बांग्लादेश से गुज़रते हुए: क़िस्त पांच

किसी भी देश में बहुसंख्यकवाद हो, उसका प्रभाव दूसरे देश की प्रगति को बाधित करेगा. दोनों देशों की छवियां भी इससे प्रभावित होंगी. यदि भारत और बांग्लादेश में से एक में भी धर्मनिरपेक्षता ख़त्म होती है तो ऊपर से चाहे जितने भी समझौते कर लिए जाएं, कभी अमन क़ायम नहीं हो सकता.

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भारत-बांग्लादेश सीमा. (फोटो साभार: Wikimedia Commons/Nahid Sultan/CC BY-SA 4.0)

बांग्लादेश की आज़ादी के पचास वर्ष होने पर दिसंबर 2021 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने द टेलीग्राफ में पांच लेखों की श्रृंखला लिखी थी. आज जो हालात बांग्लादेश में है, उसकी आशंका इन लेखों के लिखे जाते वक्त भी थी. 2018 के चुनावों में अवामी लीग को बहुमत मिला था, लेकिन इन चुनावों की निष्पक्षता पर ख़ुद उनके नेताओं ने सवाल खड़े किए थे. बांग्लादेश की वर्तमान राजनीति को समझने में मदद करते ये लेख उसकी आज़ादी में भारत की भूमिका, दोनों देशों में जनतंत्र का स्वरूप और यह एहसास कि यदि एक देश धर्मनिरपेक्षता के रास्ते हो छोड़ता है तो दूसरा भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सकता, बांग्लादेश की अभूतपूर्व आर्थिक उन्नति जैसे मुद्दों पर केंद्रित हैं.

इन लेखों की प्रासंगिकता को देखते हुए हम शुभेन्द्र त्यागी द्वारा किया इनका अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं. पहलादूसरा, तीसरा और चौथा भाग यहां पढ़ सकते हैं. 

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बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मेनन मुझे अच्छी तरह आश्वस्त करते हुए कहते हैं, ‘बांग्लादेश में शेख हसीना और भारत में नरेंद्र मोदी का कार्यकाल भारत-बांग्लादेश संबंधों का स्वर्ण काल है.’ यह सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता है. इसके बाद ज़मीनी हकीकत से वाकिफ बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के निकट सहयोगी भी कहते हैं, ‘हमारे रिश्ते आज से बेहतर कभी नहीं रहे. कोई ऐसा ज़रूरी मुद्दा अब नहीं बचा है. तीस्ता के पानी का विवाद भी लगभग हल हो चुका है.’

भारत में रहे पूर्व राजनयिक मानो इसी बात को जैसे आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘हमारे रिश्ते बिल्कुल सही रास्ते पर हैं.’ भारत के सबसे बेहतरीन राजदूतों में एक, भारत के वर्तमान उच्चायुक्त और संभावित विदेश सचिव विक्रम दौरैयास्वामी ने 7 सितंबर 2021 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ऑनलाइन आयोजित अनंत एस्पेन (Anant Aspen) व्याख्यान में दोनों देशों के सकारात्मक संबंधों का अनुमोदन किया:

‘पिछला दशक भारत बांग्लादेश के द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से अनुकूल और सफल रहा है. इस दौरान बांग्लादेश हमारा सबसे बड़ा क्षेत्रीय व्यापार सहयोगी (regional trade partner), विकास सहयोगी और खुले (मुक्त) पर्यटन का स्रोत बना, इसके साथ बांग्लादेश तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था भी है जहां भारत के निवेशकों और उद्यमियों के लिए अपार संभावनाएं हैं.’

(उद्धरण के आरंभ में ‘पिछले दशक’ पर ध्यान दें, अर्थात अवामी लीग का शासनकाल और इसमें वह दौर भी शामिल है जब अवामी लीग की सरकार नहीं थी, क्या यही बात भारत के बारे में भी सही है जब देश में दूसरी सरकार थी?)

