अनुच्छेद 370 की पांचवी बरसी: जम्मू-कश्मीर में पत्रकारिता के संकट पर ‘दिल्ली’ की चुप्पी

पुस्तक अंश: 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार के ऐतिहासिक फैसले के बाद जम्मू-कश्मीर के हालात पर केंद्रित रोहिण कुमार की पुस्तक ‘लाल चौक’ का एक अंश.

(फोटो: रोहिण कुमार)

एयर एशिया की वह फ्लाइट अपने साथ कई अनिश्चि‍तताएं और डर लिए जा रही थी. मैंने ऐसी मनहूसियत भरी यात्रा पहले कभी नहीं की. मेरी बग़ल की सीट पर बैठे फ़रहद चार महीने बाद घर जा रहे थे. चेहरे पर रत्ती भर का उत्साह नहीं. उनकी आख़िरी बात 3 अगस्त की शाम को अपनी मंगेतर और मां से हुई थी. 2 सितंबर को उन्होंने अपने मित्र (जो श्रीनगर जा रहा था) से अपने घर आने की सूचना भिजवाई थी. यात्रा के अस्सी मिनट फ़रहद लगभग शांत ही रहे. मैं उन्हें बीच-बीच में टोकता रहा. घाटी के बारे में कुछ-कुछ पूछता रहा.

(साभार: हिन्द युग्म प्रकाशन )

विमान में यात्रियों से ज़्यादा सेना के जवान थे. श्रीनगर पहुंचने पर एयर एशिया ने यात्रियों का स्वागत किया, ‘श्रीनगर एयरपोर्ट पर आपका स्वागत है. यह एक डिफ़ेंस एयरपोर्ट है. यहां तस्वीरें खींचना निषेध है.’

फ़रहद ने पहली बार बिना मेरे टोके कहा, ‘जेल में आपका स्वागत है. सिर्फ़ एयरपोर्ट डिफ़ेंस का नहीं है, पूरा कश्मीर ही डिफ़ेंस का है.’

श्रीनगर एयरपोर्ट को जैसे किसी सन्नाटे ने घेर रखा था. बिल्कुल शांत. एयरपोर्ट के भीतर सारी दुकानें बंद थी. यात्रियों और सुरक्षाबलों की संख्या जैसे बराबर हो. एयरपोर्ट के एक्ज़िट गेट पर कश्मीरियों की भीड़ जमा थी. कुछ जो अपनों को रिसीव करने पहुंचे थे, वे एक-दूसरे को गले लगाकर भावुक हो रहे थे. एक उम्रदराज़ महिला, जिनकी उम्र 60 या उससे कुछ ज़्यादा रही होगी, ने फ़रहद को गले लगाया. उन्हें चूमने लगी. हृदय विदारक दृश्य था यह. उनके चेहरों की रंगत बता रही थी कि कुछ असामान्य घटा है. मैंने फ़रहद से दिल्ली में मिलने का वक़्त मांगा और प्रीपेड टैक्सी स्टैंड की तरफ़ बढ़ गया.

मैं टैक्सी लेकर सीधे प्रेस क्लब पहुंचा. हैदरपोरा इलाक़े में कुछ दुकानें खुली थीं. बाक़ी रास्ते भर में ज़्यादातर दुकानों के शटर गिरे थे. जगह-जगह पर सुरक्षाबलों के नाके थे. वे जानना चाहते कि मैं दिल्ली से इस वक़्त पर कश्मीर क्यों आया हूं. मैं जगह-जगह प्रेस कार्ड और पहचान पत्र दिखाता और उनसे गाड़ी जाने देने की गुज़ारिश करता. कुछ जगहों पर वे दिल्ली का पहचान पत्र देखकर कुछ रियायत देते. कुछ नाकों पर रियायत नहीं भी मिलती और लगभग तीन से चार किलोमीटर लंबा डायवर्ज़न लेना पड़ता. हर तीस से पचास मीटर पर दो सीआरपीएफ जवान सड़क के दोनों ओर खड़े थे.

