सोचें, कोई व्यक्ति एवरेस्ट पर खड़ा है. वह शिखर पर अपने को शिव मान तांडव कर रहा है और एक दिन अचानक उसके पांव के नीचे की जमीन-बर्फ खिसकी, वह शिखर से लुढ़का तो क्या होगा? क्या वह तब तक लुढ़कता नहीं रहेगा जब तक पैंदे पर धम्म से गिरे नहीं! संभव ही नहीं जो वह वापस शिखर पाए या अधबीच कहीं थमे. फिर सत्य यह भी कि वह क्योंकि झूठे रास्ते, एकलखोरी से शिखर पर था तो न उसे मदद का कोई हाथ मिलेगा और न लुढ़कते हुए सही रास्ता सूझेगा. उलटे जो लोग तांडव की तुताड़ी या तबला बजा रहे थे वे भी मन ही मन प्रार्थना करते होंगे कि मुक्ति जल्द मिले.
इस सत्य को मैंने पहले भी भारत के चंद प्रधानमंत्रियों, गृह मंत्रियों पर लागू होते देखा है. और अब फिर वह नजारा है. मुझे प्रधानमंत्री मोदी को यूक्रेन जाते देख हैरानी हुई. जाहिर हुआ कि वे अभी भी अपने भक्तों को इतना नादान मानते हैं कि उनके विदेशी फोटो शूट से वे घर में वापस उनका कीर्तन बनवा देंगे. लेकिन आम लोगों की बात तो दूर भाजपा के सुधी समर्थक भी यह टिप्पणी करते हुए थे कि जब आदमी घर में पिटता है तो वह बाहर निकल पड़ोसी, गली-मोहल्ले के घरों के झगड़ों में हाथ-पांव मारता है ताकि घर में लोग सोचें देखो बाहर तो उसे दूसरे गले लगा रहे हैं.
हां, मनुष्य का यह मनोविज्ञान आम है. पर सोचें, वोलोदिमीर जेलेंस्की या व्लादिमीर पुतिन या शी जिनफिंग या अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन क्या ये सब नहीं जानते कि नरेंद्र मोदी घर में, अपने शिखर पर चार सौ पार की हवाबाजी में लुढ़क दूसरी पार्टियों की मदद से अब टिके हैं तो वे हैं क्या? जब उनका घर, पड़ोस, बांग्लादेश, दक्षिण एशिया में जलवा थोथा है तो बाकी जगह क्या कर सकते हैं?
जाहिर है विदेश का हर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अब नरेंद्र मोदी की यात्राओं को औपचारिक फोटो शूट से अधिक महत्व नहीं देने वाला. इसलिए यह भी लाख टके का सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी करें तो क्या करें? लुढ़कने के अलावा ऑप्शन क्या हैं?
सोचें, वे अपने देश में राहुल गांधी से गले नहीं मिल सकते. पिछले दस वर्षों में अपने द्वारा लोकतंत्र, राजनीति, समाज को खोखला बनाने की गलतियों को सुधारने, राजनीतिक टकराव, मीडिया टकराव, एनजीओ टकराव में सुलह-समाधान के रास्ते पर नहीं चल सकते और न किसी का दिल जीत सकते हैं. उन्होंने अपने अहंकार में सरकार के भीतर, राजनीति के भीतर, संसद के भीतर, भाजपा के भीतर, संघ परिवार के भीतर इतनी तरह की ऐसी-ऐसी खुन्नसें पैदा की हैं कि न मोदी उन्हें मिटाने के उपाय कर सकते हैं और न उन्हें कोई अब सुनने वाला है.
वे राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल को गले नहीं लगा सकते. नागपुर जाकर मोहन भागवत के गले नहीं लग सकते. बावजूद इसके गलतफहमी है कि जेलेंस्की और पुतिन के गले लग, यूक्रेन-रूस की लड़ाई में मध्यस्थ की फूं-फां से वे दुनिया और देश जीत लेंगे. घर में उनका पुराना जलवा लौट आएगा!
कोई न माने इस बात को, लेकिन सत्य है कि भाजपा के मंत्री, पदाधिकारी, संघ परिवार के संगठन और उनके नेता-पदाधिकारी सभी न केवल मोदी-शाह के लुढ़कने के अब तमाशबीन हैं, बल्कि मन ही मन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लुढ़ककर पैंदे में पहुंचने का इंतजार कर रहे हैं, ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं.
