मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: विश्वास के टूटने और बहाल होने की कहानी

पुस्तक समीक्षा: परमजीत सिंह की 'मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: 1984 कुछ सवाल, कुछ जवाब' सिख विरोधी दंगों की कुछ अनसुलझी मानवीय और राजनीतिक गुत्थियों को नए सिरे से पेश करती है.

(साभार: सेतु प्रकाशन)

1984 का साल भारत के आधुनिक युग में नकारात्मक रूप से महत्वपूर्ण साल था. इसी साल भारतीय पूंजीवाद ने अपने दो विद्रूप चेहरे हमें दिखाएं. यहां से वह दौर शुरू हो रहा था जहां से भारतीय पूंजीवाद ने वैश्विक पूंजी के साथ ज्यादा मेलजोल बढ़ाना शुरू किया था. मानवीय तथा पर्यावरणीय मूल्यों को ताक पर रखकर मुनाफे की बेतहाशा दौड़ में शामिल होने का दौर शुरू हो चुका था. जिसका खमियाजा भोपाल की जनता ने भुगता.

दिसंबर 84 की एक सर्द रात को मिथाइल आइसोसायनाइड गैस से हजारों लोग हलाक हो गए और वह तबाही एक अनबीता इतिहास बन गई. आज भी भोपाल के लोग उस जहरीली हवा के टुकड़े अपने फेफड़ों में संजोए आपको मिल जाएंगे. एक दूसरा जहर भी अपने नए संस्करण के साथ देश में पैदा हुआ, जब पूंजीवाद के नए दौर ने नई तरह की एथेनिक और सांप्रदायिक समस्याओं की भूमिका तैयार कर दी थी. जिसका भयानक विस्फोट 84 के सिख कत्लेआम में हुआ. दिल्ली सहित उत्तर और मध्य भारत के कई शहर जल उठे. दूसरी कौमों के साथ रहते, व्यापार करते, रोजी कमाते सिख एकाएक अजनबी हो उठे और सिर्फ अजनबी नहीं बल्कि उन्हें देश के दुश्मन की तरह देखा जाने लगा.

यह हमारी बदकिस्मती है कि हमने इतिहास से न सीखने की कसम खाई हुई है इसलिए इन दोनों ही घटनाओं पर खासकर हिंदी में बहुत कम काम हुआ है जबकि इन दोनों घटनाओं के केंद्र हिंदी भाषी क्षेत्र में ही रहे हैं. ऐसे में वास्तविक अनुभवों को सार्वजनिक इतिहास के रूप में देखने और दिखाने की कोशिश करती हुई सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता परमजीत सिंह की किताब ‘मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: 1984 कुछ सवाल कुछ जवाब‘ (सेतु प्रकाशन), हमारे सामने सिख विरोधी दंगों की कुछ अनसुलझी मानवीय और राजनीतिक गुत्थियों को नए सिरे से पेश करती है.

इतिहास से मुठभेड़

कभी दंगों की वजह से अपने शहर डाल्टनगंज को छोड़ चुका नायक अमनदीप 20 साल बाद वापस लौट रहा है. पुराने दोस्तों से मिलने, अपने बचपन की यादें तलाशनेऔर शायद वह विश्वास तलाशने जिसे एक बार अपनी आंखों के सामने वह बिखरते हुए देख चुका है. अमन का वापस अपने शहर लौटना इतिहास से साक्षात्कार का एक प्रतीक है. अपने मोहभंग, अपनी व्यक्तिगत त्रासदी और वंचना से उबरकर वह वापस अपने शहर जा रहा है. यह वापसी उसकी व्यक्तिगत यात्रा भी है और समकालीन इतिहास से मुठभेड़ भी.

त्रासदियां किस तरह व्यक्तिगत और सामूहिक के भेद को मिटा देती हैं, अमन का सफर इस बात को मार्मिकता से रेखांकित करता है. जैसा कि खुद लेखक ने अपनी भूमिका में दार्शनिक जॉर्ज संत्याना को उद्धृत करते हुए लिखा है ‘जो लोग अतीत को याद नहीं रख सकते वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त हैं.’ अमन का अपने से संघर्ष और सवाल करते हुए वापस अपने छोड़े हुए स्मृति लोक में पहुंचना इस अभिशाप का प्रत्याख्यान है. अमन और अमन के बहाने स्वयं लेखक इतिहास को समकालीन बनाने की कोशिश में उतर पड़ता है.

