शहरी प्रशासनिक इकाई के शीर्ष पर भाजपा का काबिज़ होना कोई नयी बात नहीं है. भाजपा के वोट शेयर के नुकसान की असली कहानी बाकी दोनों स्तरों पर दिखाई देती है.
बीते दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव परिणाम को देश के मूड को मापने का पैमाना बताया. अगर इसे सच मान लिया जाये तो स्पष्ट रूप से देश का मूड आने वाले चुनावों में भाजपा को पहले कम से वोट और सीटें देने का है.
उत्तर प्रदेश के शहरी प्रशासन निकायों में तीन स्तरों पर पड़े वोटों के आंकड़े को फौरी तौर पर देखें तो पता चलता है कि भाजपा का वोट शेयर इस साल की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव के मुकाबले 10-12 प्रतिशत अंक नीचे आ गया है.
शाह ने यह भी कहा कि उप्र निकाय चुनाव परिणामों का असर आने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव पर भी पड़ेगा. साथ ही अमित शाह ने यह भी दावा किया कि ये नतीजे नोटबंदी और जीएसटी को मिला समर्थन दिखाते हैं. कहीं शाह अपनी पार्टी की ‘पीआर’ टीम द्वारा किये गये प्रचार में तो नहीं बह गए, जो केवल ऊपरी पदों (नगर निगम के मेयर) के नतीजों के आधार पर भाजपा के ‘क्लीन स्वीप’ का दावा कर रही है? ज्ञात हो कि भाजपा को मेयर के 16 पदों में से 14 पर सफलता मिली है.
निचली दो प्रशासनिक इकाइयों, जिसमें नगर पालिका और नगर पंचायत परिषद के प्रमुख के पद का चुनाव होता है, वहां भाजपा के वोट शेयर में विधानसभा चुनाव की तुलना में खासी गिरावट आई है, जबकि इन दोनों में वोटरों की संख्या कहीं अधिक होती है. तो अगर शाह के कहे अनुसार गुजरात में ऐसे ही नतीजे आते हैं तो ये भाजपा के लिए शर्मिंदगी की वजह बन सकते हैं.
इसलिए भाजपा अध्यक्ष को बस ये उम्मीद करनी चाहिए कि उप्र निकाय चुनाव का यह पैटर्न गुजरात में दोहराया न जाये.
शुरुआत से समझे तो उप्र निकाय चुनाव के नतीजों को भाजपा का ‘क्लीन स्वीप’ नहीं कहा जा सकता, जैसा शुरुआती आंकड़े आते ही कई टीवी चैनलों द्वारा बताया जा रहा था. ये आंकड़े इस बात को और स्पष्ट करेंगे.
नगर निकाय चुनाव में सभी स्तरों पर प्रशासनिक इकाई के प्रमुख के कुल 652 पदों के लिए हुए चुनाव में भाजपा को 30% से भी कम वोट मिले. इन 652 में भाजपा को 184 पद मिले, जहां 16 मेयर, 198 नगर पालिका अध्यक्ष और 438 नगर पंचायत प्रमुख हैं.
जहां भाजपा को शीर्ष पदों यानी निगमों के प्रमुख के चुनाव में 85% से अधिक जीत दर्ज की, वहीं तीसरे यानी सबसे निचले स्तर पर इसका रिकॉर्ड बेहद ख़राब रहा. नगर पंचायतों के प्रमुख के चुनाव में सबसे आगे निर्दलीय उम्मीदवार रहे, जिन्हें 438 में से 182 सीटों पर कब्ज़ा किया. भाजपा को 100, समाजवादी पार्टी को 83, बहुजन समाज पार्टी को 45 और कांग्रेस को 17 सीटें मिलीं.
इससे एक पायदान ऊपर यानी नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव में भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन यहां उसका वोट शेयर साल की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव के मुकाबले तकरीबन 42% कम रहा.
यहां गौर करने वाला पहलू यह भी है कि इन दोनों निचली प्रशासनिक इकाइयों के चुनाव में भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारी नुकसान हुआ. शामली, बागपत, मुज़फ्फरनगर, मेरठ में यह नुकसान स्पष्ट दिखता है. हिंदू ध्रुवीकरण की राजनीति की जो कोशिश खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अयोध्या से चुनावी अभियान शुरू कर की गयी थी, उसका कोई खास असर दिखाई नहीं देता.
यहां याद रखना ज़रूरी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को करीब 44% वोट मिले थे. मेरठ और अलीगढ़ में मेयर की सीट बसपा के खाते में आई है.
विधानसभा चुनाव के मुकाबले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट शेयर 10 फीसदी से ज्यादा गिरा हो सकता है. यह तथ्य इस जाट बाहुल्य किसान बेल्ट में बीते महीनों में भाजपा सरकार से किसानों के मोहभंग के चलते महत्वपूर्ण हो जाता है. एक अनुमान के अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगर पंचायत परिषद चुनाव में भाजपा का वोट शेयर लगभग 25% तक गिरा है, जो एक बड़ा नुकसान है.
अगर इन आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो अमित शाह बमुश्किल ही उप्र निकाय चुनाव के नतीजों को जीएसटी और उनकी पार्टी को मिला समर्थन बता सकते हैं.
वास्तव में जैसा शाह का कहना है कि ये आंकड़े देश का मूड दिखाते हैं, तब विपक्ष के पास असल में ख़ुशी मनाने की वजह है. लेकिन भाजपा के नेता शायद मीडिया के ‘क्लीन स्वीप’ वाले भुलावे में ही रहना चाहते हैं. निकाय चुनाव के परिणाम के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दिल्ली आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलना अपनी जीत को दिखाना ही था.
मोदी भले ही कैमरे के सामने इस जीत पर अपनी खुशी ज़ाहिर करें पर शहरी प्रशासनिक इकाई के शीर्ष पद पर भाजपा का काबिज़ होना कोई नयी बात नहीं है. ये बात आंकड़े भी दिखाते हैं. भाजपा के वोट शेयर के नुकसान की असली कहानी बाकी दोनों स्तरों पर दिखाई देती है.
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