हाल ही में, कांग्रेस ने एक्स (पहले ट्विटर) पर 1947 की संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ. बीआर आंबेडकर और अन्य सदस्यों की तस्वीर पोस्ट की. इस पोस्ट के अनुसार, 29 अगस्त 1947 को मसौदा समिति नियुक्त हुई और आंबेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान के रचे जाने की शुरूआत हुई. इस तरह कांग्रेस पार्टी ने आंबेडकर की इस उपलब्धि का श्रेय भी लेने का प्रयास किया.
लेकिन डॉ. आंबेडकर उस शिखर तक कैसे पहुंचे? यह उल्लेखनीय है कि आंबेडकर को संविधान समिति में कांग्रेस ने नहीं भेजा था. कांग्रेस नहीं चाहती थी कि आंबेडकर 1946 में बंबई से प्रांतीय चुनाव जीत जाएं. हुआ भी ऐसा ही. इस हार के साथ ही संविधान सभा का हिस्सा बनने की आंबेडकर की संभावना कम हो गई थी.
आंबेडकर को संविधान सभा में शामिल करने के पीछे का श्रेय दरअसल उनके मित्र जोगिंदर नाथ मंडल को जाता है. जेएन मंडल उन दिनों अविभाजित बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार में मंत्री हुआ करते थे. जब आंबेडकर संविधान सभा में निर्वाचन न पा सके, मंडल ने मुस्लिम लीग की मदद से आंबेडकर को प्रतिष्ठित 296 सदस्यीय संविधान सभा के लिए निर्वाचित करवाया था.
भारत की संविधान सभा 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन योजना के तहत लागू हुई थी. संविधान सभा के सदस्यों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल, हस्तांतरणीय-वोट प्रणाली के तहत प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा चुना गया था. 1946 में बंगाल विधानसभा के चुनाव में कुल 250 सीटों में मुस्लिम लीग को 113 और कांग्रेस को 86 सीट मिली थीं. इसी बंगाल की विधानसभा ने आंबेडकर को संविधान सभा के लिए चुना था.
गौरतलब है कि विभाजन के बाद जेएन मंडल पाकिस्तान चले गए जहां वे मुस्लिम लीग सरकार में न्यायिक, विधायी, निर्माण और भवन मंत्री भी थे. वे पाकिस्तान की सरकार में कानून मंत्री और पाकिस्तान संविधान सभा के अध्यक्ष बने. लेकिन बहुत जल्द पाकिस्तान के इस सह-संस्थापक को निराश होकर भारत वापस आना पड़ा.
जब 26 नवंबर को भारत में संविधान दिवस मनाया जाता है, कितने लोग जेएन मंडल की भूमिका का उल्लेख करते हैं? क्या हमने कभी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती को इस विरासत को फिर से देखने का कोई प्रयास करते हुए सुना है? बसपा के संस्थापक कांशीराम ने भी आंबेडकर को संविधान सभा में जगह दिलवाने में जेएन मंडल की भूमिका का उल्लेख शायद कभी नहीं किया.
क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट अपनी किताब, डॉ. आंबेडकर और अस्पृश्यता, में लिखते हैं, ‘1946 में, आंबेडकर ने संविधान सभा में शामिल होने के लिए चुनाव लड़ा था, बॉम्बे में नहीं, जहां कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी थी, बल्कि बंगाल से, जहां मुस्लिम लीग की सरकार थी. और वह वहां से चुने भी गए.’
हालांकि, यह भी सही है कि जब विभाजन के दौरान बंगाल दो भागों में बंट गया, आंबेडकर की संविधान सभा की सदस्यता रद्द हो गई. और तब कांग्रेस ने उनका पूरी तरह समर्थन किया और उन्हें नए सिरे से संविधान सभा में भेजा.
लेकिन इस घटनाक्रम से इतिहास का वह अध्याय नहीं मिटता जब कांग्रेस आंबेडकर को चुनावी मैदान में हराना चाहती थी और उन्हें अपने गृह-राज्य से बहुत दूर जाकर मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा में प्रवेश लेना पड़ा था. यह विडंबना है कि कांग्रेस इतिहास के इस पहलू को नहीं स्वीकारना चाहती.
(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)