नई दिल्ली: साल 2012 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने संसद को आश्वासन दिया था कि निजता का अधिकार कानून बनाया जा रहा है. इस कानून का सबको बेसब्री से इंतज़ार था. उम्मीद थी कि यह सरकारी सर्विलांस के खिलाफ जनता के लिए सुरक्षा कवच का काम करेगा, क्योंकि इसमें स्पष्ट नियम होंगे कि सरकार नागरिकों की जासूसी कब कर सकती है.
कानून बनाते समय सभी हितधारकों की मांगों का ख्याल रखा जा रहा था, नाराज़ खुफिया अधिकारियों की भी. लेकिन अभी विधेयक तैयार हो ही रहा था कि सरकार बदल गई.
पिछली सरकार द्वारा दिए गए प्रारंभिक आश्वासन के तीन साल बाद, भाजपा के नेतृत्व वाली नवनिर्वाचित केंद्र सरकार ने भी 2015 में संसद को आश्वासन दिया कि निजता के अधिकार पर विधेयक लिखा जा रहा है.
लेकिन आठ साल बाद आखिरकार नई सरकार जो कानून लेकर आई, वह डेटा संरक्षण पर था, जो व्यक्तिगत निजता और अवैध सरकरी सर्विलांस से सुरक्षा के कानूनी अधिकार के वादों को धता बताते हुए, लोगों का डेटा एकत्रित करनेवाली कंपनियों और सरकार के लिए एक नियामक व्यवस्था बनाने पर केंद्रित था.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की जांच से पता चलता है कि जिस मंत्रालय का कार्यभार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास है, उसने निजता के अधिकार विधेयक को रद्द कर दिया, क्योंकि भारत की खुफिया एजेंसियों ने कानून से ‘पूरी तरह छूट‘ मांगी थी. सरकार ने खुफिया एजेंसियों की मांगें मानी, और संसद को कानून लाने का जो आश्वासन दिया था, उसे चुपचाप खत्म करने का काम किया.
लेकिन इससे पहले ही आरोप सामने आए कि सरकार ने इजरायली सेना द्वारा उपयोग किए जाने वाले स्पाइवेयर पेगासस के द्वारा आलोचकों और पत्रकारों की जासूसी की. इसके बाद, आईफोन का उपयोग करने वाले सरकार के आलोचकों को एप्पल से ‘सरकार द्वारा प्रायोजित‘ हमलों की चेतावनी मिली. जैसा कि रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पहले बताया है, जाति–विरोधी कुछ कार्यकर्ताओं के उपकरणों पर ऐसी फाइलें ऑनलाइन स्थानांतरित कर दी गई थीं जिससे वह दोषी लगें.
बाद में सुरक्षा एजेंसियों ने इन्हीं फाइलों को ‘बरामद‘ करने का दावा करके इन्हें भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ केस का हिस्सा बना दिया. गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं में से एक स्टेन स्वामी भी थे, जिनकी बाद में मृत्यु हो गई.
इस रिपोर्ट में बात इस बारे में कि कैसे मोदी सरकार ने निजता का अधिकार कानून लाने के संसद में दिए आश्वासनों से पल्ला झाड़ लिया. ऐसा करने लिए सरकार ने संसद में बताया कि नागरिकों के डेटा की सुरक्षा के लिए एक अलग कानून बनाया जा रहा है, और संसद में झांसा दिया कि निजता कानून का मसौदा तैयार किया जा रहा है.
आश्वासनों की शुरुआत
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार 2011 में नागरिकों का निजता का अधिकार सुरक्षित करने के एक विधेयक पर काम कर रही थी. इस प्रस्तावित कानून के शुरुआती मसौदे लीक हो गए थे, जिनके अनुसार इसका उद्देश्य था नागरिकों की निजता को कानूनी अधिकार के रूप में संहिताबद्ध करना.
विधेयक के मसौदे में ऐसे क्षेत्रों की पहचान की गई है जो किसी व्यक्ति की निजता के लिए आवश्यक हैं: बातचीत और दूरसंचार का संरक्षण, सम्मान और प्रतिष्ठा का संरक्षण, निजी और पारिवारिक जीवन की गोपनीयता, तलाशी और हिरासत से संरक्षण, शारीरिक और इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस से बचाव, वित्तीय और स्वास्थ्य जानकारी की गोपनीयता और अंत में, व्यक्ति से संबंधित डेटा का संरक्षण.