हिजरत

पुस्तक के प्राक्कथन लेखक प्रोफेसर जगमोहन सिंह ने सिख जनसंहार के बाद दरबदर होने की प्रक्रिया को ‘हिजरत का संताप’ लिखा है. हिजरत एक बहुत अर्थपूर्ण शब्द है जिसका इतिहास इस्लाम के इतिहास से जुड़ा हुआ है.

आमतौर पर इसका अर्थ यात्रा से या उजाड़ जाने से लिया जाता है. लेकिन इसका एक विशिष्ट अर्थ भी है पैगंबर मोहम्मद अपनों के षड्यंत्र और विश्वासघात से बेज़ार होकर अपने करीबी लोगों के साथ मक्का से मदीना चले गए थे. इस सफर को या यूं कहे दरबदर होने को हिजरत कहते हैं.

सिख जनसंहार के भयानक दौर तथा उसके बाद भी बहुत बड़ी सिख जनसंख्या ने सुरक्षा के लिए अपनी-अपनी जगहों से पलायन किया. अपनी जड़ों से उखड़ने की पीड़ा झेलते हुए सिख समुदाय पंजाब पहुंचा लेकिन वहां उन्हें राजकीय दमन का सामना करना पड़ा. बहुत मुश्किल से लोग नई जगह पर स्थापित हो पाए.

अमन का परिवारदेश के विभाजन के समय नहीं आया था बल्कि उसके दशकों पहले आकर बिहार में बस गया था. अमन के पिताजी स्थानीय राजनीति में प्रभावशाली व्यक्ति और व्यापारी थे. उनका और उनके पूरे खानदान का दंगों में उजड़कर पंजाब पलायन करना ही वह प्रक्रिया है जिसे हिजरत के रूप में समझा जा सकता है.

नायक अमन और उसका चचेरा भाई सुखदेव अपने राजनीतिक सामाजिक जीवन की सक्रियताओं और समझदारी से इस विस्थापन के सदमे से उबर जाते हैं लेकिन अमन के पिता और छोटा भाई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से फिर कभी बस नहीं पाते और अवसाद में ही उनका दुखद अंत होता है.

अविश्वास से विश्वास तक

अमन जब वापस डाल्टनगंज जा रहा था तो उसके दिमाग में उन पहचान हुए चेहरों के चित्र थे जिन्होंने दंगों में हिस्सा लिया और उन दोस्तों के लिए शिकायत भी जिन्होंने उन्हें बचाने या उन्हें शहर में रोकने के लिए कुछ नहीं किया, निष्क्रिय रहे. लेकिन धीरे-धीरे बर्फ पिघलती है और संवाद शुरू होते हैं. उसका अपना बिछड़ा शहर उससे बात करता है और पुराने दोस्तों के साथ रिश्तों की गर्मी वापस लौटती है.

लेखक इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलता है कि अमन और सुखदेव जैसे चरित्र अपने निजी अनुभव से निकलकर वास्तविक और बड़ी सच्चाइयों तक कैसे पहुंचते हैं, जहां वे पूंजीवाद और सांप्रदायिक नस्ली हिंसा के रिश्ते तथा राजकीय दमन के सांप्रदायिक रंग को बखूबी समझ पाते हैं. वे दंगों में बढ़ती सत्ताधारी पार्टियों और राज्य की भूमिका की जड़ों तक पहुंच पाते हैं. साथ ही उन्हें समाज में विघटन के स्रोतों के साथ साझेपन के सोते भी दिखाई देने लगते हैं.

इस कृति को कहीं भी उपन्यास नहीं कहा गया है लेकिन बहुत ही निजी अनुभवात्मक शैली में लिखी गई यह किताब उपन्यास का कलेवर लिए हुए हैं. कहीं-कहीं रिपोर्ट शैली और सादाबयानी से काम लेती हुई यह कहानी दंगों के कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले पलों की दास्तान भी है. 84 का सबक यही था कि 2002 गुजरात न होने पाए लेकिन हमने सबक याद नहीं किया. यह पुस्तक हमें सबक याद दिलाने की भरपूर कोशिश है.

(अंशु मालवीय कवि हैं और इलाहाबाद में रहते हैं.)