कला की दुनिया में वेनिस बिनाले किसी परिचय का मोहताज नहीं है. अप्रैल 2024 में इटली के प्राचीन और सुंदर शहर वेनिस में कलाओं के सबसे प्रतिष्ठित बिनाले या द्विवार्षिकी के साठवें संस्करण की शुरुआत हो चुकी है. मशहूर कला संयोजक एड्रियानो पेड्रोसा के निर्देशन में चल रहे इस बार के बिनाले की प्रमुख थीम है ‘फ़ॉरेनर्स एवरीवेयर’.
वेनिस के चौराहों, दीर्घाओं, संग्रहालयों, गिरजाघरों, पार्कों, नावों और पुलों जैसे लगभग 150 सार्वजनिक स्थलों में चल रही तमाम प्रदर्शनियों ने पूरे शहर को इस थीम से ढांप रखा है. 6 महीनों तक चलने वाले कलाओं के इस महायोजन में दुनिया भर से लगभग 20-25 लाख लोग आते हैं.
हालांकि, बिनाले में भारत का अपना पवेलियन अब तक सिर्फ़ दो बार संभव हुआ है, इस बार का विषय ऐसा था कि हमारे कलाकारों को अपना पवेलियन मिलना चाहिए था. बिनाले के इस साठवें संस्करण में उसकी प्रमुख दीर्घाओं में दुनिया भर के मूलनिवासी या आदिवासी कलाकारों को प्राथमिकता दी गई है. इस बार का गोल्डन लायन पुरस्कार भी ऑस्ट्रेलियाई मूल निवासियों के ‘मटाहो कलेक्टिव’ को दिया गया है. इस अवसर पर हम भी अपने पवेलियन में दृश्य-कलाओं के संसार की उस परंपरा को प्रस्तुत कर सकते थे जिसे दुनिया अब गोंड कला के नाम से जानती है. अफसोस यह है कि पूरा विश्व जब अपने सांस्कृतिक स्रोतों के संवर्धन पर ध्यान दे रहा है, हम अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक उपलब्धि पर सबका ध्यान अपनी ओर खींच सकने में नाकामयाब रहे.
भारतीय पवेलियन की अनुपस्थिति इसके मद्देनज़र कहीं अधिक चुभती है कि जिस कला ने पिछले दशकों में दुनिया को कई विलक्षण आदिवासी कलाकारों से परिचित कराया, उन गोंड आदिवासियों के लिए इस मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने का और अन्य देशों के समकालीन और समानधर्मा चित्रकारों से संवाद का यह एक दुर्लभ अवसर हो सकता था. अन्य देशों की भांति हमारा देश भी वैश्विक मंच पर इस बिनाले की महत्ता को समझते हुए राष्ट्रीय भागीदारी करता, तो बात कुछ अलग होती.
2011 में यह प्रख्यात कवि और ललित कला अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक वाजपेयी की दूरदृष्टि थी कि उन्होंने भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय को बिनाले की महत्ता को समझाते हुए पहली बार शासन को अपनी स्वतंत्र पवेलियन लेने की सलाह दी थी. रणजीत होसखोटे ने पहली भारतीय पवेलियन का संयोजन किया था. उसके बाद 2019 में प्रख्यात कला सांग्रहिका किरण नादर के व्यक्तिगत प्रयासों और वित्तीय सहयोग से भारतीय कलाकारों को उनकी अपनी पवेलियन फिर मिल सकी थी जिसमें महात्मा गांधी के 150वी जयंती के उपलक्ष्य में उनके दर्शन से प्रभावित कलाकारों का चयन किया गया था.
पवेलियन के अलावा भी तमाम भारतीय कलाकार यहां प्रदर्शित होते रहे हैं. अमृता शेरगिल वह पहली भारतीय थीं जिनकी कलाकृतियों को बिनाले में स्थान मिला था. मात्र 28 वर्षों के जीवन में अमृता शेरगिल ने अंतरराष्ट्रीय कला जगत में अपनी ऐसी विशिष्ट जगह बना ली थी कि 1941 में उनके देहांत के बाद इस बिनाले के 24वें संस्करण (1948) में उनकी कलाकृतियों को विशेष रूप से शामिल किया गया था.