डिजिटल नीति पर नज़र रखनेवालों ने इस मसौदे पर अधिकारियों के बीच हुई चर्चा की समीक्षा की है, जिससे पता चलता है कि तत्कालीन अटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती ने जोर दिया था कि उन विशिष्ट स्थितियों को सूचीबद्ध किया जाए जब देश की एजेंसियां आपसी संचार की निगरानी कर सकती हैं. प्रधानमंत्री के तत्कालीन सचिव ने कहा था कि यह ‘प्रावधान‘ देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसियों द्वारा किए जाने सर्विलांस में बाधक नहीं होने चाहिए.
साल 2012 में सांसदों ने कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से पूछा कि क्या निजता का अधिकार विधेयक विचाराधीन है. एक सवाल यह था कि क्या प्रस्तावित विधेयक ‘व्यक्तियों और राजनेताओं‘ को ‘फोन टैपिंग और संप्रेषण की निगरानी‘ से सुरक्षा देगा. कांग्रेस के तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री ने कोई विशिष्ट जानकारी देने से परहेज किया और कहा कि विधेयक पर काम चल रहा है.
उनके इस बयान को सरकारी आश्वासन समिति ने एक आश्वासन के रूप में दर्ज किया, कि सरकार नागरिकों के लिए निजता के अधिकार को सुनिश्चित करने वाला कानून लाएगी.
अभी निजता कानून का मसौदा तैयार किया ही जा रहा था कि 2014 में सरकार बदल गई और नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई.
सत्ता में आने के फ़ौरन बाद नवंबर 2014 में सरकार ने संसद से अनुरोध किया कि वह निजता कानून पर दिया गया आश्वासन छोड़ दे, यानी निजता के अधिकार विधेयक की स्थिति के बारे में दोबारा न पूछे.
संसद से पीछा छुड़ाने के लिए, सरकार ने विस्तार से बताया कि प्रस्तावित कानून पर कितनी चर्चा हो रही है. सीधे प्रधानमंत्री के अधीन आनेवाले केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय ने विस्तार से बताया कि कैसे पिछली यूपीए सरकार के दौरान विधेयक में कई संशोधन हुए थे. इसने कहा कि 2014 तक एक और मसौदा तैयार हो चुका था.
भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद, अगस्त 2014 में केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कानून के मसौदा पर एक और बैठक की. यह तय किया गया कि खुफिया एजेंसियों और केंद्रीय गृह मंत्रालय से फिर से परामर्श किया जाना चाहिए.
सरकार ने विधेयक को संसद में पेश करने की कोई समयसीमा नहीं बताई. इसके बजाय, सरकार ने संसदीय समिति से अनुरोध किया कि वह विधेयक के बारे में पूछना बंद कर दे. समिति ने सरकार के अनुरोध को खारिज कर दिया और दिसंबर 2015 में सरकार से कहा कि वह विधेयक को संसद में पेश करे.
उसी महीने एक बार फिर प्रस्तावित कानून पर संसद में सवाल उठा. अन्नाद्रमुक के सांसद आरपी मारुथराजा ने 9 दिसंबर 2015 को प्रधानमंत्री से पूछा कि क्या सरकार ने ‘निजता के अधिकार विधेयक के दायरे से पूरी छूट की खुफिया एजेंसियों की मांग को खारिज कर दिया है.’
एक बार फिर केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के राज्य मंत्री ने कहा कि विधेयक का मसौदा अभी भी ‘प्रारंभिक चरण‘ में है और ‘विवरणों को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है‘ — इस सरकारी भाषा का मतलब था कि विधेयक में और समय लगेगा. लेकिन फिर भी यह जवाब थोड़ी राहत देने वाला था क्योंकि मोदी सरकार ने पहली बार आधिकारिक रूप से पुष्टि की थी कि वह भी निजता के अधिकार कानून लाने के लिए प्रतिबद्ध है.
इस जवाब को एक बार फिर समिति ने आश्वासन माना. तब तक प्रस्तावित निजता के अधिकार कानून पर 2012 से 2015 के बीच पांच आश्वासन दिए गए थे. चार सालों के भीतर दिए गए इन पांचों आश्वासनों में कहा गया कि सरकार विधेयक को अंतिम रूप दे रही है, जो अभी भी ‘प्रारंभिक चरण‘ में है.
दो साल बीत गए लेकिन विधेयक का कहीं अता–पता नहीं था. मार्च 2018 में केंद्र सरकार ने समिति को लिखकर फिर आश्वासन की समीक्षा बंद करने के लिए कहा. इस बार सरकार ने संसदीय समिति के सामने स्वीकार किया कि खुफिया एजेंसियां प्रस्तावित कानून से ‘सशंकित‘ थीं और ‘पूरी छूट‘ चाहती थीं.
