क़िस्साग्राम: कथा की संभावना का विस्तार करता उपन्यास

पुस्तक समीक्षा: प्रभात रंजन का हालिया उपन्यास इंगित करता है कि नैतिकता का उत्स भले ही आंतरिक हो, इसके बीज पारंपरिक आख्यान, धार्मिक कथाओं और प्रेरक जीवनियों से बोए जाते हैं.

(फोटो साभार: राजपाल प्रकाशन)

प्रभात रंजन की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘क़िस्साग्राम’ चर्चा में है. कहानियों और किस्सों में अंतर देखना हो और किस्सागोई की विशेषता को समझना हो तो यह पुस्तक एक अच्छा उदाहरण है. इसके कथानक में ‘कथासरित्सागर’ जैसी शैली देखी जा सकती है, वहीं इसके साथ लेखक की मौलिकता की छाप भी स्पष्ट है.

प्रभात जी की यह कृति उनकी पिछली पुस्तक ‘कोठागोई’ के रचनागत विशेषता वाले क्रम में है जिसमें बहुत-सी कहानियां एक सूत्र के बहाने आगे बढ़ती हैं. साथ ही यह पुस्तक 90 के दशक की राजनीति और सामाजिक मुद्दों की चर्चा करती है.

प्रभात रंजन की दृष्टि आमजन पर राजनीति के प्रभाव और संबंधित क्रियाकलापों पर है. कमोबेश यह दृष्टि इतिहासकारों की विशेषता होती है. जहां इतिहासकार समूहगत विशेषता के सामान्यीकरण पर अधिक जोर देते हैं, वहीं साहित्यकार चरित्रों के माध्यम से व्यक्तिगत स्तर पर उतरकर एक प्रतिदर्श स्थापित करने का प्रयास करते हैं. इस तरह से लेखक की यथार्थवादी दृष्टि में जनतंत्र में अवसरवादी, बेईमान, दोहरे चरित्र वाले ही राजनीतिक सफलता पाते हैं. संभवत: उनकी दृष्टि में आर्थिक सफलता से कहीं अधिक राजनीतिक सफलता मायने रखती है.

देखा जाए तो यह दृष्टि समकालीन जनमानस की लौकिक दृष्टि है जहां व्यक्तिगत सफलताएं, भले ही वह आर्थिक हो या किसी तरह का आकस्मिक यश या ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अर्जित ख्याति, किसी भी व्यक्ति के अकस्मात या सायास राजनीतिक सिद्धि के सामने कोई मायने नहीं रखती. मैं समझता हूं यह जनतंत्र की अंतर्निहित असफलता का मुख्य सूत्र है.

उपरोक्त विडंबना के इस सूत्र का उल्लेख लेखक अंतिम अध्यायों में करता है, ‘लेखक के रूप में मैं तानाशाह होना चाहता था लेकिन पात्र मुझे जनतंत्र की याद दिलाते लग रहे थे. उस जनतंत्र की जो उस दौर में सबसे अधिक बोला जाने वाला शब्द तो था लेकिन जिसका चलन धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा था.’

कथा-क्रम में जो बात स्थापित है वह यह कि कुछ नेता जिनके बाप-दादा ने आदर्शों पर चलकर स्वाधीनता संग्राम में योगदान दिया, वही उन आदर्शों का पुतला बना कर उनकी धज्जियां उड़ाते हैं. यह रोना 80-90 के दशक में खूब सुना जाता था. अब तो आदर्शों की कोई बात भी नहीं करता. बकौल मुक्तिबोध हमने बहुत पहले ही राजनीति से ‘समाज-सुधार’ का कार्यक्रम निकाल दिया है. लेकिन इसकी बानगी कॉलेज जाने वाले युवा नेता ‘सुशील राय’ में दिखती है जिसकी नज़र में समाज सुधार ‘पढ़ने में हिंदी और बोलने में इंग्लिश’ से शुरू होता है. स्थापित हो जाने के बाद एक बस दुर्घटना के पश्चात यही नेता आंदोलन के दौरान दुकानों में तोड़-फोड़ करता है. इसके फलस्वरूप उसपर कुछ केस दर्ज होते हैं जिस पर उसके समर्थकों की गर्वोक्ति है – ‘नेता की शान तो केस से बढ़ता है न.’

