मोमिन (1800-1852 ईस्वी) की मशहूर ग़ज़ल ‘वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो’ को प्रायः हम मलिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर, ग़ुलाम अली या जगजीत सिंह की आवाज़ में सुनने के अभ्यस्त रहे हैं. कारण कि उपमहाद्वीप की मौसिकी किसी सरहद की मोहताज़ नहीं. कलाकार की कला सबकी साझी विरासत है और उसमें भी मोमिन की इस नज़्म के लफ़्ज़ भी इतने अधिक मार्मिक हैं कि दिल पर उसका असर होना लाज़िम है.
पर एक दिन यूं ही इस ग़ज़ल को सुनने की चाह में जब यूट्यूब ने अपने सुझावों में एक नई आवाज़ को इसे गाता हुआ दिखलाया तो यह महसूस हुआ कि कैसे कला की साधना बिना किसी भारी लोकप्रियता के भी कई लोग करते हैं और क्या खूब करते हैं.
एक शांत सौम्य चेहरा, सादा लिबास में एक भरे आयोजन में माइक पर मोमिन की इस नज़्म को हृदय की जिन अतल गहराइयों से गा रहा था वह अब तक सुने गए सारे संस्करणों से एकदम ही अलग था. राग जोग में बंधी हुई बंदिश गाती हुई नैयरा की तल्लीनता एक साधक की साधना से कम न थी. तब पहली-पहल नैयरा नूर और उनकी गायकी से औपचारिक परिचय हुआ.
मोमिन के लिखे शब्दों में तो अपना असर था ही पर यह नैयरा नूर की आवाज़ की कशिश थी जिसने इस ग़ज़ल में छुपे दर्द के रेशे-रेशे को खोल दिया था.
पाकिस्तान की धरती, संगीत के लिए इतनी उर्वर रही है कि यहां से निकली हर आवाज़ अपने पीछे एक पूरी विरासत छोड़ जाने का माद्दा रखती है. नैयरा नूर भी संगीत के आकाश में वह चमकता सितारा हैं जिसकी लोकप्रियता उनके सादा व्यक्तित्व से कहीं अधिक उनके सरल, उदात्त और आडंबर रहित गायकी की वजह से फैली. यहां व्यक्तित्व की बात इसीलिए कर रही हूं क्योंकि ग़ज़ल गायकी में बेग़म अख्तर, फ़रीदा ख़ानम जैसे दिग्गजों की लोकप्रियता उनके गायन के साथ-साथ उनके पुरकशिश व्यक्तित्व की वजह से भी बहुगुणित होती थी. मैडम नूरजहां भी गायकी के साथ ही अपनी खूबसूरती और आकर्षक व्यक्तित्व के लिए विश्व प्रसिद्ध थीं. पर बात जब नैयरा नूर की होती है तो उनकी गायकी का अक्स उनके सुनने वालों के सामने अधिक उभरता है.
उनका सौम्य व्यक्तित्व, लिबास की सादगी, ग़ज़ल कहने का डूबा हुआ अंदाज़, यह सब श्रोताओं के ध्यान को सिर्फ उनकी गायकी, उनके सुरों में खो जाने के लिए आमंत्रित करता है. इसलिए नैयरा संगीत की दुनिया में ख़ालिस गायकी की विशुद्धता की लिए विख्यात हैं.
उनकी गायकी ने कई बड़े शायरों को मौसीक़ी में ढाल कर उन्हें हमेशा के लिए अमर कर दिया पर, संगीत की दुनिया में उनका नाम उनके उस ग़ज़ल संग्रह के लिए सबसे पहले-पहल हुआ जिसे ‘नय्यारा सिंग्स फ़ैज़’ (Naiyyara sings Faiz) के नाम से हाथों हाथ लिया गया था.
फ़ैज़ के रुमान और इंकलाब दोनों ही को अपनी आवाज़ में समा पाने की क्षमता एक ऐसी आवाज़ जो न इक़बाल बानो की तरह बुलंद थी और न ग़ज़ल सम्राट मेहदी हसन की तरह ही शास्त्रीयता में पगी हुई, बड़ी बात थी. अपनी पतली और महीन आवाज़ में फ़ैज़ के नज़्मों में निहित संवेदना और विचार के भार को जिस खूबसूरती और आसानी से वह उठाती हैं, वह अभूतपूर्व है.
दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य के सबसे चर्चित शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के 65वें जन्मदिन के अवसर पर साल 1976 में यह एलबम जारी किया गया था. फैज़ ने इस अवसर पर न केवल उनके द्वारा गाए गए सभी ग़ज़लों को बड़े चाव से सुना बल्कि उन्हें अपने बगल में बैठने के लिए भी बुलाया. अपने एक साक्षात्कार में वह याद करती हैं कि कैसे फ़ैज़ ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए शाबाश कहा था. अपने फ़न के लिए इतना बड़ा ईनाम उन्हें ताउम्र याद रहा.
पर नैयरा नूर को जानने का सिलसिला इतने पर ख़त्म नहीं हो जाता. हर बार उनकी कुछ सुंदर ग़ज़लों को यूं ही अनायास ही कभी सुन लिया है और हर बार सुन कर उसके अब तक छिपे रहने की, न सुने जाने की कसक मन में उठती रही है. ऐसा ही कुछ हुआ जब उनके द्वारा गाई गई एक ग़ज़ल जिसे अख्तर शीरानी ने लिखा था यूं ही किसी दिन सुना.‘ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर’, न केवल एक सुंदर ग़ज़ल है जिसे लिखने वाले ने अपनी आत्मा को मानो उड़ेलकर रख दिया हो, पर इसे गाने में भी नैयरा ने अपनी जान लगा दी है.
जिस तरह एक-एक लफ़्ज़ को उसमें निहित भावों के साथ वह गाती हैं, लिखने वाले के दर्द के साथ ही गाने वाले के दिल की गहराई की भी थाह मिलती है. ग़ज़ल की एक पंक्ति, ‘ऐ इश्क़ ये कैसा रोग लगा, जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं’, में जिस बलाघात से ज़ालिम का उच्चारण वह करती हैं, अद्भुत है. सुनने वालों को नज़्म की संवेदना की स्पष्टता सुनाई दे जाती है.
पर नैयरा नूर की गायकी कभी भी जिसे लाइमलाइट कहते हैं, उसमें नहीं रही. कहा जा सकता है कि उनकी गायकी के महत्व को सबसे कम आंका गया. उन्हें पसंद करने वालों की तादाद भले अधिक हो पर व्यावसायिक सफलता और जनसमूह के दिलों पर राज करने वाली लोकप्रियता उनके हिस्से नहीं आई. संभवतः यह एक वजह हो सकती है कि उनकी गायकी के असर को उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में डूबकर ही पाया जा सकता है और यह डूबना अकस्मात ही हो सकता है.
देखा जाए तो इनकी गायकी से रू-ब-रू होना उस हीरे की खान का हाथ लग जाना है जो आम तौर पर कहीं गहरे में दबा रहता है, लोगों की आंखों से ओझल.अपनी इस अनूठी मिठास से भरी आवाज़ के लिए ही उन्हें बुलबुल-ए-पाकिस्तान कहा जाता है.
मूल रूप से हिंदुस्तान से संबंध रखने वाली नैयरा नूर के पिता स्वतंत्रता से पहले मुस्लिम लीग के सक्रिय कार्यकर्ता थे. बहुत पहले ही उनका परिवार अमृतसर से असम आ गया था और गोहाटी में ही नूर की पैदाइश और शुरुआती शिक्षा-दीक्षा हुई. उनके संगीत की यात्रा सबसे पहल-पहल, बेग़म अख्तर, कनन देवी, नूरजहां और लता मंगेशकर के संगीत से शुरू हुई.
स्वतंत्रता के बाद 1950 के दशक में पाकिस्तान आ जाने पर उनका दाखिला लाहौर के प्रसिद्ध नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स में हुआ और यहीं पर एक जलसे में उनकी गायकी पर एक बड़े नामचीन व्यक्ति की नज़र पड़ी. इस जलसे में वी. शांताराम की फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ में प्रयुक्त मीरा के भजन, ‘जो तुम तोड़ो पिया’ गाना गाकर नैयरा ने सबका मन मोह लिया था.
