हिंदी साहित्य इन दिनों काफी प्रगति कर रहा है. नए-नए युवा लेखक और कवि उभर रहे हैं, जो वर्तमान समय-समाज को न केवल पहचान रहे हैं, उसे अपनी रचनाओं के ज़रिये कलमबद्ध भी कर रहे हैं. साहित्य में उभरती इन्हीं नई प्रतिभाओं में एक नाम शहादत का भी है.
शहादत अपने समय के सबसे प्रतिभाशाली लेखक हैं. उनकी कहानियां समाज रूप से न केवल पल-पल बदलते हिंदुस्तान के चेहरे को स्पष्ट रूप से सामने लाती हैं, साथ ही उसमें व्याप्त उस धार्मिक कट्टरता पर भी प्रहार करती हैं, जिसने हमारे समाज के प्रमुख समुदायों को ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहां टकराव के अलावा और कोई विकल्प बचता ही नहीं है.
शहादत के अभी तक दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए है. उनका पहला संग्रह ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ है, और दूसरा संग्रह ‘कर्फ़्यू की रात’ बीते पुस्तक मेले में लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.
इस संग्रह में कुल पंद्रह कहानियां हैं. ये कहानियां अपने परिवेश को न केवल दर्शाती हैं, साथ ही उस अनुभव को भी बयान करती हैं, जिसमें वह हिंदुस्तान उभरकर आता है, जो बदलते समय की जटिलता और संघर्ष के पाट में पिसते इंसान के मनोविज्ञान, उत्पीड़न, निराशा और जिजीविषा को अपने चरित्रों द्वारा बड़ी गहराई से दर्ज कराता है.
इन कहानियों में धार्मिक कट्टरता, औरत की आज़ादी, मुस्लिम समाज में औरत के अधिकार, दंगों में पिसता मजदूर और उसकी विभिषिका में तड़पते नौजवान की पीड़ा को बयान किया गया है. एक नौजवान जिसे कॉलेज में साथ पढ़ने वाली लड़की से प्यार हो जाता है, मगर वह उससे केवल इसलिए अपने प्यार का इज़हार नहीं कर पाता, क्योंकि लड़की दलित है. वही नौजवान उस लड़की के प्यार को याद करता हुआ एक अनाम और अपने घर से सैकड़ों मील दूर दंगाग्रस्त इलाके में दंगाइयों के हाथों मारा जाता है.
अपनी कहानियों के ज़रिये शहादत ने जितनी साफ़गोई से दंगों की विभिषिका को बयान किया है, उतनी ही साफ़गोई से वह उस व्यवस्था से भी नकाब उतार देते हैं, जिसके ज़रिये दंगे कराए जाते हैं. फिर इस बात में भी कोई शक नहीं है कि हमारे देश में दंगे केवल चुनाव के वक्त ही होते हैं, या चुनाव में फायदा लेने के लिए कराए जाते हैं.
चुनाव चूंकि लोकतंत्रिक प्रक्रिया का अंग है, मगर एक गरीब मजदूर के लिए न तो चुनाव मायने रखता है और न ही इसकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया. उसके लिए कुछ मयाने रखता है तो वह है अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करना. एक गरीब मजदूर के लिए दंगा और उसके बाद शहर में लगने वाला कर्फ़्यू कितना पीड़ादायक होता है, इसको संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कर्फ़्यू की रात’ में पूरी बेबाकी से बयान किया गया है, जिसका एक चरित्र चुनाव और दंगों की इस हमजोली पर कटाक्ष करते हुए कहता है,
‘हिंदुस्तान में लोकतंत्र का उत्सव तो आया है, पर हमारे लिए मौत का पैगाम लाया.’
इन दिनों हमारे समाज में, खासतौर से साहित्यिक और राजनीतिक वर्ग में बहस का विषय बनने वाली एक और चीज़ जो है, वह है खान-पान. देखा जा रहा है कि कुछ लोग, विशेष रूप से सत्ताधारी दल का प्रिय बनने की होड़ में शामिल कलाकार और कथिक बुद्धिजीवी वर्ग मुस्लिम समुदाय को उसके खान-पान को निशाना बना रहा है. उसे जीव हत्यारा, नरभक्षी और भी न जाने क्या-क्या उपमाएं दे रहा है. केवल इसलिए कि वह साल में एक बार अपनी धार्मिक परंपरा का निर्वाह करने के लिए कुर्बानी करता है.
इस तरह की बहसों में यह कथित बुद्धिजीवी और लिबरल वर्ग मुसलमानों को इस अंदाज़ में पेश करता है कि जैसे वह इंसान न होकर कोई रोबोट है. कोई न अनचाही चीज़, जिसके अंदर दूसरे जीवों के लिए कोई दया-ममता, या फिर हमदर्दी होती ही नहीं है. ऐसे लोगों को शहादत की कहानी ‘कुर्बान’ पढ़नी चाहिए, जो इसी संग्रह का हिस्सा है. विवशता और लगाव के बीच लिखी गई यह कहानी बस इतनी है कि क़ुर्बानी के लिए बच्चे की तरह पाले-पोसे गए बकरे से घर भर को लगाव हो जाता है. जिस अम्मी ने उसे पाला वह बाद में एक मां की तरह टूटकर बिलखती हैं.
शहादत की भाषा ने भी संग्रह की कहानियों में असर पैदा किया है, उनकी भाषा क़िस्सागोई की भाषा है. सुनाने के अदांज़ में बयान की गई इन ये कहानियां बड़ी सादगी से पाठक को बांध लेती है. अपनी हर पंक्ति के साथ वह पाठक को यह एहसास कराती चलती हैं कि लेखक जो बयान कर रहा है, वह केवल उसके समय, समाज या फिर उसकी अपनी कथा नहीं है, वह उस शख़्स की भी कथा है, जो इन कहानियों को पढ़ रहा है.
अंत में केवल इतना ही कि इन कहानियों को पढ़ा जाना चाहिए, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य में शहादत की क़लम से हमें और भी बहुत कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा.
(नासिरा शर्मा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथाकार हैं.)