इन आधिकारिक बयानों में और इसी विषय पर थिंक टैंक बैठकों में होने वाली चर्चाओं में, अनौपचारिक बातचीत में, खाने के वक्त होने वाली बहसों में जमीन आसमान का अंतर मुझे दिखा और इसने साधारण जनता की राय और आधिकारिक मूल्यांकनों के बीच की गहरी खाई को स्पष्ट कर दिया. दोनों के बीच इस अंतर का कारण शायद ज़मीनी हकीकत और लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं में अंतर है.

एक बैठक में मुझसे भारत की आलोचना से भरे तीखे सवालों की झड़ी लगा दी जाती है, यह बैठक खास मेरे लिए बुलाई गई थी ताकि मैं ‘सभी पक्षों की राय’ जान सकूं. बैठक में शामिल एक सज्जन कहते हैं कि बांग्लादेश में माना जाता है कि ‘शेख हसीना की सरकार भारत के कंधों पर टिकी हुई है.’ एक दूसरा व्यक्ति ऊंची आवाज में कहता है, ‘हसीना की सरकार के मंत्रियों को तो भारत ही नियुक्त कर रहा है.’ इसी बीच तीसरा व्यक्ति भी अपनी बात रखता है, ‘यह सरकार तो भारत की वजह से ही सत्ता में है.’ एक अन्य व्यक्ति रॉ (भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी) पर ‘अत्यधिक दखल’ का आरोप लगाता है.

जहां तक आजादी की लड़ाई में भारत के योगदान की बात है, एक सज्जन नरम आवाज में टिप्पणी करते हैं, ‘हम उसके लिए कृतज्ञ हैं लेकिन कृतज्ञता का निर्वहन जीवन भर तो नहीं किया जा सकता.’ एक दूसरा व्यक्ति आक्रामक रुख अपनाकर कहता है, ‘आजादी की लड़ाई को जरूरत से ज्यादा ही महत्व दिया जाता है.’ एक दूसरा व्यक्ति थोड़ा नरम रुख अपनाता है, ‘हम भारत से भाई जैसे आचरण की उम्मीद करते हैं, लेकिन उतार-चढ़ाव तो हर रिश्ते में होते हैं.’ भारत को दोषी मानने वालों से वे सहमत नहीं हैं.

एक अन्य व्यक्ति कहता है, ‘सोशल मीडिया पर भारत विरोध अधिक है.’ मैं उनसे यह नहीं पूछता कि ऐसा सोशल मीडिया की प्रकृति की वजह से है, या यह पूरे देश की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है.

इससे बिल्कुल अलग राय लगातार निर्वाचित होते रहे बांग्लादेश के एक राजनेता की है, जो चाहते हैं कि भारत बांग्लादेश के संबंध सिर्फ ‘स्थिर संबंध’ (stable relationship) तक सीमित न रहें, बल्कि ‘विशेष संबंध'( special relationship) के दायरे में पहुंचे और उससे भी आगे ‘रणनीतिक संबंध’ (strategic relationship) तक पहुंचे.

वे भारत और बांग्लादेश को एक दूसरे की विदेश नीति की परस्पर आधारशिला मानते हैं. उनका मानना है कि बांग्लादेश के प्राकृतिक आर्थिक क्षेत्र यानी पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेश की सुगम पहुंच (Connectivity) पर लगी ‘पाबंदियों को हटाकर’ नई ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमारी विदेश नीति में निम्न बिंदुओं पर जोर देने की सलाह देते हैं:

1. सांप्रदायिक तनाव का अंत
2. बाजार आधारित क्षेत्रीय सहयोग से गरीबी का उन्मूलन

इसके अलावा विशेष रूप से उनकी इच्छा है कि भारत के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone) रेखांकित किए जाएं जहां दोनों देशों की संयुक्त आर्थिक गतिविधियां संचालित हों; दोनों देशों के सहयोग से ब्लू इकोनॉमी अर्थात अपने अपने क्षेत्रों में महासागरीय और समुद्री संसाधनों का उपयोग; (मुझे अमेरिका के समुद्री भोजन उद्यमी (Sea food Entrepreneur) की कही बात याद आती है, ‘बंगाल की खाड़ी विश्व का एक मात्र इतना बड़ा जल स्त्रोत है जहा टूना मछली का संसाधन के रूप में ठीक उपयोग नहीं होता है); बांग्लादेश से होकर पूर्वोत्तर भारत तक भारत का बहुआयामी जुड़ाव (Multimodal Connectivity) में वृद्धि को सुनिश्चित करना.

