हिंदुत्व वर्तमान राजनीति का केंद्रीय भाव है. पूरे देश समेत दक्षिण भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा निरंतर विस्तार की मुद्रा में है. लेकिन हिंदुत्व की राजनीति का असर जिस साहित्यिक और सांस्कृतिक स्पेस में सबसे अधिक दिखता है, वह विकल्प के लिए कितना तैयार है? यह सवाल हिंदी क्षेत्र में पनपते उग्र हिंदुत्व को देखते हुए हिंदी के बुद्धिजीवियों पर कहीं अधिक उठता है.
2016 की फरवरी में लोकसभा में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के मसले पर जवाब दे रही थीं. उन्होंने जेएनयू के एक पर्चे के आधार पर दुर्गा और महिषासुर प्रकरण पर खूब हंगामा किया. मीडिया में स्मृति ईरानी का भाषण सुर्खियां बना रहा था. दूसरे दिन राज्यसभा में बहस थी. सीताराम येचुरी ने ब्राह्मणेतर धारा पर भाषण दिया. बलि और बामन मिथ को केरल की दृष्टि से समझाया. राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन को संबोधित करते हुए और उन्हें पोंगल की कथा याद दिलाते हुए, येचुरी ने दुर्गा-महिषासुर कथा पर बहुजन दृष्टि से बात की.
भाजपा सरकार बनने के बाद फॉरवर्ड प्रेस और उसके संपादकों पर इसी मिथक को केंद्रित अंक को लेकर एक मुकदमा भी हुआ था. मैं भी उस मुकदमे में अपने लेख के लिए एक नामित अभियुक्त था.
उन दिनों इस मसले पर संघ परिवार बैकफुट पर था. भारतीय सांस्कृतिक मानस में बैठे कथाओं, मिथकों के ब्राह्मणवादी स्वरूप के बल पर ही उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राम-कथा की केंद्रीयता में विस्तार पाता है. उसे चुनौती मिलती है लोक मानस की आस्थाओं और कथाओं से, जिसे गैर ब्राह्मण और स्त्रियों के स्पेस ने रचा है और जहां प्रतिरोध के स्वर हैं.
एक ओर वामपंथी राजनीतिक दल के महासचिव इस मसले पर बेहद स्पष्ट थे, दूसरी ओर उनके सहयोगी संगठनों से जुड़े अथवा साझा मंचों के लेखक, संस्कृति कर्मी, बुद्धिजीवी मिथकों की बहुजन पर व्याख्या बेहद आक्रामक और व्यंग्यात्मक थी. उनमें से एक ने तो बहुजन व्याख्याकारों को अनपढ़-सा और सनसनी फैलाने वाला बता दिया था. अगर संघ परिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति वामपंथी राजनीतिक विपक्ष और उससे जुड़े बुद्धिजीवी वर्ग का भिन्न दृष्टिकोण था, यह उनकी अपनी सामाजिक और जाति-स्थिति का सूचक था.
हिंदी प्रदेश के बुद्धिजीवी की वैचारिक जड़ता
हिंदी के बुद्धिजीवी की वैचारिक जड़ता इस क्षेत्र के पतन की सबसे बड़ी वजह है. इसका एक प्रसंग साहित्यकार प्रेम कुमार मणि ने अपनी आत्मकथा में लिखा है. 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाने के बाद पटना में प्रगतिशील लेखकों ने एक सभा में कहा कि हमने धार्मिक फासीवादियों को हरा दिया है,अब हमें जातिवादी फासीवादियों को हराना है. वे ऐसा लालू प्रसाद और मुलायम सिंह आदि के बारे में कह रहे थे,जिनकी बड़ी भूमिका अटल बिहारी वाजपेयी को हराने में थी. गौर करें, इन लेखकों की संबद्धता जिन राजनीतिक दलों से थी,वे सब यूपीए का हिस्सा थे.
आज जब सामाजिक न्याय के बिगुल से हिंदुत्व का विकल्प तैयार किया जा रहा है,कांग्रेस और राहुल गांधी इसके लिए बार-बार ‘वाचिक प्रतिबद्धता’ जाहिर कर रहे हैं, तब हिंदी के सवर्ण बुद्धिजीवियों की जड़ता मिटी नहीं है.
