जवाहरलाल नेहरू(1889-1964) को दिवंगत हुए 60 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में एक बार फिर वापस आ गए हैं. उनकी गाहे-बगाहे आलोचना की गई है तो कभी-कभी जान बूझकर उनके व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालने के प्रयास किए गए हैं. लेकिन अपने जीवन और विचार में बहुत ही पारदर्शी रहे नेहरू बार-बार पहले से ज्यादा दूरद्रष्टा, करुणा और विवेक संपन्न नज़र आते हैं.
वास्तव में अंग्रेज़ी उपनिवेश से अथक संघर्ष करते हुए जिस भारत का निर्माण स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने बीसवीं शताब्दी के पहले पचास वर्षों में किया था, उसको सबसे मानवीय रूप में यदि कोई प्रकट करता है तो वे नेहरू हैं.
नेहरू के एक महत्त्वपूर्ण जीवनीकार माइकेल ब्रीचर ने ‘नेहरू: राजनीतिक जीवनचरित’ में लिखा है कि:
‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत क्रांति की अवस्था में है. और यह भी असंदिग्ध है कि नेहरू उसके दार्शनिक, पथ-प्रदर्शक, उसके स्वर और वस्तुतः उसके प्राण रहे हैं…भारतीय एकता के प्रतीक बने रहने के साथ ही, नेहरू ने 1947 से आंतरिक क्षेत्र में चार बड़ी उपलब्धियां की हैं- राजनीतिक सुस्थिरता और लोकतंत्र; योजनाएं; धर्मनिरपेक्ष राज्य; और सामाजिक सुधार.’
ध्यातव्य है कि यह जीवनी 1958 में प्रकाशित हुई थी और हिंदी में 1961 में इसे हरिवंशराय बच्चन ने अनूदित किया था. नेहरू की इन चार बड़ी उपलब्धियों के साथ जिस एक अन्य उपलब्धि की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह उनका सांस्कृतिक अवदान है.
नेहरू ने आज़ाद भारतवर्ष की एक समावेशी सांस्कृतिक काया विकसित करने में मदद की. उन्होंने विभिन्न प्रकार के साहित्य, भाषा, महाकाव्य, नृत्य, संगीत और संग्रहालयों को बनाने-संवारने की एक राष्ट्रीय पहलकदमी पेश की.
नेहरू भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अंग मानते थे. वर्ष 1956 में जब भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा महाभारत के तीन खंडों का प्रकाशन किया जा रहा था, तब उन्होंने कहा कि वे संस्थान की इस परियोजना के लिए और भंडारकर इंस्टिट्यूट के लिए कभी भी आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं होने देंगे. ने
हरू ने एक लेखक का जीवन जिया था और वे जानते थे कि लेखकों को किताबों से बहुत ज्यादा आय तो नहीं होती लेकिन उन्हें जीवन निर्वाह के लिए धन की आवश्यकता तो पड़ती है. 9 मार्च 1954 को अपने मुख्य निजी सचिव वीएन कौल को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वे लेखक जो दिक्कत में हो, उन्हें तुरंत सहायता दी जाए. इसके लिए एक समिति बनाई गई. वे खुद इसके अध्यक्ष बने, डॉ. राधाकृष्णन उपाध्यक्ष.
इसने लेखकों के लिए एक सलाहकार समिति बनाई जिसमें शिक्षामंत्री, वित्तमंत्री के साथ प्रधानमंत्री शामिल थे. इसमें कुछ लोग और शामिल हुए लेकिन यह समिति कोई काम आगे न बढ़ा सकी. इससे नेहरू नाराज हुए और कहा कि मामले को लालफीताशाही में न उलझा दें. और इसी के साथ उन्होंने इस बात पर हैरत जताई कि कुछ ऐसे लोग इस समिति में आ गए थे जिनको लेखकों की समस्याओं से कोई लेना देना नहीं था. इस समिति में केवल संसद सदस्य रखे गए थे. नेहरू ने सुझाव दिया कि इसमें लेखक भी शामिल किए जाएं.
वे लेखकों की समस्याओं से बेहद संवेदनशीलता से जुड़े रहते थे और उसका निराकरण करने का प्रयास करते थे. वे हिंदी के प्रतिष्ठित कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के लिए फिक्रमंद रहते थे और उन्हें यह भी ध्यान रहता कि जब उनकी सहायता की जाए तो कवि का मान भंग न हो.
शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद को भेजी गई एक टिप्पणी में उन्होंने लिखा कि दिल्ली स्थित अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के सम्मान में ‘निज़ामुद्दीन एक्स्टेंशन ईस्ट’ का नाम बदलकर रहीम नगर कर दिया जाए. इस टिप्पणी में नेहरू मौलाना साहब से कहते हैं कि ‘विभिन्न भाषाओं के विद्वान और हिंदी के महान कवि’ के प्रति यह हमारी श्रद्धांजलि होगी.
इसी तरह आज़ादी की पूर्व संध्या पर दिल्ली में ‘इंटर-एशियन कॉन्फ्रेंस’ का आयोजन हो रहा था. 23 मार्च 1947 से 2 अप्रैल 1947 तक चली इस कॉन्फ्रेंस में 28 एशियाई देशों ने भाग लिया था. इस कॉन्फ्रेंस में नेहरू ने ‘शांति, स्वतंत्रता और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए एशियाई बंधुता और मैत्री’ की जोरदार आपील की. अंतरराष्ट्रीय नेताओं, शासनाध्यक्षों के साथ इस कॉन्फ्रेंस को भारत का विद्वतजगत भी बहुत ही आशा भरी नज़र से देख रहा था.
नेहरू ने सलाह दी कि इस अवसर पर दिल्ली में एक प्रदर्शनी हो, जिसे वासुदेव शरण अग्रवाल ने हाथों-हाथ लिया. यह प्रदर्शनी ‘भारत के साथ एशिया की अंतरक्रिया और एशिया का पूरी दुनिया के साथ सांस्कृतिक संबंध’ पर आधारित थी. बाद में यही प्रदर्शनी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में परिवर्तित हो गई.
तो जब, 12 मई 1955 को राष्ट्रीय संग्रहालय के वर्तमान भवन की नींव रखी जा रही थी तो नेहरू ने संग्रहालयों को सीखने की एक जगह के रूप में चित्रित किया. वे संग्रहालय को एक जीवंत इकाई मानने पर जोर देते थे और उसे ‘अज़ायबघर’ कहने के ख़िलाफ़ थे. उनका मानना था कि ‘वास्तविक संग्रहालय तो वही होता है जो यह दिखाए कि मनुष्य ने किस प्रकार की उन्नति की है.’
वास्तव में 1950 के दशक में दिल्ली सहित देश के महत्त्वपूर्ण हिस्सों में एक रचनात्मक उठान आ गया था जब विभिन्न प्रकार की संस्थाओं का निर्माण किया गया अथवा पुरानी संस्थाओं का जीर्णोद्धार किया गया. इसी दौर में साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमियों की स्थापना हुई. विभिन्न शास्त्रीय और लोकनृत्यों को बढ़ावा देने की राजकीय योजनाएं आरंभ की गईं.
नेहरू सहित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जानते थे कि उपनिवेश उन देशों की जनता की चित्तवृत्तियों को ही बदल देने का प्रयास करते हैं जिन्हें वे गुलाम बनाते हैं. इसके बाद कोई देश किसी औपनिवेशिक देश की आदतों में सुख महसूस करने लगता है. वह उनकी हर तरह से नक़ल करने का प्रयास करता है और अपनी सौंदर्य दृष्टि को कुंद कर देता है.
13 जनवरी 1962 को वाराणसी में भारतकला भवन में दिया गया उनका भाषण कई दृष्टियों से मानीखेज़ है. उन्होंने भारत कला भवन के संस्थापक राय कृष्णदास की खूब प्रशंसा की और कहा कि संग्रहालय शहरों और विश्वविद्यालयों के अभिन्न हिस्से होने चाहिए. वे अपना भाषण अंग्रेज़ी में दे रहे थे कि श्रोताओं के बीच से ही वासुदेव शरण अग्रवाल की पर्ची आई कि आप अपनी बात हिंदी में रखें. इसके बाद नेहरू ने बिना किसी हिचक और झेंप के अपनी बात हिंदी में रखी.
यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति पिछले 15 वर्षों से भारत देश का प्रधानमंत्री हो, उसे उस दौर में एक प्रोफ़ेसर पर्ची थमा सकता था और वह उसकी ‘आज्ञा’ मान भी लेता था. हां, तो इसके बाद हिंदी में बोलते हुए नेहरू ने कहा कि ‘जब इस अंग्रेजी ज़माने में, अंग्रेजी में क्यों कहूं ख़ाली, अंग्रेजी जमाने से पहले भी ये मालूम होता है कि भारत में हमारी समझ सौंदर्य को पहचानने की बहुत कम हो गई थी, अंग्रेजी ज़माने में तो बिल्कुल ही तबाह हो गई वो, (हंसी), क्योंकि कोई हमारी चीज़ की तरफ से ध्यान भटका और नक़ली चीज़ें, असली नहीं, नक़ली अंग्रेजी चीज़ों को हम समझने लगे कि बड़ी अच्छी चीज़ है.’
1950 के दशक में 26 जनवरी की परेड के माध्यम से भारत ने अपनी विविधवर्णी विरासत को दुनिया के सामने प्रतिवर्ष प्रकट करने का निश्चय किया गया. 14 मार्च 1954 को नेहरू ने गणतंत्र दिवस परेड की समीक्षा करते हुए लिखा कि ‘एक पूर्णतया राष्ट्रीय त्योहार को जो लोकप्रियता अर्जित करनी चाहिए, वह गणतंत्र दिवस समारोह अर्जित कर रहा है.’
नेहरू इस परेड को विविधता में एकता की मिसाल के तौर पर प्रस्तुत करना चाह रहे थे और बिल्कुल उसके सूक्ष्म लेकिन भौतिक विवरणों पर ध्यान दे रहे थे. उन्होंने इस बात पर आश्चर्य जताया कि इस तरह के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम की पूरी रिकॉर्डिंग तक नहीं की जा रही थी और जिन लोकनृत्यों के वीडियो रिकॉर्डिंग की गई, वह भी आड़ी-तिरछी निकली.
1954 की गणतंत्र दिवस की परेड में कई लोकनृत्य प्रस्तुत हुए लेकिन नेहरू ने पाया कि जब यह लोकनृत्य हो रहे थे तो उसी समय रुसी बैले डांस भी हो रहे थे. इससे बचने के लिए उन्होंने स्पष्ट कहा कि विदेशी सांस्कृतिक दलों का स्वागत रहेगा लेकिन गणतंत्र दिवस परेड के अवसर पर उन्हें आगे से नहीं बुलाया जाएगा. वास्तव में नेहरू चाहते थे कि इस अवसर पर भारत अपनी पूरी सांस्कृतिक प्रभा के साथ प्रकट हो.
बनते हुए राष्ट्रों के लिए संस्कृति और विज्ञान की उन्नति बड़ा खर्चीला सौदा साबित होता है, विशेषकर उन देशों के लिए जो उपनिवेशवाद की लूट से आज़ाद हुए हों. 1950 के दशक में भारत में संस्था निर्माण के लिए तीन तरह के प्रयास किए गए: सरकारी, सामुदायिक और व्यक्तिगत. तीनों को धन की कमी आई और तीनों तरह के प्रयासों में सामूहिकता की भावना का सहारा लिया गया.
इसके अतिरिक्त सरकारी स्तर पर कम खर्चे से ज्यादा काम करने की भावना की भी व्यापकता उस समय विद्यमान थी. नेहरू ने पुराने भवनों को वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए प्रयुक्त करने पर जोर दिया था और उन्होंने 17 फरवरी 1951 को लखनऊ के छतरमंजिल में सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टिट्यूट (सीडीआरआई) की स्थापना करवाई.
मणिपुरी नृत्य को बढ़ावा देने के लिए एक भवन की आवश्यकता थी और नेहरू मणिपुर के चीफ़ कमिश्नर को भी लिख चुके थे कि यदि अभी कुछ न हो पा रहा हो तो किराये के एक भवन में ही मणिपुरी सहित अन्य लोकनृत्यों के लिए एक शुरुआत तो कर ही दी जाए. नेहरू ने नाखुशी जाहिर की कि हम लंबे-लंबे पत्र-व्यवहार करते हैं और करते कुछ नहीं.