वह पूर्वोत्तर व बांग्लादेश में जलीय संसाधनों के संयुक्त रूप से समुचित उपयोग पर बल देते हैं. वे इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि दुनिया की सबसे गरीब 4 करोड़ जनता भारतीय उपमहाद्वीप के इसी भाग में रहती है, जिसकी आर्थिक संवृद्धि भारत की आर्थिक वृद्धि दर को दहाई के आंकड़े तक ले जाने के साथ सबसे महत्वपूर्ण है. इस क्षेत्र की आर्थिक संवृद्धि आवागमन के लिए सुगम बांग्लादेश के लिए भी नई संभावनाओं के दौर खोलेगी.

यह बातें मेरे लिए अत्यंत सुखद अनुभव थी क्योंकि मैं भारत सरकार में उत्तर पूर्व क्षेत्र विकास मंत्री (DoNER) (2006-09), रह चुका हूं. तब मैनें भारत और बांग्लादेश सरकारों को इस दिशा काम करने के लिए तैयार करने का प्रयास किया था. लेकिन इस विषय के विदेश मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में होने और हमारे तत्कालीन उच्चायुक्त के अड़ियल रवैये के कारण खालिदा सरकार से कोई समझौता नहीं हो सका. लेकिन अब भारत के उच्चायुक्त ऊपर उद्धृत अपने व्याख्यान में प्रसन्नता से इस बात का ज़िक्र करते हैं:

‘विश्व बैंक का अनुमान है कि दोनों देशों जोड़ने वाले बुनियादी ढांचे जैसे रोड, रेल, भूमि पत्तन (Land Ports), आंतरिक जल मार्ग, कंटेनर टर्मिनल, माल ढुलाई, बंदरगाह और वायु सेवा बेहतर हो जाए तो बांग्लादेश का भारत को निर्यात 190% बढ़ जाएगा और भारत का बांग्लादेश को निर्यात 120% बढ़ जाएगा. यदि सीमा परिवहन नियमों (cross- border transport regulations) को थोड़ा सरल कर दिया जाए तो भी व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि होगी. जिसके असर से बांग्लादेश की जीडीपी में 19% वृद्धि होगी.’

फिर ऐसा होता क्यों नहीं है? क्या नियमों को सरल करना इतना मुश्किल है?

इस पर एक राय यह है कि बांग्लादेश से निर्यात होने वाले माल को बहुत देर तक बॉर्डर पर रोक के रखा जाता है; इसका कारण बताया जाता है चूंकि पश्चिम बंगाल के 40% अधिकारी या उनके संबंधी पूर्वी बंगाल से विस्थापित होकर आए हैं और ऐसा करके अपने विस्थापन का प्रतिशोध लेते हैं!

भारत के उच्चायुक्त का मानना है कि यदि दोनों देश, व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (यह सबसे बड़ा मुक्त व्यापार समझौता है) को लागू करते हैं तो बांग्लादेश द्वारा भारत को किए जा रहे निर्यात में 300% की वृद्धि होगी. अखिरकार दोनों देशों ने पूर्वी रेड क्लिफ सीमा विवाद को समाप्त करने की इच्छाशक्ति और क्षमता दिखाई है. भारत और बांग्लादेश ने तमाम आपसी समझौते किए हैं, जिनमें फरक्का, जलमार्ग से व्यापार और आवागमन, तटीय जहाज यात्रा, बस सर्विस, हवाई यात्रा, मजबूत ऊर्जा सहयोग से लेकर बॉर्डर हाट तक शामिल है. इतना सब होते हुए भी प्रस्तावित, व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (Comprehensive Economic partnership Agreement) को लागू करने में क्या दिक्कत है?

