बांग्लादेश से गुज़रते हुए: क़िस्त चार

बांग्लादेश के मूल्यों और संस्कृति के लिए घरेलू सांप्रदायिकता की अपेक्षा भारत में होने वाली मुसलमान विरोधी बयानबाज़ी और राजनीति ज़्यादा घातक है. भारत में मुसलमानों पर किए जा रहे व्यक्तिगत या संगठित अत्याचार हों, या अयोध्या और 'लव जिहाद' से संबंधित अदालती फैसले, इन सबका घातक प्रभाव बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता पर होता है.

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ढाका में 'पोहेला बैसाख' के अवसर पर निकली एक जात्रा. (फोटो साभार: Niloy/Wikimedia Commons)

बांग्लादेश की आज़ादी के पचास वर्ष होने पर दिसंबर 2021 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने द टेलीग्राफ में पांच लेखों की श्रृंखला लिखी थी. आज जो हालात बांग्लादेश में है, उसकी आशंका इन लेखों के लिखे जाते वक्त भी थी. 2018 के चुनावों में अवामी लीग को बहुमत मिला था, लेकिन इन चुनावों की निष्पक्षता पर ख़ुद उनके नेताओं ने सवाल खड़े किए थे. बांग्लादेश की वर्तमान राजनीति को समझने में मदद करते ये लेख उसकी आज़ादी में भारत की भूमिका, दोनों देशों में जनतंत्र का स्वरूप और यह एहसास कि यदि एक देश धर्मनिरपेक्षता के रास्ते हो छोड़ता है तो दूसरा भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सकता, बांग्लादेश की अभूतपूर्व आर्थिक उन्नति जैसे मुद्दों पर केंद्रित हैं.

इन लेखों की प्रासंगिकता को देखते हुए हम शुभेन्द्र त्यागी द्वारा किया इनका अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं. पहला, दूसरा और तीसरा भाग यहां पढ़ सकते हैं. 

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बांग्लादेश के एक सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भारी मन से इस बात को स्वीकार करते हैं, ‘हमारा पाकिस्तानी अतीत तो बीत चुका है लेकिन सांप्रदायिक ताकतों ने हमारा पीछा अभी भी नहीं छोड़ा है.’

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, ‘धर्मनिरपेक्षता और धार्मिकता की यह बहस समस्या तो है, पर कोई गंभीर समस्या नहीं है,’ उनकी इस राय से सभी सहमत हों ऐसा नहीं है. एक दूसरे व्यक्ति का मानना है, ‘अब तो धर्म हर जगह दिखाई पड़ता है, समाज के हर हिस्से पर धर्म का प्रभाव पहले से ज्यादा नजर आता है.’

हमारी बातचीत में मध्यस्थता कर रहे एक सज्जन मुझसे ऊंची इमारत की खिड़की से बाहर देखने के लिए कहते हैं, जहां अधिकांश औरतें हिजाब और बुर्के में नजर आती हैं और मर्द जालीदार टोपी और दाढ़ी में. एक गहरी सांस खींचते हुए वे कहते हैं, ‘धार्मिक आस्था का ऐसा खुला प्रदर्शन तो आजादी के पहले भी नहीं होता था.’

धर्म के समाज पर इतने व्यापक प्रभाव की वजह से हर राजनीतिक दल को इस नई सच्चाई के अनुरूप खुद को ढालना पड़ा है. 50 वर्ष पहले स्वतंत्रता आंदोलन में पकिस्तान का पक्ष लेने के कारण जनता के विरोध का सामना करने वाली जमात-ए-इस्लामी अब एक प्रभावशाली दक्षिणपंथी राजनीतिक संगठन है. ऐसे ही तबलीगी जमात भी है, जिसके वार्षिक आयोजनों में शासक दल समेत सभी दलों के नेता जुटते हैं. बांग्लादेश नेशनल पार्टी की विचारधारा जमात-ए-इस्लामी से प्रभावित है.

बांग्लादेश की सामाजिक परिस्थितियों को समझने वाले एक वरिष्ठ समीक्षक टिप्पणी करते है, ‘भद्रजन भले ही धर्म की अपेक्षा संस्कृति को महत्व ज्यादा देते हैं, लेकिन देहातों में धार्मिक कट्टरता ज्यादा प्रभावशाली है.’

लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था. बांग्लादेश के संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ को भारत से भी पहले अपनाया गया था; इस बात का जिक्र बांग्लादेशी गर्व से किया करते हैं. अपनी पुस्तक ‘बांग्लादेश: क्वेस्ट फॉर फ्रीडम एंड जस्टिस’ (UPL, Dhaka, 2013, p.142) में कमल हुसैन इस बात को स्पष्ट करते हैं कि ‘संविधान धर्मनिरपेक्षता की सफलता के लिए निम्न बातों पर जोर देता है (1) सांप्रदायिकता के सभी रूपों का उन्मूलन (2) राज्य द्वारा किसी राजनीतिक पद को किसी धर्म विशेष से संबंध रखने वाले व्यक्ति को दिए जाने पर रोक (3) राजनीतिक लाभ के लिए धर्म के दुरुपयोग पर रोक (4) किसी धर्म विशेष को मानने वाले के प्रति भेदभाव और प्रताड़ना का अंत.’