सीधे शब्दों में कहें तो खुफिया एजेंसियां चाहती थीं कि जैसा चल रहा है वैसा चलता रहे और निजता कानून के रूप में एक नया सिरदर्द पैदा न हो. भूतपूर्व टेलीग्राफ अधिनियम (वर्तमान में दूरसंचार अधिनियम) जैसे कई भारतीय कानूनों के तहत सरकारी एजेंसियां इच्छानुसार संप्रेषण की निगरानी कर सकती हैं. निजता का अधिकार कानून इन प्रावधानों को खत्म कर सकता था, जिससे शायद नागरिकों पर सर्विलांस का प्रयोग करना कानूनी रूप से कठिन हो जाता.
आख़िरकार, सरकार ने कहा कि ‘निजता का अधिकार विधेयक आगे नहीं बढ़ सका.’ साफ़ शब्दों में कहें तो निजता का अधिकार विधेयक समाप्त हो चुका था.
समिति को आश्वस्त करने के लिए सरकार ने कहा कि केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय अब डेटा संरक्षण कानून पर काम कर रहा है, जिसमें ‘निजता के अधिकार विधेयक में मौजूद बहुत सारी नीतियां‘ शामिल होंगी.
सरकार ने आश्वासन समिति से कहा कि वह डेटा संरक्षण कानून का इंतजार करेगी और फिर तय करेगी कि क्या इसके बाद भी निजता के अधिकार कानून की जरूरत है.
करीब दो साल बाद, 20 जनवरी 2020 को संसद ने सरकार के अनुरोध को दूसरी बार खारिज कर दिया. समिति ने कहा कि ‘मंत्रालय ने जो कारण बताए हैं वह आश्वासनों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा तैयार किया जा रहे डेटा संरक्षण कानून का परिप्रेक्ष्य अलग है.’ समिति ने मंत्रालय से कहा कि वह “मामले को तेजी से आगे बढ़ाए और आश्वासन को जल्द से जल्द पूरा करे”.
एक साल बाद, फरवरी 2021 में सरकार ने आश्वासन को रद्द कराने की एक और कोशिश की. इस बार, वह समिति के पास एक नई जानकारी लेकर गई.
डेटा संरक्षण विधेयक 2019 लोकसभा में पेश कर दिया गया था और चर्चा के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था. सरकार ने कहा कि डेटा संरक्षण कानून आने के बाद, मंत्रालय देखेगा कि क्या ‘निजता संबंधी दूसरी चिंताओं को दूर करने‘ के लिए एक अलग अधिनियम की जरूरत है या नहीं.
इस बार सरकार अपने प्रयास में सफल रही. पहला आश्वासन दिए जाने के लगभग एक दशक बाद, संसदीय समिति ने सभी पांच लंबित आश्वासनों को फौरी तौर पर सूची से हटा दिया.
अगस्त 2023 में संसद ने कई पुनरावृत्तियों के बाद डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम पारित किया. यह कानून इस बात से संबंधित है कि निजी कंपनियां और सरकारें लोगों के डेटा को किस तरह प्राप्त कर सकती हैं और किस तरह उसका उपयोग और मुद्रीकरण कर सकती हैं. जबकि प्रस्तावित निजता का अधिकार कानून नागरिकों को निजता के अधिकार की गारंटी देने वाला था, नए डेटा संरक्षण कानून में कहीं भी ‘निजता‘ शब्द का उल्लेख नहीं है और सरकार को लोगों का व्यक्तिगत डेटा प्राप्त करने और प्रोसेस करने की पूरी छूट दी गई है.
सरकार की प्रवृत्ति धीरे–धीरे साफ हो रही थी. उसने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि नागरिकों को निजता का मौलिक अधिकार नहीं है, और फिर 2023 में दूरसंचार अधिनियम पारित करके निजता की धारणा को ही एक घातक झटका दिया. इस कानून ने केंद्र और राज्य सरकारों को कई ऐसी शक्तियां दे दीं जिससे वो दूरसंचार की निगरानी कर सकती थीं और यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए नेटवर्क टावरों को अपने कब्जे में ले सकती थीं.
यह बिलकुल वैसी ही शक्तियां थीं जिनसे निजता का अधिकार विधेयक भारतीय नागरिकों की रक्षा करना चाहता था.