ताजा प्रमाण गुजरे सप्ताह जम्मू कश्मीर व हरियाणा के विधानसभा चुनावों में अमित शाह का हांफते हुए होना है. जम्मू कश्मीर, हरियाणा तथा झारखंड में मोदी, अमित शाह ने अनजाने में यह बतला दिया है कि तीनों राज्यों में वे हारने वाले हैं. झारखंड में हेमंत सोरेन की पार्टी से चंपई सोरेन को तोड़ने से लोगों में हेमंत सोरेन की इमेज और मजबूत हुई. भाजपा के प्रदेश नेताओं को भी समझ नहीं आया होगा कि जब उनके अपने इतने आदिवासी नेता (अर्जुन मुंडा, बाबूलाल मरांडी, नीलकंठ मुंडा आदि) हैं तो उस चंपई सोरेन को तोड़ने की अमित शाह, हिमंता बिस्वा की यह कैसी रणनीति जो खुद अपनी सीट पर अपने बूते आदिवासी वोट ले कर जीत नहीं सकता.
प्रदेश में शाह-हिमंता गैर-आदिवासी वोटों की गोलबंदी चाहते हैं या आदिवासियों से जीतेंगे? क्या इससे झामुमो-कांग्रेस के आदिवासी, ईसाई, मुसलमान तथा भाजपा विरोधी परपंरागत वोट ज्यादा गोलबंद नहीं होंगे? भाजपा के खांटी गैर-आदिवासी वोट निराश, उदास हो मतदान के दिन घर नहीं बैठे रहेंगे? भाजपा को रघुबर दास को ओडिशा से बुलाकर जमशेदपुर में बैठाना था या चंपई सोरेन से जमेशदपुर या समूचे कोल्हान के भाजपाइयों में जोश बनने की आस है?
लेकिन एवरेस्ट से लुढ़कते शेरपा इधर-उधर हाथ मारते ही गिरते हैं. गुजरे सप्ताह जम्मू कश्मीर और हरियाणा में अमित शाह की खीझ भी लुढ़कने का संकेत है. हिसाब से जम्मू कश्मीर और हरियाणा दो राज्यों को पहले चिह्नित कर विधानसभा चुनाव का फैसला मोदी-शाह की चतुराई थी. इन्होंने माना होगा कि दोनों राज्यों में कांटे की टक्कर बना कर एक राज्य में जीतने, दूसरे में हारने से ‘इंडिया’ गठबंधन के आगे जीत-हार की बराबरी होगी. लेकिन अमित शाह ने अब खुद ही संकेत दिया कि दोनों जगह भाजपा हार रही है.
अमित शाह ने राहुल-फारुक अब्दुल्ला की मुलाकात और गठबंधन पर जैसे तुरंत प्रतिक्रिया दी और हरियाणा विधानसभा चुनाव की मतदान तारीख आगे बढ़ाने की चुनाव आयोग से जो गुहार लगाई तो साफ अर्थ है उनका वोटों का हिसाब खाई में जाता हुआ है. निश्चित ही राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे का खुद श्रीनगर, फारुक अब्दुल्ला के घर जाकर मिलना और लचीले रुख से एलायंस बना लेने से कश्मीर घाटी में एकतरफा फैसला हो गया है.
यूं मैं आज भी मानता हूं कि जम्मू क्षेत्र में मोदी-शाह हिंदू बनाम मुस्लिम से हिंदुओं को गोलबंद करेंगे. लेकिन घाटी में अब महबूबा व इंजीनियर राशिद या और तरह से वोट बंटवारे की मोदी-शाह की रणनीति बेअसर रहनी है. राहुल गांधी की श्रीनगर और घाटी में जो केमिस्ट्री बनी है वह नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) की हवा बनाने वाली है. राहुल गांधी ने श्रीनगर में जिस बेधड़की से लोगों में संपर्क बनाया उसका प्रभाव अखिल भारतीय है.
उधर जम्मू में कांग्रेस व एनसी के मिलकर चुनाव लड़ने से इलाके के पुराने कांग्रेस नेताओं, चौधरी लाल सिंह आदि की मेहनत से कांग्रेस का पुराना वोट आधार जरूर कुछ लौटेगा. कांग्रेस उम्मीदवारों को हिंदू और मुस्लिम दोनों वोट मिलेंगे. इसलिए मोदी-शाह की जम्मू कश्मीर में जोड़-तोड़ से मुकाबला बनाने की रणनीति फुस्स है.
ऐसे ही हरियाणा में हो गया है. भाजपा की जाट बनाम गैर-जाट राजनीति की धुरी पर चुनाव की मूल रणनीति अब फेल है. सप्ताहांत की छुट्टियों से मतदान कम होने के अमित शाह के खटके का अर्थ है कि वे शहरी, मध्य वर्ग के उदासीन भाजपा मतदाताओं को लेकर परेशान हैं. दरअसल गिरता व्यक्ति हड़बड़ाहट में जो भी करेगा वह पुख्ता नहीं होगा.
