मनुष्यता के पक्ष में होने की एक अनिवार्य शर्त प्रेम के पक्ष में होना है

पुस्तक समीक्षा: मंगलेश डबराल की 'प्रतिनिधि कविताएं' पढ़ते हुए लगता है मानो वे कह रहे हों कि ईमानदारी और मनुष्यता ख़ुद से बची रहने वाली चीज़ें नहीं हैं. वे इसे मनुष्य की अपने साथ एक लगातार चलने वाली जद्दोजहद मानते हैं.

(साभार: राजकमल प्रकाशन) (इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

‘इस तरह महज़ एक रुपये में मिली मुझे कविता
घर आकर मैंने वह धुन गाई मन में और रो पड़ा.’

एक कवि द्वारा उसकी कविताओं में ख़ुद का रोना दर्ज कर देना उस कवि के ईमानदार होने की एक बड़ी निशानी होती है. ऊपर लिखी दो पंक्तियां मंगलेश डबराल की कविता ‘गाता हुआ लड़का’ से हैं. मंगलेश डबराल को बारह-तेरह बरस का यह लड़का बस में गाना गाते हुए दिखता है, जिसकी चारेक बरस की बहन बस में सभी के पास जा-जाकर पैसे मांग रही थी. अपने अंतर्द्वंद से होते हुए कि ‘भीख ग़रीब को और गिरा देती है नीचे’ मंगलेश भी लड़के के गले में टंगे हारमोनियम पर एक रुपया रख देते हैं.

मंगलेश की बहुत-सी कविताओं को पढ़ते हुए यह भी लगता है, जैसे वे कह रहे हों कि ईमानदारी और मनुष्यता ख़ुद से बची रहने वाली चीज़ें नहीं हैं. एक ईमानदार मनुष्य बने रहने और अपने अंदर मनुष्यता बचाए रखने को मंगलेश डबराल कोई साधारण क्रिया नहीं मानते. बल्कि, इस क्रिया को वे मनुष्य की ख़ुद के साथ लगातार चलने वाली जद्दोजहद मानते हैं, जिसका नतीज़ा मनुष्य का ख़ुद के साथ प्रेम के लिए लड़ना, और प्रेम की जीत सुनिश्चित करने वाली राह पर चलना होता है.

अगर मनुष्य की ख़ुद के साथ इस जद्दोजहद में प्रेम विजयी नहीं होता, तो उसके अंदर असंतुष्टताएं पैदा होनी शुरू होती हैं, और असंतुष्टताओं के लगातार बने रहने पर उसके अंदर कुंठाएं जन्म लेती हैं. और इन कुंठाओं के भी लंबे समय तक बने रहने से उसमें ख़ुद के लिए श्रेष्ठता की भावना रच-बस जाती है, और दूसरे जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र-लिंग के लोगों के लिए नफ़रत.

श्रेष्ठता का भाव रखने वाले लोगों में दरअसल सिर्फ़ प्रेम की हार नहीं होती, बल्कि उनमें विनम्रता की भी हार हो चुकी होती है. जिससे उनके अवचेतन मन में कहीं न कहीं हीनभावना निहित रहती है. मनोविज्ञान के हिसाब से भी मनुष्य में श्रेष्ठता की भावना उसके अंदर अंतर्निहित हीनभावना से पैदा होती है. और उस हीन वना की क्षतिपूर्ति के लिए ख़ुद को दूसरों से श्रेष्ठ जाहिर करना उसका डिफेंस मैकेनिज्म होता है.

इस तरह का डिफेंस मैकेनिज्म समाज में द्वेष, शत्रुता, गैर-बराबरी, और असमानता फ़ैलाने का काम करता है. इसी शत्रुता और गैर-बराबरी की बानगी है मंगलेश डबराल की ‘गुजरात के मृतक का बयान’ और ‘भूमंडलीकरण’ कविता.

गुजरात के मृतक का बयान

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए मेरे आगे खड़ी हो गई थी
और मेरे बच्चों को मारा जाना पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उसकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ

… …

और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे एक साथ बहुत से दूसरे लोग मारे जा रहे हों
मेरे जीवित रहने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
लेकिन मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो…

भूमंडलीकरण

इन दिनों लोगों को परवाह नहीं उसके साथ क्या हो रहा है
कोई अन्याय को महसूस नहीं करता
लोग अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं

… …

कोई है जो हमारे भीतर ख़ाली जगह देख रहा है

ताकि वहां ठूंसा जा सके बचा-खुचा खाना
कोई है जो हमारे जबड़ों को जांच रहा है
ताकि वहां लालच के कुछ कौर रखे जा सकें
कोई हमसे तपाक से हाथ मिला रहा है
हमारी गर्दनों को फूलमालाओं से लाद रहा है
कोई हमें लगातार युद्ध के मैदान की तरफ़ ले जा रहा है
और कह रहा है धीरे-धीरे जब तुम बहुत कम मनुष्य रह जाओगे
तो खेल के अंत में तुम्हें मिलेगा एक बड़ा सा पुरस्कार.

‘गुजरात के मृतक का बयान’ में मंगलेश डबराल सरेआम कत्लेआम को तो हमें दिखा ही रहे हैं, लेकिन इसके साथ वे उनकी कविता ‘भूमंडलीकरण’ में अन्याय और अत्याचार के एकदम अलग ही विषयों को हमारे सामने रख रहे हैं, जिन पर हमें जैसे हमेशा ही सतर्क रहने की ज़रूरत है. मंगलेश हमें आगाह कर रहे हैं, ताकि हम लालची न बने, हमारे अंदर मनुष्यता बचाए रख सकें, हमारे ज़ेहन की हत्या को रोक सकें.

