मंज़ूर एहतेशाम की ‘तमाशा’ अभाव और भव्यताहीन साधारण जीवन का चिर-परिचित सच है

कला हो या जीवन दोनों ही बस अंततः सफल हो जाने वाले नायकों के गुणगान गाते हैं. मंज़ूर एहतेशाम की कहानी ‘तमाशा’ इसके विपरीत संघर्षों में बीत जाने वाले जीवन की कहानी है, बिना किसी परिणाम की प्राप्ति के.

(इलस्ट्रेशन साभार: Pixabay/ Ria Kartika)

लेखक की प्रतिबद्धता अपने शिल्प से नहीं, बल्कि अपने परिवेश से होती है. यहां परिवेश का अर्थ व्यापक है. एक अर्थ उसकी प्रामाणिकता से भी जाकर जुड़ जाता है. कला को विश्वसनीय लगना ज़रूरी है तभी उसे पढ़ने वाले उससे कुछ सरोकार न होने पर भी एक जुड़ाव, एक आकर्षण महसूस कर सकेंगे. मंज़ूर एहतेशाम की रचनाओं में अपने परिवेश से जो प्रतिबद्धता दिखती है, वह चिर-परिचित न होने पर भी उससे गहरा संबंध स्थापित करवा देती है.

उनकी कहानी तमाशा इस एक दृष्टि से भी देखी जाए, तो हिंदी नहीं बल्कि आधुनिक भारतीय कहानियों की एक सुंदर मिसाल बन सकती है.

मंज़ूर एहतेशाम (1948-2021) का शुमार उस पीढ़ी के हिंदी रचनाकारों में होता है, जो नई कहानी और उसके बाद आने वाले कई कथा आंदोलनों की गिरफ़्त से बाहर निकल कर साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे थे. सत्तर के दशक के अंत से उन्होंने लेखन शुरू किया और उस जीवन को प्रायः अपने साहित्य में उठाया, जिसके प्रतिनिधित्व मात्र से साहित्य अधिक समावेशी और व्यापक हुआ है. सूखा बरगद (1986), बशारत मंज़िल (2004), पहर ढलते (2007) जैसे उपन्यास और रमज़ान में एक मौत (1982), तमाशा तथा अन्य कहानियां (2001) जैसे कथा-संग्रह उनकी यादगार रचनाएं हैं.

तमाशा कहानी में एहतेशाम वाकई एक क़िस्सागो हैं. ऐसा लगता है कि एक पूरी पीढ़ी को बैठकर अपनी स्मृति के संचित भंडार से निकाल-निकालकर कोई कहानी सुना रहे हैं. एक बंधे-बंधाए शिल्प में उनकी यह कहानी बैठ ही नहीं सकती. वह एक निम्न वर्गीय परिवार के अतीत और वर्तमान की कहानी बता रहे हैं और इस क़िस्सागोई में जीवन अपने सबसे साधारण, आडंबरहीन, गैरज़रूरी रूप में, बिना किसी भव्यता की अपेक्षा लिए हुए उभरा है. एक ऐसे हाशिये पर जीते चले आने को अभिशप्त जीवन जो न जाने हमारी आबादी के कितने बड़े हिस्से का सबसे चिर-परिचित सच है.

कथा के केंद्र में एक स्त्री है, पर लेखक ने उसे सिर्फ स्त्री होने के कारण अपनी संवेदना नहीं दी है, न ही उसके संघर्षों पर किसी तरह के तमगे देने का स्वांग रचा है. बिना किसी हृदयहीनता और बिना बेवजह के महिमामंडन या रोदन-गायन के अपनी सूत्रधार स्त्री को जिस संतुलित तटस्थता से एहतेशाम ने देखा है, वह साहित्य में स्त्रियों की एक ताज़ी छवि प्रस्तुत करता है.

कहानी सकीना आपा की है. लेखक के ख़ानदान की ही पर काफ़ी दूर-दराज़ की कोई रिश्तेदार, जिससे पारिवारिक संबंधों का अब कोई इतिहास उपलब्ध नहीं हैं, पर वह सबकी ज़िंदगी में उपस्थित है. एहतेशाम कब व्यक्तिगत जीवन को भी अपने समय और समाज से जोड़ देते हैं कि वह उस समय पर, उसकी नृशंसताओं पर एक टिप्पणी लगने लगता है. सकीना आपा की घनघोर ग़ुरबत का जिक्र करते हुए वह लिखते हैं:

‘उस ज़माने में जब की मैं बात कर रहा हूं यानि सन 1951-52 में, ऐसा नहीं कि सकीना आपा की मुफ़लिसी कोई अनोखी बात हो, हमारे मोहल्ले में लोगों की बड़ी तादाद उसी तरह सुबहो शाम करने पर मजबूर थीं.’