दूरसंचार की निगरानी का प्रावधान यूपीए सरकार द्वारा पेश किए गए निजता अधिकार विधेयक के एक संस्करण में भी था, लेकिन प्रस्तावित कानून में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि ऐसी निगरानी केवल लिखित आदेश के साथ ही की जा सकती है. यह भी कहा गया था कि ऐसी निगरानी ‘कानून‘, ‘वैध उद्देश्य के लिए‘, ‘उचित अनुपात में‘ होगी और बिल में बताए गए ‘निजता के सिद्धांतों‘ के अनुरूप होगी.
फिलहाल, कम से कम सार्वजनिक जीवन में रहने वालों के लिए निजता का मतलब है,…’श्श्श रुको, ऐसे नहीं, मिलने पर बात करेंगे.’
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
यूपीएससी अभ्यर्थियों के लिए समान अवसरों की कमी
मार्च 2017 में अन्ना द्रमुक के सांसद टी. रथिनावेल ने कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से पूछा कि क्या सिविल सेवा के उम्मीदवारों को भेदभावपूर्ण परीक्षा पत्रों का सामना करना पड़ा है, जिससे उन्हें संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) परीक्षा में अधिक बार बैठना पड़ा है. वह यह भी जानना चाहते थे कि क्या अभ्यर्थियों ने समान अवसरों की मांग की है और केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए क्या किया है कि परीक्षा सभी के लिए निष्पक्ष हो.
जवाब में सरकार ने संसद को आश्वासन दिया कि उसे बसवान समिति की रिपोर्ट मिल गई है और यूपीएससी इसका अध्ययन कर रहा है.
बसवान समिति से सरकार का मतलब सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी बीएस बसवान के नेतृत्व वाली एक समिति से था, जिसका गठन, अन्य बातों के अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए हुआ था कि यूपीएससी परीक्षा में उम्मीदवारों के प्रति उनकी पृष्ठभूमि के आधार पर पक्षपात न हो.
कार्मिक मंत्रालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि ‘बसवान समिति की रिपोर्ट फिलहाल यूपीएससी के विचाराधीन है और रिपोर्ट पर यूपीएससी के सुझाव अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं.’
चार साल बाद, 2 दिसंबर, 2021 को सरकार ने आश्वासन समिति को सूचित किया कि यूपीएससी ने रिपोर्ट पर अपने सुझाव दिए हैं, लेकिन उनके बारे में विस्तार से नहीं बताया.
समिति ने इसे मामले का समाधान नहीं माना.
82 महीने बाद भी यह आश्वासन अभी तक लंबित है. हर साल औसतन दस लाख से अधिक अभ्यर्थी परीक्षा देते हैं, लेकिन संसद और जनता दोनों को पता नहीं है कि हाल के वर्षों में यूपीएससी की परीक्षा कितनी निष्पक्ष हुई है.
दिसंबर 2023 में केंद्र सरकार ने स्वीकार किया था कि बसवान समिति की रिपोर्ट अभी तक विचाराधीन है.
विचाराधीन: सिविल सेवा परीक्षाओं में आयुर्वेद
जब सरकारें कुछ करना नहीं चाहतीं, तो वे चीजों को लटका कर रख देती हैं.
अगस्त 2017 में सरकार से संसद में सवाल किया गया कि क्या सिविल सेवा परीक्षाओं में आयुर्वेद को वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करने का अनुरोध किया गया था, और क्या आयुष मंत्रालय ने औपचारिक रूप से इस मामले को अन्य सरकारी निकायों के साथ उठाया था.
कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने जवाब दिया कि ऐसा औपचारिक अनुरोध किया गया था, और यह मुद्दा सरकार के विचाराधीन है.
तब से, इस मामले पर कोई और खबर नहीं आई है.
वर्तमान में उम्मीदवार कृषि और समाजशास्त्र से लेकर इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग और साहित्य तक वैकल्पिक विषय चुन सकते हैं.
लेकिन यह स्वीकार करने के बावजूद कि उसका अपना आयुष मंत्रालय यूपीएससी परीक्षा में आयुर्वेद को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करना चाहता है, केंद्र सरकार इस विचार पर आगे नहीं बढ़ी है. ऐसा शायद इसलिए हो सकता है क्योंकि यह विधा स्वयं वैज्ञानिक रूप से अप्रमाणित है.
64 महीने बीतने के बाद आश्वासन अब तक लंबित है.
(यह रिपोर्ट मूल रूप से द रिपोर्टर्स कलेक्टिव पर प्रकाशित हुई है.)