इसका कारण शायद वही है, जिसके कारण मोदी सरकार ने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ हुए ऐसे ही समझौते से हाथ खींच लिए: भारत के बाजार पर इन देशों की वस्तुओं का वर्चस्व.

भारत में रहे बांग्लादेश के पूर्व राजनयिकों की भारत के संबंध में निराशा मुझे चकित कर देती है. इन राजनयिकों में से एक का कहना है, ‘आधिकारिक बयान तो बनावटी और झूठे होते हैं. जो सच्चाई को छुपा देते हैं.’

वे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं सच तो यह है, ‘हम चारों ओर से भारत से घिरे हुए हैं.’ यह बात बहुत बड़ी बाधा भी हो सकती है और एक अप्रत्याशित अवसर भी. दोनों देशों में रहे राजनयिकों की जो एक दूसरे के देशों की जो स्मृतियां हैं, उनमें जमीन आसमान का अंतर है.

लगभग सभी भारतीय राजनयिक (कुछ अपवाद हो सकते हैं), बांग्लादेश में अपने कार्यकाल की सुखद स्मृतियों से लबरेज हैं. इसका कारण उन्हें ढाका में मिलने वाला अपार स्नेह है (ऐसा ही अनुभव मुझे कराची का है). लेकिन बांग्लादेशी राजनयिकों का भारत में अनुभव सुखद नहीं है.

जैसा एक सज्जन ने कहा, ‘इसका एक कारण तो हमारा इतिहास है जिसने अतीत को तो प्रभावित किया ही हमारे वर्तमान को भी प्रभावित कर रहा है’. इसका अन्य कारण भारत की लापरवाह नौकरशाही और उसके रूखे, अकड़ भरे व्यवहार से उनका सामना होना है. एक बहुत सफल माने जाने वाले उच्चायुक्त कहते हैं, ‘उच्चस्तरीय बैठकों में कोई समझैता होता है और जब तक अगली वार्षिक बैठक न हो पिछली बैठक में हुए समझौते पर कोई काम ही नहीं होता.’

सच कहूं तो मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ. जब मैं विदेश सेवा में था, तो मेरे वरिष्ठ अधिकारियों का निर्देश होता था कि जब तक बैठक में लिए गए निर्णय जमीन पर न उतार लिए जाएं तब तक मैं बांग्लादेश के अपने समकक्ष अधिकारियों पर दवाब बनाए रहूं. लेकिन दिल्ली में इतने शक्ति संपन्न उच्चायुक्त और कलकत्ता जैसे शहरों में भी वाणिज्य दूतावास होने पर भी बांग्लादेश के लिए ऐसा करना असंभव है. हमसे कहीं न कहीं बहुत भयानक भूल हुई है.

जूते चप्पलों के एक प्रमुख निर्यातक ने यह शिकायत की कि निर्यात माल पर उन्हें भारी हर्जाना देना पड़ा, क्योंकि भारत के अधिकारियों की यह शिकायत थी कि उनके सामान की गुणवत्ता भारत के स्तर की नहीं है. हालांकि उनका भेजा सामान जापान, कोरिया, और पश्चिम के देशों में उत्कृष्ट गुणवत्ता के लिए जाना जाता है. इसके बाद इस माल की गुणवत्ता की जांच के लिए चेन्नई के सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टिट्यूट भेज देते हैं. उन्हें बताया जाता है कि जब वहां से जांच होकर सामान आ जाएगा तभी इसे आगे भेजा जाएगा. वहां से जांच होकर कब आएगा इसका कुछ भी पता नहीं.

इसका एक कारण बताया जाता है, ‘भारत की नौकरशाही अकड़ू और घमंडी है, वह हमसे सम्मान का व्यवहार नहीं करती.’यह बात सही हो सकती, लेकिन बांग्लादेश में भी हालात इससे जुदा नहीं है, जहां बाबूशाही  के दबाव में सिएट (CEAT)  टायर की फैक्ट्री लगते-लगते रह गई. मेरा दोनों देशों से कहना है, आप जैसे अपने अपने देशों में कुछ भी करके, ले-देकर रास्ता निकाल लेते हैं, क्या ऐसा ही एक दूसरे के देशों में नहीं किया जा सकता?’