1973 में ‘सच गप’ नामक पाकिस्तानी टीवी कार्यक्रम में एक गायिका के रूप में अपनी पहली उपस्थिति के बाद, वह जल्द ही पाकिस्तानी संगीत उद्योग में सबसे अधिक पसंद की जाने वाली पार्श्व गायिकाओं में से एक बन गईं. कार्यक्रम का स्वरूप मूलतः एक परिचर्चा की तरह था जहां सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य के साथ, अंत में उनकी एक प्रस्तुति होती थी, जहां वह मीराजी, इब्ने इंशा, नासिर काज़मी, तासीर और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे आधुनिक उर्दू कवियों द्वारा लिखे गए कई नज़्मों को गाती थीं.
इस कार्यक्रम ने उन्हें एक महत्वपूर्ण गायिका के रूप में पाकिस्तानी संगीत और सिनेमा की दुनिया में स्थापित कर दिया. 1970 के दशक के बाद से उन्होंने बहुत लोकप्रियता हासिल की और तीन दशकों तक फिल्मों और टेलीविजन के लिए गायन किया. हालांकि, एक गायिका के रूप में उनकी मांग होने के बावजूद भी उन्होंने बहुत परिमाण में गाने नहीं गाए. सिनेमा की दुनिया में वह बहुत चयनात्मक थी और प्रायः इस उसूल के साथ आती थीं कि वह उनके साथ ही काम करेंगी जिनके काम में वस्तुतः संगीतात्मक गुणवत्ता हो. इसीलिए उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के बजाय संगीत की उत्कृष्टता के साथ ईमानदारी बरतने का कठिन कार्य किया.
हालांकि उन्होंने कई बड़े संगीतकारों जैसे रॉबिन घोष, खलील अहमद और अरशद महमूद के साथ काम किया.
नैयरा नूर की गायकी की अगर बात करें तो एक बात जो सबसे अधिक मुतासिर करती है वह यह है कि कैसे उनकी आवाज़, परंपरा से या युग के सामान्य प्रचलन से अलग थी. एक ऐसे दौर में जहां एक विशिष्ट किस्म की भारी या गहरी आवाज़ जो मंद्रसप्तक में सबसे अधिक खुलती थी, श्रोताओं में अधिक प्रचलित थी, नैयरा की आवाज़ पतली और ऊंची थी और तारसप्तक में अपनी छटा दिखलाती थी. यह अपने आप में उन्हें उस दौर की कई प्रचलित गायिकाओं से अलग करता था. आवाज़ की गुणवत्ता तो निस्संदेह एक नैसर्गिक घटना है पर, नैयरा की आवाज़ में मिश्री की तरह घुलती हुई मिठास का एक श्रेय उनके बचपन के प्रशिक्षण पर भी जाता है.
लता मंगेशकर को सुन-सुनकर बड़ी हुई नैयरा ने जो प्रभाव अवचेतन में ग्रहण कर किए थे, उनका असर उनकी गायकी पर दिखना लाज़मी था. यह संगीत पर उनकी जबरदस्त पकड़ का असर था कि वह कठिन नज़्मों को भी उसी कुशल सुगमता से गा लेती थीं.
सुप्रसिद्ध लेखक ज़ेहरा निगाह (1935) की एक सुंदर रचना को जिस भावप्रवणता के साथ उन्होंने गाया है, वह इस दृष्टि से उल्लेखनीय है.ज़ेहरा निगाह की यह रचना ‘बुलावा’ स्वयं ही एक खूबसूरत रचना है जिसके भाव उतने ही सुंदर और रहस्यात्मक हैं.
‘चलो उस कोह पर अब हम भी चढ़ जाएं
जहां पर जा के फिर कोई भी वापस नहीं आता
सुना है इक निदा-ए-अजनबी बाहों को फैलाए
जो आए उस का इस्तिक़बाल करती है
उसे तारीकियों में ले के आख़िर डूब जाती है
यही वो रास्ता है जिस जगह साया नहीं जाता
जहां पर जा के फिर कोई कभी वापस नहीं आता/
जो सच पूछो तो हम तुम ज़िंदगी भर हारते आए
हमेशा बे-यक़ीनी के ख़तर से कांपते आए
हमेशा ख़ौफ़ के पैराहनों से अपने पैकर ढांपते आए
हमेशा दूसरों के साए में इक दूसरे को चाहते आए
बुरा क्या है अगर उस कोह के दामन में छुप जाएं.’