वे आगे कहते हैं, ‘बंगबंधु ने लीबिया के गद्दाफी के सामने अपनी बात को स्पष्ट शब्दों में रखा था, ‘हमारी धर्मनिरपेक्षता किसी धर्म की विरोधी नहीं है. हमारी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धार्मिक समुदायों के बीच सौहार्द्र.’ यही कारण है कि शेख हसीना ने धर्मनिरपेक्षता से संबंधित अनुच्छेदों को संविधान में फिर जगह दी थी जिन्हें सैन्य तानाशाही के दौरान संविधान से हटा दिया गया था.

एक अधिकारी का मनाना है, ‘अवामी लीग का हिंदुओं के प्रति व्यवहार उसकी नैतिक जिम्मेदारी भी है और राजनीतिक बाध्यता भी.’

इसके उलट मोहम्मद महमूद उल हक़ मार्च 2021 में लिखे गए अपने अप्रकाशित शोध पत्र, जिसे देखने का अवसर मुझे भी मिला, में लिखते हैं ‘भारत को प्रसन्न रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता को इतना महत्व और 7 प्रतिशत हिंदुओं को हर क्षेत्र में वरीयता दी गई है.’ क्या इसका कोई प्रमाण है? ‘बांग्लादेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश हिंदू थे, न्याय व्यवस्था में शीर्ष पदों पर अधिकांश हिंदू हैं, बांग्लादेश बैंक में, स्टॉक विनिमय में, वित्तीय संस्थानों में, हिंदुओं की बहुलता है, व्यवसायिक घरानों का भी उनसे ही ताल्लुक है.’ जिस समावेशी राष्ट्रवाद पर गर्व किया जाना चाहिए था. वे उस पर इसलिए क्रुद्ध हैं कि बांग्लादेश में सभी महत्व पूर्ण पदों पर हिंदू अल्पसंख्यक कैसे हैं. निश्चित ही 21वीं सदी के बांग्लादेश में सांप्रदायिकता जीवित है और फल-फूल रही है.

मुझे मालूम है कि धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद इतनी कमजोर है कि एर्डोगन (Erdogan) जैसा कोई भी इसकी इमारत आसानी से ध्वस्त कर सकता है. फिर बांग्लादेश में तो एर्डोगन जैसे न जाने कितने मौजूद हैं. ‘धार्मिक विविधता के प्रति संवेदनशीलता खत्म हो रही है. बांग्लादेश के देहात में मुल्लाओं का प्रभाव अधिक है (वहां नैतिकता को वे ही परिभाषित करते हैं), मध्यपूर्व के देशों के प्रभाव के कारण धर्म के प्रति झुकाव बढ़ रहा है.’

‘धर्मनिरपेक्षता से किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता’ बंगबंधु का यह ध्येय वाक्य शासन का सिद्धांत वाक्य अब नहीं है. नए हालात को देखते हुए शेख हसीना तथा उनकी पार्टी को खुद को बदलना पड़ा है.

‘शेख हसीना विपक्ष की फूट का फ़ायदा लेकर सत्ता में बनी रहती हैं.’ लेकिन यह ‘रणनीति’ कब तब सफल होती रहेगी? यह सवाल बुद्धिजीवियों के मन में है.

एक प्रमुख राजनेता जो लगातार चुनाव जीतते रहे हैं, दृढ़तापूर्वक कहते हैं, ‘हमें धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने की जरूरत है. किसी भी राजनीतिक दल को ऐसी ताकतों को बढ़ने की छूट नहीं देनी चाहिए.’ लेकिन कहना जितना आसान है करना नहीं. परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि हर राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता विरोधी ताकतों को थोड़ी बहुत जगह देने को मजबूर है.लेकिन इससे यह खतरा तो है ही कि सांप्रदायिकता का जिन्न एक न एक दिन बोतल के बाहर आ ही जाएगा.’

घरेलू सांप्रदायिकता की अपेक्षा भारत में होने वाली मुसलमान विरोधी बयानबाजी और राजनीति बांग्लादेश के मूल्यों और संस्कृति के लिए ज्यादा घातक है. एक बेबाक पत्रकार अपनी राय स्पष्ट जाहिर करते हुए कहते हैं , ‘हमें लगता था भारत धर्मनिरपेक्षता के रास्ते को कभी नहीं छोड़ेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तभी तो शेख हसीना ने कहा था कि बांग्लादेश में धार्मिक कट्टरता को रोकने के लिए भारत को भी अपनी भूमिका निभानी होगी.’ ऐसा करने के बजाय ‘आपके गृहमंत्री हमें दीमक कहते हैं.’