यह पुस्तक स्थापित करती है कि राजनीति का समकालीन अर्थ जनता की ‘स्वार्थ-सिद्धि’ का उपक्रम है. यहां स्वार्थ सिद्धि को हेय दृष्टि में भी नहीं लिया गया है. इसका उदाहरण हमें ‘पीर मोहम्मद’ के किरदार में मिलता है. यह युवा मुस्लिम लड़का जिसके दो बड़े भाई खेत बेचकर जुटाए पैसे से कुवैत नौकरी करने गए और वहां बंधुआ मजदूर बना लिए गए हैं, केंद्रीय मंत्री से अपनी याचना कर के अपने भाइयों को किसी तरह बचाने में सफल हो जाता है. यह सफल ‘स्वार्थ सिद्धि’ दूसरों के कल्याण का मार्ग खोलती है जो एक राजनेता की मुश्किल का कारण बन जाता है.

इस तरह प्रशासन की तरफ से जो सहज ‘न्याय’ मिलना चाहिए था, वह उसकी व्यक्तिगत अर्जित सफलता है. कमोबेश यही स्थिति कहानी में दूसरे असफल नेताओं की है जो सरकारी दफ्तरों में किसी तरह काम करवा देते हें.

विडंबना है कि जनतंत्र में कोई यह नहीं कहता कि हमें ‘सामाजिक न्याय’ तो दूर की बात है, साधारण दंड-नीति व्यवहार भी सुचारु रूप से मिल रहा है. और तो और यह किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यक्रम में नहीं है. मैं यह दावा करता हूं कि यह न्यायिक सुधार और सुलभता ‘डिजिटल कोर्ट’ के आने पर भी दूर की ही कौड़ी रहेगी. फिलहाल यह तय है कि भारतीय जनतंत्र में न्याय न मिल पाना सामान्य सी बात मान ली गई है, क्योंकि न्यायालय से पहले पुलिस की कानून-व्यवस्था की सीढ़ी को लेखक भी संदिग्ध दृष्टि से देखता है.

कहानी में एक पात्र यह तंज कसता है कि हमारी परंपरा में धर्म और मनोरंजन में अंतर नहीं. मेरी समझ से यह भारतीय संस्कृति में कला के आनंदवादी दृष्टिकोण और उनके अभिनिवेश को न समझ पाने की निशानी है. इस कहानी के उत्स में जाएं तो लगभग अनुपस्थित छकौरी पहलवान को जिस हनुमान जी की मूर्ति का आशीर्वाद प्राप्त है, उसे किसी चौकीदार ने ईंट का चौतरा बनाकर स्कूल की दीवार से सटाकर स्थापित कर दिया है. इस कथ्य में जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वह है हनुमान जी की मूर्ति. उसे खंडित करने का प्रश्न लेखक के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है, पर विचार के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि उसे किसने बनाया?

दशहरा, सरस्वती पूजा, काली पूजा आदि में पीढ़ियों से काम करे रहे मूर्तिकारों पर हमारी दृष्टि उतनी नहीं जाती जितनी लोक गायक और नृत्य पर. उसी तरह लेखक ने यह नहीं बताया कि वह मूर्ति आई कहां से? यह भी तुरंत स्पष्ट नहीं होता कि नई मूर्ति की जगह नेपाल से आए ‘भभूत’ के प्रति सीतापुरी के लोग क्यों इतने श्रद्धावान हैं. यदि हम इन घटनाओं को अंधभक्ति कहना चाहें तो लेखक ने फिर इसे वाल्मीकि और अंगुलिमाल की कहानी से जोड़ा है. मेरी समझ से लेखक इस बात पर आकर ठहरता है कि नैतिकता का मूल उत्स भले ही आंतरिक हो, लेकिन इसके बीज पारंपरिक आख्यान, धार्मिक कथाओं और प्रेरक जीवनियों से बोए जाते हैं. तमाम कमियों के बावजूद यही इनकी सार्थकता है.

कहानी का एक पात्र बुरहान खान दुनिया से ‘जहालत’ दूर तो करना चाहता है, मगर सतही तौर पर. उतना ही जितने में उसका नाम बना रहे. लेखक से प्रश्न है कि क्या सदियों से पोसी जा रही ‘निरक्षरता’ और गलगोटिया यूनिवर्सिटी जैसी ‘जहालत’ इस जनतंत्र की खाद है?

मुझे लगता है इस विमर्श के संकेत कहीं न कहीं उनके पात्रों में हैं, जिन्हें मैं ढूंढ नहीं पाया.

(प्रचण्ड प्रवीर आईआईटी दिल्ली से स्नातक हैं और ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ जैसे उपन्यास समेत कई पुस्तकों के लेखक हैं.)