रामकथा का वर्षा कांड: अयोध्या का महल टपक रहा है

'मैं अयोध्या आ गया हूं. लेकिन लग रहा है वनवास अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है. जब वन में रहता था, पावस ऋतु में कुटिया की छत टपकती थी और अब इस तथाकथित भव्य मंदिर में भी भीग रहा हूं.'

अयोध्या का राम मंदिर. (फोटो साभार: श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र)

रात बेहद अजीब बात हुई. नींद आई और फिर सपना भी आया. सपने में नींद टूट गई थी और आंखें खुल गई थीं. खुलते ही वे चौंधिया गईं क्योंकि कमरे में एक अलौकिक प्रकाश भरा हुआ था. मैंने मन-ही-मन में प्रभु को धन्यवाद दिया कि उसने मेरी सुन ली और मेरे नेत्रों में ज्योति लौटा दी. लेकिन मेरा भ्रम तुरंत दूर हो गया जब मैंने देख़ा कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम सामने खड़े हैं और यह अलौकिक प्रकाश उन्हें के कारण है.

मेरा आश्चर्य तब और अधिक बढ़ गया जब मैंने देख़ा कि उनके धीर-गंभीर मुखमंडल पर उदासी छायी हुई है. आदिकवि ने उन्हें ‘नरचंद्रमा’ कहा था. ईश्वर का अवतार नहीं. लेकिन उन्हें इसीलिए अवतार माना गया क्योंकि वे मानवजाति में चंद्रमा की तरह देदीप्यमान थे. लेकिन आज उस चंद्रमा को उदासी के बादलों ने ढंक रखा था.

मैंने उठकर साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और पूछा कि प्रभु, यह क्या लीला है? आप और उदासी…!!! जो चौदह साल के वनवास में केवल सीता के वियोग में उदास हुआ, वह आज उदास क्यों है? अब तो उसके हिंदुत्ववादी भक्त सत्ता में हैं और उसके लिए भव्य से भव्य मंदिर बनाने में जुटे हैं.

राजा रामचंद्र बोले, ‘वत्स, यही तो उदासी का कारण है. मैं अयोध्या आ गया हूं. लेकिन लग रहा है जैसे वनवास अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है. मैंने बिना कुछ बोले पिता की आज्ञा स्वीकार की और वनगमन किया. लेकिन अब मेरे नाम पर ही इतना झगड़ा-टंटा  होता रहता है. जब वन में रहता था, तब भी पावस ऋतु में कुटिया की छत टपकती थी और मैं भीगता था. अब इस तथाकथित भव्य मंदिर में भी भीग रहा हूं. बाहर जाने का मन करता है तो जा भी नहीं सकता. रथारूढ़ होकार निकलूं तो डर है कि कहीं रथ के पहिए मेरे नाम पर बने रामपथ पर निकल आए गहरे गड्ढों में न जा फंसें. यदि अश्व उनमें गिर गए तो और मुसीबत खड़ी हो जाएगी. करूं तो कि या करूं? मेरे एक भक्त विद्यानिवास मिश्र ने एक निबंध लिखा था काफ़ी समय पहले जिसका शीर्षक था ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’. कितना दूरदर्शी था वह…!!!’

प्रभु की बात सुनकर मुझे हंसी आ गई. ‘भगवन, यह सब तो आप ही की लीला है. जब-जब आप मनुष्य का रूप धारण करते हैं, तब-तब ऐसी ही लीला दिखाते हैं. आपने एक उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा कर सब गोप-गोपियों को इंद्र के कोप से बचाया था और भीषण वर्षा में भी भीगने नहीं दिया था. आज आप खुद को ही नहीं बचा पा रहे हैं और भीग रहे हैं. कुछ समझ में नहीं आता, प्रभु. क्या यह इसलिए है इस समय एक और अवतार देश में है और उसी का शासन चल रहा है. जब इस काल में आपकी ही कुछ नहीं चल पा रही तो फिर सामान्य मनुष्यों की क्या बिसात? अच्छा एक बात सच-सच बताइए. क्या आपको भी मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया है?’

रामचंद्र जी ने बहुत उदासी भरे स्वर में उत्तर दिया, ‘ नहीं, मैं तो केवल दर्शक मंडल में हूं. ‘राम झरोखे बैठकर सबका मुजरा लेत’ संभवतः ऐसी ही स्थिति के लिए कहा गया था. ‘जो मार्ग इन्होंने मेरे नाम पर चुना है, मैं तो कभी उसकी अनुमति नहीं देता. लेकिन जैसे कृष्ण को चुनौती देने एक दूसरा वासुदेव खड़ा हो गया था, वैसे ही मुझे चुनौती देने के लिए एक और अवतार आ गया है. जो हाल ‘महाभारत’ के छद्म वासुदेव का हुआ था, वही देर-सबेर इसका भी होगा. आख़िर मैं भी कब तक मूक दर्शक बना रह सकता हूं. अयोध्या में आकर भी वनवासी की तरह रहूं, यह मुझसे नहीं होगा.’

सदा शांत रहने वाले रामजी को जोश में आता देखकर मुझे भी जोश आ गया और मैंने भी पूरा ज़ोर लगाकर जयघोष किया, ‘बोल सियापति रामचंद्र की जय.’ और इसके तत्काल बाद मेरे गले से यह भजन फूट पड़ा- ‘रघुपाति राघव राजा राम, सबको सन्मति दे भगवान. ईश्वर अल्लाह तेरो नाम…’

मेरा जोश देखकर प्रभु मुस्कुराए और बोले, ‘ जा बच्चा, मौज कर. तूने तो मेरी उदासी दूर ही कर दी. सभी धर्म मुझसे ही नि:सृत  होते हैं और मुझमें ही विलीन हो जाते हैं. भक्त मुझे चाहे जिस नाम से पुकारे, मैं तो एक ही हूं. एको अहम् द्वितीयो नास्ति.’

प्रभु का आशीर्वचन सुनकर मेरा दिल भर आया और नेत्रों में मेघ आकर बरसने लगे. ‘जब जानकीनाथ सहाय करें, तब कौन बिगाड़ करे नर तेरो…’

(कुलदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं.)