एक अन्य पत्रकार भी अपनी बात रखते हैं, ‘भारत को खुद के बारे में भी सोचना चाहिए. भारत की घटनाओं का असर बांग्लादेश पर भी होता है.’एक अन्य व्यक्ति बात को सीधे ही कह देते हैं, ‘हिंदुत्व का असर हमारे यहां भी पड़ेगा जिससे सीधे टकराव के हालात बन सकती है.’

असम कोई समस्या नहीं है, ‘हमारी उत्तरी सीमा मुख्य रूप से मेघालय से मिलती है और उन्हें कोई समस्या नहीं है. असम के साथ तो हमारी छोटी-सी सीमा हैं. हम पूर्वोत्तर राज्यों को अपने ही प्राकृतिक, आर्थिक दायरे के विस्तार की तरह देखते हैं हमें तो लगता है कि इस क्षेत्र में हमने अपनी आर्थिक क्षमताओं का ठीक से उपयोग भी नहीं किया है. हम भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को जितना निर्यात करते है, उतना पूरे भारत से भी नहीं होता है (इस दावे की जांच मैं नहीं कर पाया). इतनी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी नागरिक क्यों असम जाएंगे जबकि हमारी प्रति व्यक्ति आय असम से दोगुनी है.’

एक अधिकारी का कहना है, ‘हमने इटली में रह रहे कई हजार अवैध प्रवासियों को वापस लिया था. इसी तरह जो भी बांग्लादेशी नागरिक अवैध रूप से भारत में है हम उन्हे भी वापस लेने के लिए तैयार हैं लेकिन हम यह निराधार घोषणा नहीं कर सकते कि जो अपनी नागरिकता को प्रमाणित नहीं कर सकते वे सारे असमिया मुस्लिम बांग्लादेशी हैं. बात यह है कि दस्तावेजों के द्वारा यह प्रमाणित किया जाय कि भारत में बांग्लादेशी नागरिक अवैध ढंग से रह रहे हैं.’ इसीलिए हम असम को अपने देशों के बीच की कोई समस्या नहीं मानते. एनआरसी की प्रक्रिया में मुसलमानों से ज्यादा हिंदू अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए, जब इस बात का ज़िक्र हुआ तो मेरे साथ वो भी हंस देते हैं.

मुझे लगता है, असम में एनआरसी या नागरिकता (संशोधन) कानून की अपेक्षा रोहिंग्याओं का मामला बांग्लादेशियों के लिए हिंदुस्तानियों की इंसानियत परखने की ज्यादा बड़ी कसौटी है. इसका कारण शायद बांग्लादेश के पूर्व उच्चायुक्त (इसी कारण बांग्लादेशियों के लिए परिचित), और वर्तमान विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रिंगला का इस समय म्यांमार के आधिकारिक दौरे पर होना है जबकि मैं आजादी के उत्सव के लिए बांग्लादेश में हूं.

बांग्लादेश में जो यह मानते थे कि भारत ने रोहिंग्याओं के मुसलमान होने के कारण ही रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए वैसे प्रयास नहीं किए जैसे वह कर सकता था और उसे करने चाहिए थे; इस मामले में म्यांमार की सैन्य सरकार को मिले जन समर्थन के बाद उनकी राय अब बदलने लगी है. सरकार के एक समर्थक निराशापूर्वक कहते हैं, ‘शेख हसीना एक तरफ बौद्ध कट्टरता और दूसरी तरफ हिंदू कट्टरता के दो पाटों के बीच में हैं. ऐसी स्थिति में बांग्लादेश धर्मनिरपेक्ष कैसे बना रह सकता है?’

भारत में गोकशी का बहाना लेकर मुसलमानों पर किए जा रहे व्यक्तिगत या संगठित अत्याचार हों, मुस्लिम शासनकाल को शैक्षणिक पाठ्यक्रम और सामान्य जीवन के विमर्श में विकृत करना हो, मुगलों और अन्य मुस्लिम शासकों द्वारा विकसित सामासिक संस्कृति की अवमानना हो या अयोध्या और ‘लव जिहाद’ से संबंधित न्यायालय के फैसले हों, इन सबका घातक प्रभाव बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता पर होता है.

अब तक शेख हसीना की सरकार ने इस सबका सामना बुद्धिमानी से किया है. लेकिन आखिर वे कब तक ऐसा कर सकेंगी? जैसे पिछले सात साल में, सरकार के सक्रिय सहयोग से भारत में धर्मनिरपेक्षता का धीरे-धीरे ह्रास होने दिया गया है, तो फिर बांग्लादेश को भी इस सांप्रदायिक जहर से कब तक बचाया जा सकता है.

भारत में रहे बांग्लादेश के एक पूर्व उच्चायुक्त का कहना है, ‘सांप्रदायिकता बारूद की तरह है, जब आपको लगेगा कि यह ठंडी हो चुकी तभी अचानक उसका विस्फोट होता है.’

(मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख का अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी ने किया है. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)