वास्तव में नेहरू को एक अंग्रेज़ी किस्म की नौकरशाही मिली थी, जो कागजों का पेट भरने में ज्यादा यकीन करने लगी थी और एक दौर आया कि यह लालफीताशाही भारी पड़ने लगी. फिलहाल, यहां नेहरू युगीन नौकरशाही पर कोई लंबी टिप्पणी करने का उचित अवसर नहीं है लेकिन नेहरू हर वह कोशिश कर रहे थे जिससे भारत की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित किया जा सके, उसे आने वाली पीढ़ी को सौंपा जा सके.
उन्होंने अमृता शेरगिल के चित्रों को सुरक्षित करने के जतन किए. अमृता शेरगिल की असमय मृत्यु के बाद उनके चित्रों को खरीदने के बारे में उन्होंने 12 जून 1949 को सी. राजगोपालाचारी को लिखा कि उनके चित्रों को हासिल किया जाना चाहिए.
ध्यातव्य है कि अमृता शेरगिल की 5 दिसंबर 1941 को मृत्यु हो गई थी और उनके पति विक्टर एगन उनके चित्रों की कुछ कीमत लिए बिना देना नहीं चाहते थे. नेहरू ने राजगोपालाचारी को लिखा कि 50,000 रुपये इसके लिए बहुत ज्यादा नहीं होंगे और यदि उन्हें बाज़ार में अलग-अलग बेच दिया जाए तो इससे ज्यादा ही कीमत मिल जाएगी. उनके पिता के भी पास अमृता के चित्र थे जिसे हासिल किया जाना था.
इसके ठीक पंद्रह दिनों के बाद नेहरू ने अमृता के पिता सरदार उमराव सिंह को खत लिखा और इच्छा व्यक्त की कि उन्हें राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा जाएगा. बाद में वे चित्र नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में रखे गए. इस खत में उन्होंने यह भी लिखा कि ‘अमृता के चित्र राष्ट्रीय धरोहर हैं और हम उनसे वैसा ही सुलूक करना चाहते हैं.’
नेहरू ने पहाड़ों, पर्वतों और नदियों से निर्मित हुए भूभाग को इसके निवासियों के जीवन-व्यवहार और स्मृतियों में खोजा. ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के शुरुआती पृष्ठों में नेहरू अपनी ‘आत्मकथा’ के बारे में बताते हैं कि वे चाहते थे कि उनकी पत्नी पत्नी कमला उनकी आत्मकथा को पढ़ पातीं जिसे उन्होंने भुवाली सैनिटोरियम में पहले ही सुना रखा था लेकिन अब वे उनके साथ एक टोकरी में रखे हुए एक अस्थि कलश के रूप में मौजूद थीं! बगदाद पहुंचकर उन्होंने अपने प्रकाशक को टेलीग्राम भेजा कि अब उस आत्मकथा को कमला को समर्पित कर दिया जाए. इसके बाद वे इलाहाबाद आए.
नेहरू लिखते हैं: ‘हमने (कमला की) अस्थियां उस महान नदी के अंतस्थल में उड़ेल दीं. न जाने हमारे कितने पूर्वजों की अस्थियां मंथर गति से बहने वाली गंगा समुद्र तक ले गई है और भविष्य में भी ले जाएगी.’
लगभग दो दशक बाद 21 जून 1954 उन्होंने जब अपनी वसीयत प्रकाशित की लिखी तो उसमें एक बार फिर लिखा था: ‘गंगा भारत के लोगों की प्रिय की नदी है, जिसके चारों ओर उसकी प्रजातीय स्मृतियां, उसकी आशाएं और उसके भय, उसके उत्साह के गीत, उसकी जीत और उसकी हार जुड़ी हुई है. वह भारत की युगों पुरानी संस्कृति और सभ्यता की प्रतीक रही है जो सदैव परिवर्तनशील, प्रवाहमयी रही है…’
जब भी भारत के अतीत और भविष्य पर बात होगी तो नेहरू के वैचारिक खुलेपन की याद आएगी. एक आरंभिक हिचक के बाद देश को उस दिशा में बढ़ना होगा जिसकी तरफ़ नेहरू जाना चाहते थे- समावेशी और उदार भारत की तरफ़.
(रमाशंकर सिंह इतिहासकार हैं. हाल ही में उनकी ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नामक किताब प्रकाशित हुई है.)