बिहार: साढ़े तीन दशक बाद सीपीआई (माले) ने अपने गढ़ आरा में जीत हासिल की है

बिहार में 'इंडिया' गठबंधन के साथ मिलकर सीपीआई (माले) ने तीन सीट पर चुनाव लड़ा था- आरा, काराकाट और नालंदा. पार्टी इनमें से दो सीट जीतने में कामयाब रही.

(फोटो साभार: फेसबुक/@cpimlliberation)

आरा: साढ़े तीन दशक बाद सीपीआई (माले) ने अपने गढ़ आरा में चुनाव जीत लिया है, उनके प्रत्याशी सुदामा प्रसाद ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के आरके सिंह को हराया है. वर्ष 1989 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद सीपीआई आरा में लोकसभा का चुनाव कभी नहीं जीत पाई थी. 2008 में हुए परिसीमन के बाद से आरा लोकसभा सीट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास रही है. आरा लोकसभा के अंतर्गत सात विधानसभा क्षेत्र आते हैं, जिनमें से पांच पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेतृत्व वाले गठबंधन के विधायक हैं. आरके सिंह केवल आरा सदर विधानसभा में मात्र 8,271 वोट से आगे रहे. अपना गढ़ माने जाने वाले बड़हरा में वे 1,827 वोट के अंतर से पिछड़ गए. इस तरह सात विधानसभा क्षेत्रों में से छह में भाजपा पीछे रही.

इस सीट पर 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई (माले) ने राजू यादव को मैदान में उतारा था. उस समय राजद और कांग्रेस के साथ सीपीआई (माले) ने आरा से संयुक्त चुनाव लड़ने का फैसला किया था. इसके बदले में पाटलिपुत्र सीट पर सीपीआई (माले) ने सहयोग किया था. लेकिन तब पार्टी जीत पाने में नाकाम रही. उसे करीब डेढ़ लाख वोट के अंतर से करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. तब भी भाजपा की ओर से आरके सिंह ही मैदान में थे.

इस बार बिहार में ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ मिलकर सीपीआई (माले) ने तीन सीट पर चुनाव लड़ा था – आरा, काराकाट और नालंदा. काराकाट से पार्टी प्रत्याशी राजाराम सिंह चुनाव जीत गये हैं. नालंदा से पार्टी ने पालीगंज के विधायक संदीप सौरव को उतारा था. वे जदयू के कौशलेंद्र कुमार से 1,69,114 वोट के अंतर से हार गए. पार्टी को आरा में 48.28 प्रतिशत, काराकाट में 36.89 प्रतिशत और नालंदा में कुल मतों का 34.11 प्रतिशत हासिल हुआ.

अभिनेता सुदामा प्रसाद 

वर्ष 1982 में सुदामा प्रसाद पढ़ाई बीच में छोड़कर सीपीआई (माले) के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए. उन्होंने सांस्कृतिक मोर्चे पर काम की शुरुआत की और सरकारी सांढ़, पत्ताखोर, कामधेनु, सिंहासन खाली करो जैसे नाटकों में अभिनय किया. वर्ष 1990 में पहली बार आरा विधानसभा से चुनावी मैदान में उतरे सुदामा प्रसाद ने 2015 के विधानसभा चुनाव में तरारी विधानसभा सीट पर पहली जीत हासिल की. बाद में 2020 के विधानसभा चुनाव में भी जीते. 1979 से 83 तक सांस्कृतिक संगठन में सक्रियता के बाद वे 1984 में भोजपुर-रोहतास ज़िले के आईपीएफ (इंडियन पीपल्स फ्रंट) के सचिव चुने गए.

सुदामा प्रसाद. (फोटो साभार: फेसबुक)

1985 में भोजपुर के किसान आंदोलन के दौरान मारे गए कामरेड जीउत-सहतू की श्रद्धांजलि सभा के दौरान पुलिस रेड में वे पहली बार गिरफ्तार हुए और जेल जाना पड़ा. भागलपुर सेंट्रल जेल में उन्होंने लगभग 22 दिन काटे.

इसके बाद एकवारी में कामरेड बैजनाथ चौधरी की हत्या के खिलाफ आयोजित सभा में प्रतिवाद करने के बाद वे 1989 में दूसरी बार जेल गए. इस दौरान लगभग 31 महीने जेल में रहे. जेल में रहते हुए ही उन्होंने आरा विधानसभा से आईपीएफ के बैनर तले पहला चुनाव लड़ा और 29,000 से अधिक वोट हासिल किए.

ज़मीन से कटे आरके सिंह?

भाजपा के एक पूर्व विधायक का कहना है कि वर्ष 2014 में चुनाव जीतने के बाद आरके सिंह ने कभी भी जिला कमेटी के साथ कोई बैठक नहीं की थी. वर्ष 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में आरा लोकसभा के अंतर्गत आने वाले विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवारों के चुनावी प्रचार में नहीं गए, जबकि उन्हें पूरा रोडमैप बनाकर दिया गया था. वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. एकाध जगहों को छोड़कर आरके सिंह कभी भी चुनाव प्रचार में नज़र नहीं आए.

चुनाव की घोषणा के बाद आरके सिंह ने एबीपी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में हंसते हुए कहा था, ‘आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हम आरा नहीं भी जाएं तो आसानी से चुनाव जीत जाएंगे.’ उन्होंने आगे कहा था कि आरके सिंह का पूर्व या वर्तमान विधायकों के साथ कोई समन्वय नहीं रहा. पार्टी के अधिकारियों से किसी तरह की बातचीत नहीं रही. बहुत सारे बूथ पर तो भाजपा का कोई कार्यकर्ता भी नहीं था.

काराकाट की लड़ाई 

काराकाट लोकसभा से सीपीआई (माले) ने ओबरा के पूर्व विधायक राजाराम सिंह को मैदान में उतारा था. 2009 में अस्तित्व में आने के बाद काराकाट लगातार एनडीए के कब्जे में रहा है. राजाराम पटना विश्वविद्यालय में क्रिएटिव स्टूडेंट्स यूनियन के संस्थापक अध्यक्ष और इंकलाबी नौजवान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं. वे जहानाबाद, औरंगाबाद और काराकाट से कई चुनाव लड़ चुके हैं.

उन्होंने आईपीएफ के राष्ट्रीय कार्यालय सचिव के रूप में भी कार्य किया. उन्होंने सोन नहर बचाओ संघर्ष समिति का नेतृत्व किया. छात्र आंदोलन के दौरान वे दो बार जेल गए और कई बार गिरफ्तार हुए. अस्सी के दशक में वह आईपीएफ के एक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे.

उन्होंने पहली बार 1985 में ओबरा विधानसभा से चुनाव लड़ा. लेकिन कामयाबी नही मिली. 1995 और 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने ओबरा से जीत हासिल की. वे बिहार विधानसभा में सीपीआई (माले) विधायक दल के उपनेता व विधानसभा की निवेदन व प्राक्कलन समिति के सदस्य भी रह चुके हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान राजाराम सिंह. (फोटो साभार: फेसबुक)

2 मई 2012 के दिन छोटू कुशवाहा मुखिया हत्याकांड के बाद राजाराम सिंह सहित मंच पर उपस्थित उन्नीस लोगों की बर्बर पिटाई करके अधमरी अवस्था में औरंगाबाद जेल में डाल दिया था. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसकी भर्त्सना की थी और प्रशासन पर जुर्माना भी लगाया था. लगभग तीन महीने जेल में रहने के बाद राजाराम सिंह बाहर आए थे.

इस लंबी यात्रा के बाद आज वह संसद जाने की तैयारी कर रहे हैं.