बहरहाल, नैयरा की गायकी की एक बड़ी ख़ासियत यह थी कि उन्होंने कभी भी उसे अतिरिक्त शास्त्रीयता से अतिरंजित करके नहीं पेश किया. गीत की सरल और भावमयी अभिव्यक्ति से जो प्रभाव उत्पन्न किया जाता है वह भी श्रोताओं के हृदय को छू सकता है, यह हमें उनकी गायकी ने ही बतलाया है. यहां गीत को कठिन तानों और आलापों से सजाने की प्रवृत्ति से परहेज़ है. इसीलिए उनकी गायकी में भी वही सादगी है जो उनके व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ती है.
एक बेहद पारंपरिक छवि लिए हुए संगीत की साधना को पूरी तरह से स्टेज पर निभाती हुई नैयरा एक साधक अधिक लगती हैं न कि एक कलाकार. उन्हें मंच पर एक साधारण सी सलवार कमीज में, आंखों पर ऐनक चढ़ाए, बिना किसी शृंगार और अलंकरण के बस चंद पारंपरिक साज, तबला और हारमोनियम के साथ गायन करते हुए देखना और उन्हें सुनने वालों की तल्लीनता को देखकर लगता है कि हम किसी पुरानी सदी में पहुंच गए हों.
इसी कड़ी में उनके द्वारा गाया गया एक और गीत विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है. बहज़ाद लखनवी का प्रसिद्ध क़लाम ‘कहां हो तुम चले आओ, मोहब्बत का तक़ाज़ा है’, जब नैयरा अपनी भावपूर्ण आवाज़ में गाती हैं, तब न केवल गीत को एक नया अर्थ मिलता है बल्कि आज तक उसे आधार बना कर गायकों की नई पीढ़ी उसी धुन और अंदाज़ में गाती आ रही है. इस पूरे गीत में संगीत के द्रुत होने के बावजूद भी भावों को संप्रेषित करने में कोई जल्दी नहीं दिखलाई है गायिका ने.
एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर गाने का अर्थ ही यह है कि गाने वाले ने उसमें निहित अर्थ को समझकर उसे उसी प्रकार संप्रेषित करना चाहा है जैसा कि नज़्म को लिखने वाले ने महसूस किया था. इस गीत में भी कहीं भी हम अतिरिक्त अलंकरण की प्रवृत्ति या मुरकियों से नज़्म को बोझिल बना देने का कोई प्रयास नहीं देखते. सीधे सरल अंदाज में जिस प्रकार इस नज़्म को नैयरा गाती हैं वह सीधे हृदय में उतरता है. प्रेम में तड़पते हृदय की व्यथा को मानो गायिका ने अपनी वेदना के साथ सींचकर सार्वभौमिक कर दिया है.
नैयरा जिनकी पैदाइश हिंदुस्तान की थी और जिन्होंने अपनी अंतिम सांसे पाकिस्तान में ली, इन दोनों मुल्कों की साझी विरासत की उन गिनी चुनी कड़ियों में थी, जिन्हें दोनों ही देश के संगीत प्रेमियों ने तहे-दिल से प्यार दिया. उनके गुज़रने पर न केवल पाकिस्तान में बल्कि भारत में भी एक सांस्कृतिक क्षति को महसूस किया गया.
पर कलाकार अमर होते हैं क्योंकि भले ही वह भौतिक रूप से नज़र न आएं, पर उनकी कला हमेशा रहती है- न केवल उनके चाहने वालों की स्मृतियों में बल्कि पूरे राष्ट्र की आत्मा में दर्ज़. इसलिए ज़रूरी हो उठता है कि हर बार उनकी कला से मिलने वाले नए अर्थों की बात की जाए, उन्हें, जैसा कि राही मासूम रज़ा अपने चर्चित उपन्यास आधा गांव में कहते हैं ‘समय के घड़े जिसके एक पतले से छेद से क्षण-क्षण समय टपकता है’ से संग्रह कर लिया जाए.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)