भाजपा और इतिहास पुनर्लेखन: इस बार प्लासी की लड़ाई केंद्र में आई

भाजपा प्रत्याशी अमृता रॉय कहती हैं कि ‘सनातन धर्म’ की रक्षा के लिए प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की पराजय ज़रूरी थी. उन्हें शायद नहीं मालूम कि रवींद्रनाथ टैगोर ने कभी सिराजुद्दौला की 'बहादुरी और सादगी' और 'विनम्रता' का उल्लेख किया था.

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(बाएं) कृष्णानगर सीट से भाजपा प्रत्याशी अमृता रॉय और टीएमसी उम्मीदवार महुआ मोइत्रा (दाएं) (बीच में) प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश सेना. (फोटो साभार: फेसबुक/Wikipedia)

इतिहास पुनर्लेखन का एजेंडा आगे बढ़ाने की दक्षिणपंथी झलक पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों के दौरान भी दिखाई दे गयी. कृष्णानगर जैसी प्रतिष्ठित सीट- जहां टीएमसी की महुआ मोइत्रा प्रत्याशी के तौर पर खड़ी हैं – से उतरीं भाजपा प्रत्याशी अमृता रॉय ने प्लासी की लड़ाई पर विवादास्पद बयान दिया है कि ‘सनातन धर्म’ की रक्षा के लिए सिराजुद्दौला की पराजय जरूरी थी.

उनके बयान को समझने से पहले इतिहास के पन्ने पलट लेने चाहिये. 1757 की प्लासी की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी के राॅबर्ट क्लाइव द्वारा रची साजिश का शिकार बंगाल के आखिरी स्वतंत्र नवाब सिराजुद्दौला  हुए थे, जब उनके विश्वासपात्र मीर जाफर ने उनके साथ विश्वासघात किया था. प्लासी की इस हार ने समूचे हिंदुस्तान पर ब्रिटिश वर्चस्व का रास्ता खोल दिया था.

गौरतलब है कि अमृता रॉय, जिन्हें रानी मां नाम से भी जाना जाता है, का विवाह मीर जाफर के सहयोगी रहे राजा कृष्ण चंद्र राॅय के वारिस के साथ हुआ है.

बंगाल, बिहार और उड़ीसा तक फैले अपने राज को संभाल रहे नवाब सिराजुद्दौला ने ईस्ट इंडिया कंपनी के इरादों को बहुत पहले समझ लिया था और बाकायदा कोलकाता के फोर्ट विलियम- जहां ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय था- पर चढ़ाई की थी और यह नियंत्रण छह माह से अधिक समय तक बना रहा था.

उनकी दूरदर्शिता का एक प्रमाण यह भी है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उन्होंने हुगली नदी के पास चंदननगर में अपनी काॅलोनी बना चुकी फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भी हाथ मिलाने की कोशिश की थी. बमुश्किल चौबीस साल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी की हार के चंद दिनों बाद मीर जाफर के बेटे मीर मरान ने मौत के घाट उतार दिया था. मीर जाफर को अंग्रेजों की सेवा करने के एवज में कुछ समय तक नवाब बनाया गया था.

अगर आप मुर्शिदाबाद स्थित सिराजुद्दौला के मकबरे पर जाएं तो पाएंगे कि सभी समुदायों के लोग उनकी कब्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, और बाहर आकर पास में स्थित मीर जाफर के मकबरे पर पत्थर फेंकते हैं.

मीर जाफर के वारिस ही नहीं बल्कि उनके सहयोगियों के वारिस भी आज भी गद्दारी के उस धब्बे से मुक्त नहीं हुए हैं. अब जानिए कि कौन थे उनके सहयोगी?

ये थे जगत सेठ, अमीर चंद, और कृष्णा नगर की रियासत के जमींदार रहे राजा कृष्ण चंद्र रॉय. अब अमृता रॉय अपने पति के खानदान के पूर्वज को क्लीन चिट देने की कोशिश कर रही हैं. अमृता रॉय और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुए वार्तालाप के जारी हुए ऑडियो टेप इस बात की ताईद करते हैं.

बातचीत से पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने ‘महाराजा कृष्ण चंद्र की विरासत की बात की’ और बताया कि अपने बचपन से उन्हें ‘कृष्ण चंद्र राॅय के समाज सुधार कार्यों तथा विकास कार्यों के बारे में पढ़ाया गया है’. प्रधानमंत्री मोदी अमृता राॅय से कहते हैं कि जो आलोचक उन्हें ‘गद्दार’ कह रहे हैं, उनसे वह हतोत्साहित न हों.

वैसे राजा कृष्ण चंद्र राॅय जैसे मीर जाफर के सहयोगियों को महिमामंडित करने की और नवाब सिराजुद्दौला को बदनाम करने की भाजपा की कवायद देखकर आश्चर्य नहीं होता.

यही कवायद टीपू सुल्तान को लेकर भी दिखाई देती है. जबकि सच यह है कि नवाब सिराजुद्दौला और टीपू सुल्तान के जीवन में काफी समानता दिखती है. दोनों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के इरादों को समझ लिया था और अपने ‘साझा दुश्मन’ के खिलाफ फ्रांसीसियों को साथ लेने की कोशिश की थी. दोनों के साथ उनके करीबियों ने ही धोखा किया. अगर नवाब सिराजुद्दौला मीर जाफर की गद्दारी का शिकार बने तो मीर सादिक ने टीपू सुल्तान के साथ विश्वासघात किया.

दिलचस्प है कि अमृता रॉय इतिहास के इस अध्याय को फिर से लिखना चाहती हैं. ‘प्रत्येक बंगाली और प्रत्येक भारतीय इस पर सहमत होगा कि मेरे परिवार के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है वह एकदम झूठ है. यह कहा जा रहा है राजा कृष्ण चन्द्र रॉय ब्रिटिश राज्य के साथ मिल गये थे. ऐसा उन्होंने क्यों किया? सिराजुद्दौला द्वारा हो रहे उत्पीड़न की वजह से… अगर उन्होंने यह नहीं किया होता, क्या सनातन धर्म बच पाता?’

इस ऐतिहासिक झूठ के बरअक्स अमृता रॉय को रवींद्रनाथ टैगोर के आकलन को पढ़ना चाहिए. गौरतलब है कि रोसिका चौधरी की किताब की समीक्षा में टैगोर ने सिराजुद्दौला की ‘बहादुरी और सादगी’ और ‘विनम्रता’ का उल्लेख किया था.

यह भी याद करें कि अंग्रेज हुकूमत की हिमायत करने वाले और उनके द्वारा उपनिवेशों की जनता के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का गुणगान करने वाले इतिहासकार ब्रूस मैलेसन अपनी किताब ‘द डिसीजिव बैटल्स ऑफ इंडिया फ्राॅम 1746 टू 1849’ में लिखते हैं,

‘सिराजुद्दौला की जो भी कमियां रही हों, उन्होंने कभी अपने मुल्क के साथ धोखा नहीं किया और न कभी उसे बेचा… सिराजुद्दौला का कद (रॉबर्ट) क्लाइव से कहीं ऊंचा ठहरता है.’

ऐसी हस्ती को आज भाजपा अपने छिछले चुनावी अभियान के तहत बदनाम कर रही है.

(सुभाष गाताडे वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं.)