केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार सातवां बजट पेश किया है. विपक्ष ने इसे ‘कुर्सी बचाने वाला’ बजट कहा है क्योंकि सरकार ने मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू (तेदेपा) के नेतृत्व वाले आंध्र प्रदेश (15,000 करोड़) और नीतीश कुमार (जदयू) के नेतृत्व वाले बिहार (26,000 करोड़) के लिए विशेष पैकेज दिया है. आखिर उनकी बैसाखी पर भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार 3.0 ने शपथ ली है. लेकिन, अल्पसंख्यकों के लिए क्या है? खासकर मुसलमानों के लिए?
यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार के लिए मुसलमानों का कोई अस्तित्व नहीं है. देश में मुसलमानों की आबादी 20 करोड़ से ज्यादा है लेकिन पिछले 77 साल में पहली बार केंद्र सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है. मोदी सरकार ने 2 बौद्ध, 2 सिख और 1 ईसाई को अल्पसंख्यकों के नाम पर मंत्री के रूप में शामिल किया है.
मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक मामलों के लिए 2022-23 बजट में 5,020 करोड़ आवंटित किए थे और 2023-24 में 38% की कटौती कर 3,097 करोड़ आवंटन किया था.
इस बजट में सरकार ने मामूली रूप से बढ़ाकर इसे 3,183 करोड़ किया है, जो मात्र 2.7% की वृद्धि है . यह ‘वृद्धि’ भी प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम के लिए 300 करोड़ की बढ़ोत्तरी के कारण थोड़ा फूल गई है- जो देश भर में लगभग 1,300 अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में विकास घाटे को कम करने का एजेंडा है. ये वही 90 जिले हैं जो पीएम मनमोहन सिंह ने चिह्नित किए थे.
जिस धूमधाम से भाजपा सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं के बारे में अल्पसंख्यक मामलों की वेबसाइट पर घोषणा करती है, उसके हालात का अगर विश्लेषण करा जाए तो पता चलता है कि केंद्रीय योजनाओं के तहत अब लाखों अल्पसंख्यक छात्रों (मतलब मुसलमान) को कक्षा 11 और 12, तकनीकी और व्यावसायिक पाठ्यक्रम, मान्यता प्राप्त संस्थानों में स्नातक और उच्च अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति पिछले वर्ष के बजट 1,065 करोड़ से महज़ 80 करोड़ बढ़ाई गई है.
दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम का अनुदान भी 61 करोड़ पर जस का तस है. आश्चर्य है कि मुख्य रूप से अल्पसंख्यकों पर केंद्रित कौशल विकास और आजीविका योजनाओं के लिए भारी कटौती करते हुए सिर्फ़ 3 करोड़ का आवंटन है, जबकि पिछले साल यह आवंटन 64.4 करोड़ था.
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भाजपा के लिए मुसलमानों की शिक्षा सबसे निचले पायदान पर है. इसके लिए 2023-24 में आवंटन 1,689 करोड़ था और अब 1,575 करोड़ है. यहां तक कि प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना भी 2023-24 में आवंटित 433 करोड़ रुपये की तुलना में घटाकर 326.2 करोड़ रुपये कर दी गई है.
देश के पहले शिक्षा मंत्री के नाम पर रखी गई मौलाना आज़ाद नेशनल फ़ेलोशिप अब लगभग मृत्युशैया पर है. इसके लिए 2023-24 में आवंटित राशि 96 करोड़ रुपये को घटाकर सिर्फ 45 करोड़ दिया गया है, ये आधी से भी कम है! पहले से ही इस योजना के तहत 2,000 छात्र अपने वज़ीफ़े-भत्ते के लिए जूझ रहे थे.
वहीं, मुफ्त कोचिंग और संबद्ध योजनाओं के लिए 2023-24 में आवंटित 30 करोड़ रुपये की तुलना में अबकी बार सिर्फ 10 करोड़ रुपये ही दिए गए हैं.
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का बजट 3 करोड़ से घटकर 1 करोड़ रह गया है. विदेश में पढ़ने के इच्छुक अल्पसंख्यक छात्रों के लिए शैक्षिक ऋण पर ब्याज सब्सिडी 21 करोड़ रुपये से घटाकर 15.3 करोड़ रुपये कर दी गई है.
संस्कृति के संरक्षण और संरक्षण के लिए ‘हमारी धरोहर’ कार्यक्रम के तहत अब किसी भी मुस्लिम विरासत के लिए कोई जगह नहीं है. इसके लिए पिछले साल दिए गए 10 लाख रुपये भी छीन लिए गए हैं.
देश के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के वार्षिक बजट में 15% की कटौती की गई है और इसके विपरीत बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का बजट 669 करोड़ से बढ़कर 1,303 करोड़ हो गया है. यह भाजपा सरकार द्वारा खुला भेदभाव है.
दरअसल, बजट से पहले ही केंद्र सरकार ऐसे कदम लेती आ रही है. मसलन, उत्तर प्रदेश के मदरसों के लिए जो अनुदान केंद्र सरकार देती थी, वह एक साल पहले ही समूचा ख़त्म कर दिया गया था. इस तरह भाजपा के डबल इंजन एक साथ काम कर रहे हैं. पहले केंद्र सरकार और बाद में यूपी सरकार ने इस वर्ष जनवरी में मदरसा आधुनिकीकरण कार्यक्रम के तहत शुरू किए गए लगभग 25,000 मदरसा शिक्षकों के मानदेय को रोक दिया था. इसके बाद 22 मार्च को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर आदेश दिया था कि यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन 2004 अधिनियम असंवैधानिक और धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
इससे हंगामा मच गया क्योंकि 17 लाख छात्र और 10,000 से अधिक शिक्षक अधर में लटक गए, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पर रोक नहीं लगा दी.
अब जून के बाद यूपी सरकार ने लगभग 8449 गैर-पंजीकृत मदरसा छात्रों को स्थानांतरित कर सरकारी स्कूलों में शामिल करने का आदेश दिया है, जो राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग अधिनियम-2005 के बिल्कुल विपरीत है.
सरकार की ऐसी हरकतें मुसलमानों को बिल्कुल भी आश्चर्यचकित नहीं करतीं. इसलिए, इस बजट में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे मुसलमानों के सशक्तिकरण की उम्मीद की जा सके.
(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)