बिहार में वामपंथी दलों ने अपने सांसद उम्मीदवार ओबीसी और दलित जमातों से तय किए हैं, लेकिन इन दलों से संबद्ध जन संस्कृति मंच से जुड़े दो लेखकों- रविभूषण और मदन कश्यप, को इसके विपरीत बात करते हुए सुना गया. मुजफ्फररपुर में 2-4 नवंबर, 2023 को अभिधा प्रकाशन द्वारा आयोजित एक सेमिनार के एक सत्र में एक महिला लेखक और सत्र-संचालक के सवाल पर कि आलोचना में महिला क्यों नहीं जगह पाती हैं, इन लेखकों ने कहा कि ‘आज आप महिला की बात कर रही हैं, कल दलित और आदिवासी, ओबीसी की बात करेंगी.’
राहुल गांधी जिस वक्त सामाजिक न्याय के जरिये हिंदुत्व की काट तय करना चाहते हैं, उस वक्त कांग्रेस से जुड़े पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे बुद्धिजीवी ‘वैष्णव राष्ट्रवाद’ का सिद्धांत दे जाते हैं. 31 जुलाई 2016 को ‘हंस’ द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती में बोलते हुए विष्णु पुराण से किसी श्लोक को उद्धृत कर पुरुषोत्तम अग्रवाल बताते हैं कि भारत में राष्ट्रवाद की संकल्पना प्राचीन है, हमारे पुराणों में है. यह वक्तव्य सॉफ्ट हिंदुत्व के तर्क की तरह प्रतीत होता है, जो शशि थरूर की भी याद दिलाता है.
अगस्त 2019 में प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के संस्थापक सज़्ज़ाद ज़हीर की बेटी और प्रसिद्ध लेखिका व प्रलेस की सदस्य रही नूर ज़हीर ने प्रलेस में स्त्रियों की भागीदारी का सवाल उठाया तो उन पर प्रगतिशील लेखक संघ पर काबिज लोगों और उनके समर्थकों ने हमला बोल दिया. नूर ज़हीर स्त्रियों और दलित-ओबीसी के प्रतिनिधित्व का सवाल उठा रही थीं. अपने संगठन में डायवर्सिटी के अभाव का सवाल उठा रही थीं. नूर ज़हीर विभूति राय को उनकी जाति सहित सवर्णों की एक लॉबी द्वारा प्रलेस पर काबिज करवाए जाने पर सवाल उठा रही थीं.
जब राजनीतिक दल, राजनेता और छात्र संगठन 10 सालों से आरएसएस के हिंदुत्ववादी वर्चस्ववाद के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, तब हिंदी का कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी, साहित्यकार और संस्कृति कर्मी जाति वर्चस्व, अपने प्रिविलेज को खोने के डर और दुविधा में क्यों फंसा है?
कवि-नौकरशाह अशोक वाजपेयी ने दलित लेखक संघ के एक कार्यक्रम (2015) में कहा था कि ‘ हम सांप्रदायिकता को बेहद सीमित करके आंक रहे थे. इसमें उपेक्षितों की बात भी शामिल होना जरूरी है. हमें दलित उत्पीड़न को भी असहिष्णुता के दायरे में लेकर चलना होगा.’ दिसंबर 2022 में पटना में उन्होंने साहित्यिक पत्रकार अरुण नारायण से कहा कि ‘डायवर्सिटी का क्या हमने ठेका ले रखा है?’ यही दुचित्तापन है. संघर्ष और प्रिविलेज बचाने के भय का द्वंद्व है. क्या दलित या स्त्री उत्पीड़न की वजहें असहिष्णुता हैं? या आर्थिक, सांस्कृतिक वर्चस्व की चाहत है, सांस्कृतिक अनुकूलन के तर्क हैं.
ओबीसी और दलित समुदाय हिंदुत्व के रथी नहीं
आज उत्तरप्रदेश में अधिकांश सवर्ण मतदाता भाजपा के साथ खड़े हैं. ओबीसी और दलित जातियां इतनी बड़ी संख्या में सांप्रदायिक शक्तियों के साथ चुनावी समर्थन में नहीं आई हैं. यह भी कहा जाता है कि पिछले दशक में तमाम निचली जातियां भाजपा की ओर गई हैं.