रास्ते में मैंने कई तस्वीरें खींची. कैब ड्राइवर गुलज़ार ने चेताया कि मैं तस्वीरें संभलकर खींचूं, वरना परेशानी में पड़ सकता हूं. दरअसल, उनकी हिदायत सही थी. अक्सर सुरक्षाबल फोटोग्राफरों और रिपोर्टरों के कैमरे तोड़ देते हैं. फोन और कैमरों से जबरन फोटो डिलीट करवाए जाते हैं. सुरक्षाबलों द्वारा रिपोर्टरों और फोटोग्राफर्स को परेशान किया जाना नई बात नहीं है. मानवाधिकारों के हनन की ऐसी शृंखला है कि ये वारदातें अब ‘छोटी’ और ‘सामान्य’ हो चुकी हैं.

मैं गुलज़ार से घाटी के हालात के बारे में बातचीत करता रहा. रास्ते में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी का घर दिखाने के लिए गुलज़ार ने गाड़ी धीमी कर दी. उन्होंने गिलानी के घर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘देखो, गिलानी साब का घर. दिखा? जहां तारीक-ए-हुर्रियत का बोर्ड लगा है. वहीं रहते हैं गिलानी साब. अभी तो लोगों को उनसे मिलने नहीं दे रहे हैं.’

आगे उन्होंने कहा, ‘गिलानी साब ही हमारे नेता हैं. इन्होंने अब तक जो-जो बातें कहीं, सारी सच साबित हुईं.’ मैंने गुलज़ार से पूछा कि उन्हें वे कौन-कौन-सी बातें लगती हैं जो गिलानी ने कहीं और वे सच साबित हुई हैं. ‘गिलानी साब कश्मीरियों से कहते रहे हैं कितनी भी भारतपरस्ती कर लो, कुछ फ़ायदा नहीं होगा. आज देखो, इंडिया ने क्या किया. कश्मीर और भारत के बीच का जो पुल था आर्टिकल 370, उसे एक झटके में ख़त्म कर दिया. कश्मीरियों से एक बार पूछ तो लेते. ख़ैर, भारत को कश्मीरी अवाम और राजनीतिक क़ायदों की क़द्र होती तो सालों पहले रेफ़रेंडम नहीं करवाते?’ गुलज़ार ने तंज़ भरे लहजे में कहा.

गुलज़ार बताते रहे कि कश्मीरी कितनी यातनाओं और परेशानियों से गुज़र रहे हैं, ‘लोगों पर ज़ुल्म ढाया जा रहा है.’

तक़रीबन तीन घंटे में मैं प्रेस क्लब पहुंच सका. आमतौर पर दस किलोमीटर का यह रास्ता आधे घंटे में तय किया जा सकता था. प्रेस क्लब में पत्रकारों की बतकही चल रही थी. उनमें कुछ मेरे पहचान के पत्रकार मित्र भी शामिल थे. एक फोटोग्राफर मित्र ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘वेलकम टू हेल! तुम क्यों मरने आए हो यहां?’ एक अन्य ने मिलते ही पूछा, ‘वापसी कब है तुम्हारी? जाने के पहले मिलकर जाना. तस्वीरें और वीडियो पेन ड्राइव में है, मेरे ऑफिस में जमा करा आना.’

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

अगस्त 2019 की विडंबना देखिए. समूचा भारत 4जी से लैस होकर मोदी सरकार के फ़ैसले की वाह-वाही कर रहा था. कश्मीर जिसकी बेहतरी की दुहाई देते हुए अनुच्छेद 370 को हटाया गया, वह पेन ड्राइव युग में जा पहुंचा. पत्रकार वर्ड डॉक्यूमेंट में स्टोरी फाइल करते. फोल्डर में फोटो अपलोड करते. सब कुछ पेन ड्राइव में ट्रांसफर किया जाता और किसी जान-पहचान वाले के ज़रिये दिल्ली भिजवाया जाता. साथी पत्रकार बताते कि कर्फ़्यू का ये दौर सबसे सख़्त था.

‘बॉस, नब्बे में जब चारों तरफ़ अफ़रातफ़री मची थी तब भी कम-से-कम लैंडलाइन काम किया करते थे. आज मुझे बारामुला में रहने वाले रिश्तेदारों की सूचना तक नहीं है. वे ज़िंदा हैं या मर गए. कोई सूचना नहीं. अल्लाह न करे भारत के किसी भी नागरिक को इस तकलीफ़ से गुज़रना पड़े,’ एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा.