जब बांग्लादेश अपनी आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा है तब भारत-बांग्लादेश के संबंधों के सुधार के रास्तों में तीन मुख्य बाधाएं हैं.

सांप्रदायिक तनाव, जिसके कारण संस्थागत सुविधाओं के लाभ की बजाय हिंदू मुस्लिम मुद्दा प्रमुख बन जाता है.

सीमा सुरक्षा बल द्वारा सीमा पर होने वाली हत्याएं. इसका मुख्य कारण होता है भारत की गायों को बांग्लादेश के बूचड़खानों में तस्करी से बचाना और बांग्लादेशी प्रवासियों के अवैध प्रवेश को रोकना जिनके लिए अमित शाह का ‘दीमक’ शब्द का प्रयोग करते हैं. इस एक शब्द ने असम में एनआरसी से भी अधिक भारत बांग्लादेश संबंधों को नुकसान पहुंचाया है.

तीस्ता के जल बंटवारे और नदी घाटी विकास समझौते की पहल के बाद भी इनका लागू न होना.

हम इन मुद्दों को एक-एक कर देखें.

सांप्रदायिकता

युद्ध में घायल हुए एक स्वतंत्रता सेनानी जो अब पत्रकार हैं, स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘मोदी भारत बांग्लादेश के संबंधों के लिए सबसे बड़ा खतरा है. हमने कभी नहीं सोचा था कि भारत अपने धर्मनिरपेक्ष रास्ते को छोड़ेगा. अब जब शेख हसीना बांग्लादेश में सांप्रदायिकता से निपटने के बहुत प्रयास कर रही हैं, लेकिन वे तब तक सफल नहीं होंगी जब तक भारत भी अपनी भूमिका नहीं निभाएगा.’

भारत के एक हितैषी चिंतित होकर पूछते हैं, ‘क्या भारत धर्मनिरपेक्षता के रास्ते से भटक गया है’? तीसरा व्यक्ति कहता है, ‘दिल्ली में सत्ता में कौन होगा यह तो हमारे हाथ में नहीं है लेकिन भारत में अभी जो हो रहा है अगर ऐसे ही चलता रहा तो बांग्लादेश के लिए विकट समस्या होगी.’

सीधी-सी बात है किसी भी देश में बहुसंख्यकवाद हो, उसका प्रभाव दूसरे देश की प्रगति को बाधित करेगा. दोनों देशों की छवियां भी इससे प्रभावित होंगी. हिंदुत्व की राजनीति का सीधा असर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के रूप में दिखेगा. यही कारण है कि जब बंगबंधु और इंदिरा गांधी ने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया तो ‘धर्मनिरपेक्षता’ की साझा शपथ ली. यदि दोनों देशों से एक में भी धर्मनिरपेक्षता ख़त्म होती है तो ऊपर से चाहे जितने भी समझौते कर लिए जाएं कभी अमन कायम नहीं हो सकता.

रचनात्मक सहयोग, सांप्रदायिक सौहार्द्र में ही संभव है. सांप्रदायिक संबंधों यदि नहीं बचे तो कुछ भी बचा नहीं रह सकता. यह ‘स्वर्णिम काल’ बहुत नाजुक बुनियाद पर टिका है. यदि किसी भी देश में बढ़ती सांप्रदायिक घृणा इसकी बुनियाद पर आघात करती है तो इसकी कीमत दोनों ही देश चुकाएंगे.

दोनों देशों के एक विशेषज्ञ कहते हैं, ‘हम द्विराष्ट्र सिद्धांत के अभिशाप से तो मुक्त हो गए हैं लेकिन यह सोचने की भूल नहीं करनी चाहिए कि हम स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष बने रहेंगे.’

सीमा पर होने वाली हत्याएं

‘भारतीय सीमा सुरक्षा बल द्वारा की जाने वाली बांग्लादेशी नागरिकों की हत्या बांग्लादेशियों के लिए दुखद अनुभव है. भले ही इनकी संख्या कम है लेकिन हत्याएं होती तो निरंतर हैं’. इस बात पर आक्रोश बहुत व्यापक है. मैंने यही शिकायतें एक दशक पहले भी सुनी थीं. यह बहुत दुखद है कि इतने दिनों के बाद भी हम इसका हल नहीं निकाल सके.