हरियाणा में अमित शाह को कुलदीप बिश्नोई से आशा है तो बिश्नोइयों के मेले से वोट कम न गिरे, यह चिंता है. मतदान से पहले और बाद की तारीख की छुट्टी में शहरी भाजपाई परिवारों के वोट कम न पड़ें, यह भी चिंता है. याद करें, उस समय को जब बाहर रह रहे नौजवान मोदी के जिताने के लिए वोट डालने घर पहुंचते थे. लेकिन अब?
मोदी-शाह का हरियाणा चुनाव राम रहीम, राव इंद्रजीत, किरण चौधरी के तिनकों के बूते है. ये भाजपा के अनिल विज से उम्मीद नहीं करते लेकिन किरण चौधरी से वोटों की उम्मीद में हैं. न ही गुड़गांव, फरीदाबाद में पुराने भाजपाइयों, संघ के मजदूर संघ, स्वदेशी मंच आदि संगठनों के संगठकों से उम्मीद है. मोदी-शाह ने इनको औकात में रखा है तो ये क्यों न समय का इंतजार करें?
यूं भी मोदी-शाह-जेपी नड्डा ने सार्वजनिक तौर पर कह रखा है कि भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं है वही संघ परिवार के कथित अधिष्ठाता मोहन भागवत का भी सार्वजनिक ऐलान है कि वे तो एवरेस्ट पर बैठे भगवान हैं. उन्हें हम मनुष्यों की जरूरत नहीं है! इसलिए एवरेस्ट से लुढ़के भगवानश्री नरेंद्र मोदी और उनके चाणक्य दोनों हर उस जुगाड़ के लिए हाथ-पांव मारते हुए हैं, जिससे लोगों में वह भ्रम लौट आए कि वे अपराजेय हैं.
हां, मोदी-शाह अभी भी उस अंहकार में है जिसके चलते ये नहीं मानते कि वे एवरेस्ट शिखर से लुढ़क गए हैं. ये मानते हैं कि उनके पास और ब्रह्मास्त्र हैं. हरियाणा में कांग्रेस जीत भी गई तो उसके विधायकों को खरीदकर सरकार बना लेंगे. जम्मू कश्मीर में जम्मू के हिंदुओं को गोलबंद कर विधानसभा में किसी का बहुमत नहीं बनने दिया जाएगा. नतीजतन राष्ट्रपति शासन चलता रहेगा. झारखंड में हेमंत सोरेन व कांग्रेस में झगड़े करवाकर या शिबू सोरेन के परिवार में और तोड़फोड़ से विजयी ‘इंडिया’ एलायंस को सत्ता में लौटने नहीं देने जैसे ख्याल भी हैं. तभी चार विधानसभाओं में से दो में वे जुगाड़ में हैं ताकि देश-दुनिया मान ले कि मोदी-शाह का लुढ़कना रुका!
अपना मानना है मोदी-शाह कितनी ही चतुराई कर लें. तमाम चतुराइयां उलटी पड़नी हैं. सोचें, हरियाणा में मतदान की तारीख को आगे बढ़ाने के इस तर्क पर की मतदान की तारीख छुट्टी के बीच नहीं हो. मतलब शहरी, मध्यवर्ग भक्त वोटों पर भी यह अविश्वास की वे वोट डालने के बजाय घूमने जा सकते हैं. तो ऐसा तो असंख्य भाजपाई खुद करते हुए होंगे. पार्टी के भीतर भी ऐसा इंतजार करते कम नहीं है कि मोदी-शाह जम्मू कश्मीर, हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र सभी जगह लुढ़कें. जिस दिन ऐसा होगा मन ही मन योगी आदित्यनाथ से लेकर मोहन भागवत सभी के दिल-दिमाग में लड्डू फूटेंगे.
हालांकि विधानसभा चुनावों की पिटाई के बाद संभव है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हड़बड़ाहट में सीधे इजरायल व गाजा पट्टी जा पहुंचें. मध्यस्थता का नया फोटो शूट करवा फिर घर में यह ढिंढोरा बनवाएं देखो, उन्हें बेंजामिन नेतन्याहू और फिलस्तीनी हार पहना रहे हैं!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
(यह लेख मूल रूप से नया इंडिया वेबसाइट पर प्रकाशित हुए आलेख का संपादित अंश है.)