मैं पत्रकारों की बातें रिपोर्ट में नाम के साथ शामिल करने की अनुमति लेता. ज़्यादातर मना कर देते. अगर मैं भी उनके जैसी परिस्थितियों में काम करता तो शायद यही करता. स्थानीय पत्रकारों ने हमेशा ही मेरी बहुत मदद की है. लेकिन भारतीय मीडिया के प्रति अविश्वास का ज़बरदस्त माहौल था. उन्हें मेरी नैतिकता पर ज़रा भी संदेह नहीं था. साथ ही उन्हें हमारे संपादकों, मालिकों और संस्थानों पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं था.  कुछ खुलकर और कुछ दबी ज़बान में कह ही देते कि आप यहां देखोगे कुछ और उधर लिखोगे कुछ और.

प्रेस क्लब में पत्रकार मित्रों से बातचीत में एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई थी कि यह वक़्त ‘भारतीय मीडिया’ की ओर से रिपोर्टिंग करने के लिए मुफ़ीद नहीं है. एकाध जगहों से टीवी पत्रकारों को लोगों द्वारा हड़काए जाने और बायकॉट करने की भी सूचना थी. मैंने स्थानीय पत्रकारों और आम लोगों के बीच कथित मेनस्ट्रीम मीडिया के प्रति भयानक ग़ुस्से का अनुभव किया.

लोगों के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 हटने के बाद से ही जुमे की सामूहिक नमाज़ को सरकार ने इजाज़त नहीं दी थी. सरकार ने ईद-उल-अज़हा के सामूहिक नमाज़ की भी अनुमति नहीं दी. अब बीते शाम सरकार ने ऐलान किया कि मुहर्रम के जुलूस निकाले जाने की भी अनुमति नहीं दी जाएगी. साथ ही मौलवियों को प्रशासन की ओर से हिदायत दी गई कि वे मस्जिद के लाउडस्पीकर से किसी भी तरह की राजनीतिक टिप्पणियां करने से बाज़ आएं.

एक बुज़ुर्ग कश्मीरी बासित ने बताया, ‘पहले भी सरकार और स्थानीय प्रशासन सामूहिक नमाज़ को वक्त-बेवक़्त रोकती रही है पर पहले इस तरह की पाबंदियां ख़ासकर श्रीनगर और शहरी क्षेत्रों में ही होती थी. मेरी याद्दाश्त में यह शायद 1990 के बाद हुआ है कि दूर-दराज़ के गांव में भी लोगों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने नहीं दिया जा रहा.’ बासित की बात से अन्य कश्मीरी भी सहमति जताते हैं. एक व्यक्ति (42) ने कहा, ‘कश्मीरी मुसलमानों को धर्म का अनुपालन करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है.’ यह कहते हुए आगे उन्होंने जोड़ा, ‘ख़ैर, अब जब कश्मीर का भारत के संविधान से राब्ता ही नहीं रहा तो कैसे धार्मिक अधिकारों की उम्मीद भी की जाए. वो (सरकार) जितना ज़ुल्म ढाहना चाहे, ढाहें. आज़ादी के लिए क़ुर्बानियां देनी ही पड़ती है.’

प्रेस क्लब में सूचना मिली कि सरकार की पाबंदी के बावजूद श्रीनगर के रैनावारी में शिया मुसलमान मुहर्रम का जुलूस निकालने वाले हैं. सुगबुगाहट थी कि यह जुलूस हिंसक भी हो सकती है. प्रशासन जुलूस से बहुत सख़्ती से निपटेगा, इसका अंदाज़ा था. चूंकि प्रशासन की पाबंदी के बावजूद शिया मुसलमान मुहर्रम का जुलूस निकाल रहे थे, यह कश्मीरियों के लिए प्रतिरोध का भी परिचायक था. जुलूस स्थल पर हालात बिगड़ने के पूरे आसार थे.