मंगलेश उनकी कविता ‘मैं चाहता हूं’ में कहते हैं ‘एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है/मसलन यह कि हम इनसान हैं’. जैसा ताकतवर जातियां, वर्ग, और सत्ताएं बिल्कुल नहीं चाहतीं, कि इंसान एक इंसान बना रहे. मंगलेश एकदम सरल वाक्य में एकदम सटीक टिपण्णी करते हैं.

‘अपनी तस्वीर’ कविता में वे लिखते हैं ‘… प्रेम जिस पर सारी चीज़ें टिकी हैं/कितना कम होता जा रहा है’. प्रेम का इतना कम होने का एक मुख्य कारण जाति है, जिसकी झलक हमें मंगलेश डबराल की कविता ‘केशव अनुरागी’ में दिखती है.

लोग कहते थे केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है
ढोल सागर के भूले-बिसरे तालों को खोजनेवाला बेजोड़ गायक
जो कुछ समय कुमार गन्धर्व की संगत में भी रहा
गढ़वाल के गीतों को जिसने पहुंचाया शास्त्रीय आयामों तक
उसकी प्रतिभा के सम्मुख सब चमकृत
अछूत के घर कैसे जन्मा यह संगीत का पंडित

लेकिन मैं हूं एक अछूत कौन कहे मुझे कलाकार
मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन महाराज जय हो सरकार …

मंगलेश डबराल लिखते हैं केशव अनुरागी एक बड़े कलाकार थे, एक बेजोड़ गायक और एक शानदार ढोल वादक. इतने शानदार कि उनकी कला के आगे सभी अचंभित. लेकिन, जाति की श्रेष्ठता लोगों को एक कलाकार की कला नहीं, बल्कि उसकी अछूत जाति दिखाती है. और एक कलाकार उसकी कला पर ध्यान देने की बजाय जैसे ताउम्र जाति से लड़ने और भागने के असफल प्रयास करता रहता है. ऐसे समाज में कलाकार के मरने के बाद भी जाति उसका पीछा नहीं छोड़ती.

केशव अनुरागी की ही तरह मंगलेश ‘अमीर खां’, ‘गुणानंद पथिक’, ‘ब्रेष्ट और निराला’, ‘मोहन थपलियाल’, ‘करुणानिधान’, और ‘दो कवियों की कथा’ (शमशेर और मुक्तिबोध की स्मृति में) कविताएं लिखते हैं. मंगलेश इन कविताओं में इनके कवियों की जाति का ज़िक्र नहीं करते. एक तरह से वे समाज की सच्चाई ही बयान कर रहे है. क्योंकि कलाकार की कला के साथ उसकी जाति की पहचान सिर्फ़ अछूतों के लिए ही होती है. सवर्ण कलाकार को जाति के खांचे से बाहर रखा जाता है. क्योंकि किसी भी तरह के खांचे में रखना, मतलब सीमित करना होता है. सवर्ण कलाकार की एक कलाकार मात्र के रूप में पहचान बनाई जाती है, जैसे उसकी कोई जाति नहीं है, जैसे वह निराकार है, जैसे वह असीमित है. लेकिन, जाति व्यवस्था में जाति तो सवर्ण कलाकार की भी होती है.

मंगलेश की कविता ‘कुशल प्रबंधन’ में उनका लिखना ‘अन्याय का पता न चलने देना अन्याय का कुशल प्रबंधन है’, जैसे हमें यहां बता रहा हो किसी की जाति का पता न चलने देना और किसी की जाति का पता चलने देना जाति व्यवस्था का कुशल प्रबंधन है. अतः अछूत के एक महान कलाकार और आम इंसान होने में ज़्यादा अंतर नहीं होता. ‘अछूत’ बनाए गए लोगों को लेखन में बार-बार अछूत लिखना और सवर्णों को जाति से मुक्त प्रदर्शित करना जाति व्यवस्था को मजबूत करना ही है.

ऐसी स्थिति में एक सार्थक उदाहरण हाथी और पांच दृष्टिहीनों वाली कहानी हो सकती है. एक कहानीकार को यह भी जोड़ देना चाहिए कि सभी के अपने-अपने सत्य होने के साथ एक पूर्ण सत्य यह भी है कि वह हाथी है, न कि सिर्फ़ सांप, या खंबा, या रस्सी, या पहाड़, जिसे सभी एक-दूसरे की मदद कर और अपनी-अपनी सहूलियत छोड़ एक पूर्ण सत्य जानने की कोशिश कर सकते हैं.

मंगलेश डबराल मानते हैं कि मनुष्यता के पक्ष में होने की एक अनिवार्य शर्त प्रेम के पक्ष में होना है. बेशक प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है. लेकिन जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र भेद इस प्राकृतिक प्रक्रिया का रास्ता रोके खड़े हैं. शायद ऐसी विकट परिस्थिति को भांपते हुए ही मंगलेश मनुष्य के अंदर प्रेम बचे रहने को एक साधारण नहीं बल्कि एक असाधारण क्रिया मानते हैं.

और आज के ऐसे क्रूर समय में जैसे मनुष्य बने रह पाना और अपने अंदर मनुष्यता/प्रेम बचाए रख पाना ही मानवजाति का सबसे बड़ा उद्देश्य है. और मुझे लगता है इस उद्देश्य को पाने का सबसे आसान तरीका अलग-अलग सामाजिक-राजनीतिक पृष्टभूमि के ईमानदार कवियों को पढ़ना हो सकता है.

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं.)