मसलन, लोकनीति-सीएसडीएस के इस सर्वेक्षण के अनुसार 2017 से लेकर 2022 के बीच उत्तर प्रदेश में जाटव का भाजपा के लिए वोट आठ प्रतिशत से इक्कीस प्रतिशत यानी लगभग तिगुना हो गया, अन्य अनुसूचित जातियों का बत्तीस प्रतिशत से इकतालीस प्रतिशत हो गया. अन्य ओबीसी का बासठ से छियासठ प्रतिशत हो गया. यानी ये जातियां अपनी पारंपरिक पार्टियां छोड़कर भाजपा के पास जा रही हैं.
लेकिन मैं यह मानता हूं कि यह हिंदुत्व की शिफ्टिंग नहीं है. मसलन, बिहार में अति-पिछड़ी जाति और महादलित भाजपा के पास हिंदुत्व प्रोजेक्ट के कारण नहीं जा रहे हैं. रामदास अठावले मुंबई या पश्चिम महाराष्ट्र में कुछ मतों का स्थानांतरण करा सकते हैं, लेकिन वहां बौद्ध पूरी तरह हिंदुत्व विरोधी हैं.
सवर्णों ने इस विमर्श को केंद्र में ला दिया है कि ओबीसी और दलित हिंदुत्व के रथी हो गए हैं. यह विमर्श इस तथ्य को कमजोर करना चाहता है कि ऊंची जातियां हिंदुत्व का केंद्र हैं, उसे विचार और ताकत देती है. आज भाजपा यदि अपने विस्तार के अंतिम बिंदु पर दिखाई देती है तो उसकी वजह यह है कि उसे गैर-ब्राह्मण समूहों में अपेक्षित विस्तार हासिल नहीं हुआ है. अगर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां व बुद्धिजीवी ईमानदारी से इन जातियों के प्रतिनिधित्व का प्रयास करें, तो भाजपा का हिंदुत्व अभियान ढह जाएगा.
इसलिए सवर्ण बुद्धिजीवियों से समाज खुद को जोड़ नहीं पाता. उनके व्यवहार में और भाषणों में फर्क दिखाई देता है.
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय,आईसीसीआर,आईसीएचआर आदि से संबद्ध सीएसडीएस,सीडब्ल्यूडीएस जैसी संस्थाएं, जहां उदार अथवा प्रगतिशील बौद्धिक नेतृत्व का दबदबा है, अपने यहां आरक्षण के नियमों का पालन नहीं करती रही हैं, अपने यहां प्रतिनिधित्व के सवाल पर बेहद अगंभीर, बेईमान,और अनुदार दिखती हैं.
एक ओर आरएसएस से जुड़े साहित्यकार, बुद्धिजीवी (प्रायः सवर्ण) साहित्यिक, सांस्कृतिक अकादमिक स्पेस के भगवाकरण में उत्साहपूर्वक लगे हैं तो दूसरी ओर हिंदी के सवर्ण प्रगतिशील बुद्धिजीवी पत्रकार संसाधनों पर काबिज होना चाहते हैं.
वे प्रतिपक्ष की सत्ता के दौरान भी अपना वर्तमान और भविष्य सुनिश्चित करने में लगे हैं. वर्तमान ‘फासीवादी ताकतों’ से मुकाबले की भंगिमा में रहते हुए वे सामजिक न्याय के प्रश्नों को स्थगित रखना चाहते हैं. यह सही है कि 1990 में मंडल की धमक के साथ भाजपा ओबीसी, अति पिछड़ी जातियों सहित अन्य जातियों को हिंदुत्व की मशाल थमाने लगी. लेकिन उसे आज भी पर्याप्त सफलता नहीं मिली है और इन जमातों से मिले वोट की वजह टिकट बंटवारा और सोशल इंजीनियरिंग है न कि हिंदुत्व.
हिंदी का प्रगतिशील सवर्ण बुद्धिजीवी आज भी भाईचारा आयोजनों को ब्राह्मण-अशराफ मेलावा के दायरे में रखना चाहता है. जातिवाद से लड़े बिना या ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक हेजेमनी के विकल्प से परहेज कर हिंदुत्ववादी एजेंडा के खिलाफ कोई संघर्ष संभव है?
(लेखक ‘स्त्रीकाल’ के संपादक हैं.)