जुलूस के रास्ते को सुरक्षाबलों ने बंद कर दिया था. जम्मू-कश्मीर पुलिस, सीआरपीएफ और सेना के सैकड़ों जवान तैनात थे. दूसरी तरफ़ काला कुर्ता पहने सैकड़ों नौजवानों का जत्था कर्बला को याद करते हुए मर्सिया गा रहा था. मर्सिया गाते हुए जुलूस धीरे-धीरे आगे भी बढ़ रहा था. पुलिस लगातार अपील कर रही थी कि जुलूस आगे न बढ़े. जुलूस आगे बढ़ता जा रहा था. मीडियाकर्मी पहले पुलिस के नाकों की तरफ़ खड़े होकर तस्वीरें लेने की कोशिश कर रहे थे.

एक पल का भी इत्मीनान नहीं था कि पत्रकार अपने फोन या नोटबुक में कुछ ड्राफ़्ट कर लें या फोटोग्राफर अपनी खींची हुई फोटो को एक बारी देख लें. जुलूस और पुलिस दोनों की ही गतिविधियों को लेकर चौकन्ना रहना था. हमला किसी भी ओर से हो सकता था. सुरक्षाबल फोटोग्राफरों को फोटो न खींचने की हिदायत दे रहे थे. भाषा हिदायत और चेतावनी की कम, धमकाने की ज़्यादा थी.

अचानक से जुलूस के बीच में से कुछ नौजवान सुरक्षाबलों की ओर भागे. फट-फट जैसी धमाके की आवाज़ की हुई. पुलिस ने जुलूस पर पैलेट चलाया था. साथ में टीयर गैस भी छोड़े गए. भगदड़ मच गई. जुलूस में आगे की ओर मौजूद नौजवान पीछे हुए, लेकिन भीड़ उग्र हो गई. वे सुरक्षाबलों से भिड़ने के लिए तैयार मालूम पड़ रहे थे.

एक ज़ोर के झटके के साथ मेरी टीशर्ट को पीछे से एक फोटोग्राफर साथी ने खींचा. उन्होंने जुलूस की ओर भागते हुए कहा, ‘रन, रन… राशिद ख़ान इज़ देयर.’ मुझे सिर्फ़ इतना समझ आया कि मुझे भागने को कहा जा रहा है. तब उनके राशिद ख़ान इज़ देयर कहने का मतलब मुझे समझ नहीं आया.

राशिद ख़ान रैनावारी थाना क्षेत्र के स्टेशन हाउस अफ़सर (एसएचओ) थे. उनके बारे में पत्रकारों के बीच मशहूर था कि वह पत्रकारों के लिए ‘ख़तरा’ हैं. वह पत्रकारों पर जबरन लाठीचार्ज करवाते हैं. फोटोग्राफर फोटो खींचने न पाए इसके लिए अपशब्द और थाने में पत्रकारों को बेवज़ह देर-देर तक बिठाने जैसे हथकंडे अपनाते हैं. उनके आदेश पर पुलिस जानबूझकर कैमरों पर लाठी से हमला करती है.

रैनावारी में भी वही हुआ जिसका भय पत्रकारों को था. एसएचओ राशिद ख़ान के आदेश पर पत्रकारों पर लाठीचार्ज करवाया गया. जिस फोटोग्राफर साथी ने मुझे भागने का संदेश दिया, वह लाठियों से गंभीर रूप से चोटिल हुए. एक अन्य फोटोग्राफर साथी के कैमरे पर पुलिस ने लाठी मारकर तोड़ दिया. बहुत सारे अन्य पत्रकार साथियों को हल्की-फुल्की चोटें आईं.

भगदड़ के दौरान कुछ पल के लिए मैं और मेरे साथ एक और ग़ैर-कश्मीरी पत्रकार बाक़ी कश्मीरी पत्रकारों के ग्रुप से बिछड़ गए. स्थानीय लड़कों के एक समूह ने हम दोनों को भारतीय मीडिया का प्रतिनिधि समझकर घेर लिया. हमारे बाल खींचे और हल्की धक्का-मुक्की की. हमने लड़कों को बताया कि हम ‘अंतरराष्ट्रीय  मीडिया’ के लिए लिखते हैं. ऐसा बोलकर हम उन्हें यक़ीन दिलाना चाहते थे कि हम भारतीय मीडिया के प्रतिनिधि नहीं हैं. हम वहीं लिखने जा रहे हैं, जो हम देखेंगे. हम बाक़ी भारतीय चैनलों के जैसा कुछ भी मनगढ़ंत लिखने या बोलने नहीं जा रहे.

