राज्यवाद का मानवीय पक्ष ढूंढ लिया?
सईद यहूदी समुदाय के अंदर हो रहे वर्ग-संघर्ष को नज़रअंदाज़ कर देते हैं (ज़ायोनीवादी बनाम बुंद और अन्य). यहूदियों का कोई देश नहीं है इस आधार पर ज़ायोनीवादी राष्ट्रवाद यहूदी मजदूरों को कैसे प्रभावित कर सकता था जो पहले ही राष्ट्रवाद की आलोचना कि मजदूरों का कोई देश नहीं होता, की ओर बढ़ चुके थे? यहूदी समुदाय के बीच वर्ग के आधार पर बनी असहमति के इतिहास को मिटाकर वे सहमति का मिथ गढ़ते हैं जो उन्हें पूरब के खिलाफ एक पश्चिम की ओर ले जाता है.
रोथ्सचाइल्ड (ज़ायोनीवादी) और बालफूर (एंटी-सेमेटिक) के बीच बालफूर घोषणा को लेकर बनी सहमति का आधार वर्ग था पश्चिमी सभ्यता नहीं, जिसमे पूरे यहूदी समुदाय को शामिल नहीं किया जा सकता है. सईद की विडंबना ये है कि पश्चिमी सभ्यता के आधार पर साम्राज्यवाद की उनकी व्याख्या कम से कम फ़िलिस्तीन के उपनीवेशीकरण को समझाने में नाकामयाब रहती है जो की उनकी राजनीति का मूल सरोकार है.
पूरब के खिलाफ ‘एक पश्चिम’ के आधार पर साम्राज्यवाद की गई उनकी व्याख्या हमारे सामने एक ऐसा चित्र पेश करती है जिसमे ज़ायोनीवादियों का एंटी-सेमेटिक पक्ष और इज़रायल के निर्माण के लिए अनिवार्य एंटी-सेमेटिक राजनीति के आधार पर विभाजित पश्चिम हमारी आंखों से ओझल हो जाता है.