उसके बाद समय-समय पर अनेक भारतीय कलाकारों की कृतियां इस बिनाले की मुख्य प्रदर्शिनी में शामिल हुई हैं, जिसमें एमएफ़ हुसैन, एसएच रज़ा, रामकुमार, कृष्ण खन्ना, सतीश गुजराल की पीढ़ी के बाद विवान सुंदरम्, ग़ुलाम मोहम्मद शेख, जोगेन चौधरी, गीव पटेल, नलिनी मलानी, मृणालिनी मुखर्जी, दयनिता सिंह के अलावा शीला गावड़ा, सुबोध गुप्ता, शिल्पा गुप्ता, सुनील गावड़े, रियाज़ कोमु आदि जैसे अनेक नाम शामिल हैं. इस साल भी मुख्य प्रदर्शिनी में रज़ा, सूज़ा, अमृता शेरगिल, ज़मीनी रॉय, भूपेन खक्कर और बी. प्रभा को शामिल किया गया है.
वेनिस में आधुनिक कलाओं के इस महाकुंभ के शुरू होने की कहानी दिलचस्प है. 1895 में इटली के राजा अंबर्टो प्रथम और सेवॉय की मार्गरीटा के विवाह की रजत जयंती के उपलक्ष्य में एक ऐसी प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था जिसे इटली की पहली राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी भी कहा जाता है. लेकिन सन् 1900 में अम्बर्टो प्रथम की हत्या के बाद उनकी स्मृति में शासन द्वारा 1903 में इस राष्ट्रीय प्रदर्शनी का एक अलग ही स्वरूप गढ़ा गया. फलस्वरूप यह अंतरराष्ट्रीय स्तर की कला प्रदर्शनी बन गयी और किसी के व्यक्तिगत सालाना जलसे के प्रतीक से उठकर दो सालों में एक बार होने वाली सार्वजनिक वैचारिक क्रांति का मंच बन गई.
इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में उपजती नई राजनीतिक प्रणालियों के मध्य और औद्योगिक क्रांति के अंतिम सोपान में स्थापित हुआ वेनिस बिनाले दृश्य कलाओं की दुनिया से संबद्ध ऐसा उपक्रम बन गया जो वैश्विक स्तर पर स्वीकृत भी है और निर्णायक भी. कलाकारों के योगदान को चिह्नित करने के उद्देश्य से वेनिस बिनाले कमेटी ने 1961 में ‘गोल्डन लायन पुरुस्कार’ की स्थापना की. अब यह कलाओं की दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार में रूप में पहचाना जाता है. पहला पुरस्कार फ़्रांस के मशहूर शिल्पी अल्बर्टो जीआकोमेटी को 1962 में दिया गया था. इसे पाने वाली पहली महिला कलाकार अमेरिकी शिल्पी लुई बोर्जियोस थीं जिन्हें यह 1997 में दिया गया था.
इस प्रदर्शनी में कृतियों को सिर्फ़ प्रदर्शित नहीं किया जाता है, बल्कि दुनिया भर के संघर्ष, बग़ावत या विद्रोहों के भाष्यों को सम्मान से सुना जाता है, उन पर बनी कलाकृतियों पर गहन गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, उनके सौंदर्य-शास्त्र को कलाओं की मुख्यधारा में सम्मिलित करके उन्हें स्वीकृत और सम्मानित किया जाता है. यहां के मंचों पर होने वाले संवाद के जरिये ऐसे वैश्विक विचार-विनिमय की स्थापना होती है जिनसे कलाओं की प्रचलित वृत्तियों का आकलन तो किया ही जाता है, विभिन्न दिशाओं में भविष्य के नवाचारों की नई ज़मीनों को भी टटोला जाता है.
वेनिस बिनाले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दृश्य कलाओं, वास्तु, सिनेमा, नृत्य, रंगमंच और संगीत का सबसे बड़ा ऐसा मंच बन गया है जहां वैश्विक स्तर के सांस्कृतिक ताने-बाने को नई ऊर्जा मिलती है.
(मनीष पुष्कले चित्रकार-गद्यकार हैं.)