भारत के एक हितैषी का कहना है कि दरअसल सीमा से सटी हुई अधिकांश भूमि पर खेती होती है, जहां खेत में मजदूर देर रात तक काम करते रहते हैं, जब आपको पता है कि आप रात में (दिन में भी) भारत और बांग्लादेशियो में फर्क नहीं कर सकते तो गोली क्यों चलाई जाती है. सिर्फ इसीलिए कि आप किसी भी कीमत पर मानव और पशु तस्करों को सीमा पार करने से रोकना चाहते हैं. हां, यदि आप उन्हें पकड़ते हैं तो उन्हें सजा दीजिए, लेकिन हत्या के लिए गोली क्यों चलाना? क्या हम सीमा पर दोनों ओर इतना स्थान आरक्षित नहीं कर सकते कि जहां सैनिक बिना हथियार के पहरा दें?

निश्चित ही भारत के पास इन सवालों के अपने जवाब हैं लेकिन जब बात जीवन की हो तो हल निकाले ही जाने चाहिए, न कि बात को दो पक्षों के विवाद में उलझा देना चाहिए. भारत का एक बना बनाया जवाब तो यही होता है ‘हिंदुस्तानी भी तो मारे जाते हैं.’

लेकिन यह कोई आश्वस्त करने वाला जवाब नहीं. साधारण लोग, वे चाहे किसी भी देश के हों, मारे जाते हैं, और यह रुकना चाहिए, बस इतनी सी तो बात है.

तीस्ता 

जब तक एक दशक पहले किया गया यह समझौता स्वीकृत होकर प्रभावी नहीं होता तब तक ये मुद्दा बना रहेगा और तब तक कुछ लोगों के लिए बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना भड़काना आसान बना रहेगा. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जब तक यह समझौता प्रभावी नहीं हो जाता तब तक पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर और बांग्लादेश, जो भौगोलिक रूप से साझा नदियों के मैदान का हिस्सा हैं, को विकसित नहीं किया जा सकता.

इस समझौते का महत्व दोनों ही देशों के लिए है लेकिन बांग्लादेश के लिए इसका महत्व ज्यादा है, क्योंकि जल प्रदूषण नदियों के मैदान में बसे इस देश के अस्तित्व के लिए ही संकट है. यह संकट इतना गहरा है कि एक मध्यस्थ का अनुमान है कि यदि बांग्लादेश में दुनिया भर के कचरे का घर बना रहा तो इस सदी के आधे बीतने पर बांग्लादेश में कोई भी स्वच्छ नदी नहीं बचेगी.

लेकिन इसके बावजूद भी मनमोहन सिंह और शेख हसीना की सरकार के बीच 12 साल पहले हुए नदी घाटी विकास समझौते में वह क्षमता है जो इस साझा प्रदेश में रह रहे करोड़ों हिंदुस्तानियों और बांग्लादेशियों के जीवन में चमत्कारपूर्ण बदलाव ला सके.

यह ठीक है कि ममता बनर्जी इसमें बड़ी बाधा हैं, लेकिन क्या भारत सरकार की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि उन्हें इसके लिए प्रयास करके मनाया जाए न कि उच्च स्तरीय बैठकों में उन पर अपनी बातें थोपी जाए. जहां उनकी सहमति ऐसी लगे जैसे वे पश्चिम बंगाल के हित के लिए नहीं बाहरी दवाब में कोई निर्णय ले रहीं हैं.

इस श्रृंखला के अंत में बांग्लादेश के एक पूर्व अत्यंत सहृदय राजनायिक की बात मेरे मन में बार-बार गूंजती है, ‘अब हमारे पास दो वर्ष भी शेष नहीं हैं.’ हमें दृढ़ इच्छाशक्ति से कोई कदम उठाना होगा. वरना, दो दशक भी काफ़ी न होंगे.

(मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख का अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी ने किया है. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)