वह तो बेहतर हुआ कि कुछ ही मिनटों में साथी तुरंत हम तक पहुंच गए और कश्मीरी में कुछ कहते हुए हमें खींचकर बाहर सुरक्षित जगह ले गए. मैं उस वक़्त तो अंदर से हिल गया था. हालांकि उन लड़कों पर ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आया. मैं उनके ग़ुस्से का संदर्भ समझ पा रहा था. कितने मौक़ों पर कश्मीरियों ने बताया है कि उनका संघर्ष अब सिर्फ़ भारत सरकार से नहीं बल्कि भारतीय मीडिया से भी है. स्थानीय पत्रकारों के लिए ये सामान्य घटना है. उनकी पत्रकारिता हर रोज़ भीड़ के ग़ुस्से और सुरक्षाबलों की बर्बरता के बीच ही होती है. उन्होंने कॉन्फ़्लिक्ट ज़ोन में काम करने के लिए ख़ुद को तैयार किया है.

न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखने वाले समीर यासीर ने तंज़ कसा, ‘तुम दिल्ली वालों को एकाध ऐसे अनुभव होने चाहिए. पता तो चले वहां (दिल्ली में) कि भारतीय मीडिया की करतूतों का ख़ामियाज़ा किसे उठाना पड़ रहा है.’

कश्मीरवाला मैगज़ीन के इडिटर-इन-चीफ़ फ़हद शाह ने कहा, ‘दिल्ली में एक पत्रकार को ट्वीट करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस उठा ले जाती है. सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, रवीश कुमार सारे नामचीन पत्रकार उस पत्रकार के पक्ष में लिखना-बोलना शुरू कर देते हैं. ट्विटर ट्रेंड करने लगता है. मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला हो जाता है लेकिन हर रोज़ कश्मीरी पत्रकार जान जोखिम में डालकर रिपोर्ट लिखता है. फोटो खींचता है. उसके बारे में दिल्ली के पत्रकारों को चिंता नहीं होती.’

फ़हद ने उन्हीं दिनों पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए काज़ी शिबली के बारे में बताया. 29 वर्षीय काज़ी शिबली ‘कश्मीरियत’ नाम की वेबसाइट के संपादक हैं. 25 जुलाई को शिबली को अनंतनाग के शेरबाग थाने बुलाया गया था. कश्मीर में पत्रकारों के लिए थाने बुलाए जाना रूटीन जैसा है. इसके लिए कोई नोटिस नहीं दिया जाता. दोस्त-यार के ज़रिये पुलिस संदेश भिजवा देती है कि फलां को थाने भेज दो. उस दिन शिबली को भी लगा कि यह रूटीन काम ही है. वह घर के कपड़ों में ही थाने चले गए. पहले तो पुलिस शिबली के बारे में कोई भी जानकारी होने की बात से इनकार करती रही. अगस्त के आख़िरी दिनों में शिबली के परिवार को गिरफ़्तारी से संबंधी दस्तावेज़ दिए गए.

हफिंगटन पोस्ट को शिबली की बहन काज़ी इरम ने बताया कि पुलिस द्वारा भेजे गए दस्तावेज़ के मुताबिक़ काज़ी शिबली को पब्लिक सेफ़्टी एक्ट (पीएसए), 1978 के अंतर्गत गिरफ़्तार किया गया है. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 5 अगस्त के बाद तक़रीबन दो से चार हज़ार कश्मीरियों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया है. इरम ने हफिंगटन पोस्ट को बताया कि काज़ी की वेबसाइट पर एंटी-नेशनल रिपोर्ट छापने के आरोप लगाए गए हैं.

‘क्या यह आपको मीडिया की अभिव्यक्ति पर हमला नज़र नहीं आता या दिल्ली वाले पत्रकार सलेक्टिव आउटरेज में माहिर हैं?’ फ़हद ने मुझ पर सवाल दागा.

(रोहिण कुमार पत्रकार व शोधार्थी हैं और थिएटर से जुड़े हैं.)