पर कहानी एक स्त्री के जीवन की सामाजिक निस्सारता को या बिना किसी दिलचस्प घटनाओं के गुज़ारी गई ज़िंदगी को जिस प्रामाणिकता से बयान करती है, वह भी अपने आप में एक ज़रूरी बात लगती है. ज़रूरी इसीलिए कि ऐसे तमाम जीवन जो अपने वर्गीय अंतरों, लैंगिकता, परिस्थितियों और संसाधनहीनता की  भेंट चुपचाप चढ़ा दिए जाते हैं, उनकी कहानी में किसी की दिलचस्पी नहीं होती है.

कला हो या जीवन दोनों ही बस अंततः सफल हो जाने वाले नायकों के गुणगान गाते हैं. ‘तमाशा’ इसके विपरीत संघर्षों में बीत जाने वाले जीवन की कहानी है, बिना किसी परिणाम की प्राप्ति के.

एहतेशाम एक ऐसे कोण से एक परिवार के जीवन को पकड़ते हैं, जहां हर फ़र्द का जीवन अपनी निजी विचित्रताओं में भी अनोखा है और जीवन से मिली प्रतिक्रियाओं में भी अनूठा. इसलिए बहुत मुमकिन होता है कि एक ही परिवार के जिन सदस्यों ने घोर मुफ़लिसी में जीवन बिताया हो और उसी की अगली पीढ़ी गरीबी का हर्फ़ तक न समझे. इस अर्थ में यह कहानी एक परिवार के इतिहास (जो बहुत पुराना न हुआ है) को उसके विभिन्न सदस्यों के द्वारा देखने की भी है.

सकीना आपा वह आम भारतीय स्त्री है, जिसका पूरा जीवन ही एक निस्संग-सी गुमनामी में बीतने के लिए अभिशप्त होता है. न शक्ल-शख्सियत ही ऐसी होती है कि लोग उन्हें याद ही रख सकें और न ही सामाजिक धड़े में ऐसा कोई मकाम कि याद रखना लोगों की मजबूरी बन जाए. बतौर लेखक ‘मैं कह ही चुका हूं कि सकीना आपा का कद-बुत, हड्डी-काठी सब ऐसे ही थे जिन्हें भुलाने में कोई दुश्वारी हो ही नहीं सकती थी.’

पांच औलादों से भरी-पूरी होने के बाद भी जिसके जीवन की सिर्फ एक ही परिभाषा थी- अभाव और उपेक्षा. मस्जिद के पिछवाड़े में बनी सात कोठरियों में से एक कोठरी में बमुश्किल जीवन गुज़र-बसर करती, जिनके पति का भी कोई अता-पता नहीं था. लेखक बतलाते हैं कि ‘थे इसी दुनिया में कहीं, लेकिन कहां, यह कम-से-कम सकीना आपा को नहीं मालूम था. वह अकेली औलाद की परवरिश करने को रह गई थीं.’

एहतेशाम की क़िस्सागोई की एक बात जो सबसे अधिक प्रभावित करती है वह यह कि कथा के प्रवाह में भी वह अपने सूक्ष्म सामाजिक विश्लेषण की डोर नहीं छोड़ते. अपने पाठक को चौंकाने के लिए नहीं बल्कि सच को अक्षरशः ज़ाहिर कर देने में वह कुशल हैं. सत्य अपने आप में इतना विचित्र, इतना विलक्षण होता है कि कल्पना को भी स्तब्ध करने के लिए काफ़ी है.

लेखक बार-बार यह कहते हैं कि जिस सूत्रधार की कथा कहने वह बैठे हैं उससे साधारण कहानी कोई हो ही नहीं सकती ‘आज मैं अगर सुननेवाले की हमदर्दी खो देने का ज़ोखिम उठाते हुए साफ़-साफ़ कहने की हिम्मत करूं, तो यह बिल्कुल सच है कि सकीना आपा और उनके परिवार से अधिक भुला दिए जाने लायक मैंने शायद ही कोई परिवार देखा या जाना हो.’

पर वह क्या है जिसके कारण इस निहायत ही साधारण-सी स्त्री की, उसके परिवार की कहानी उन्हें याद रह गई और उसे कहना ज़रूरी लगा.

संभवतः यह तथ्य जो कि हमारी सामाजिकता का वह सच बयान करता है, जहां लाखों-करोड़ों लोग एक बेहद साधारण जीवन जीते चले आते हैं. एक जीवन जिसमें बराबर यह भाव आता रहे कि चक्की के दो पाटों में पिसने के लिए वह अभिशप्त हैं. गरीबी और जहालत जिसमें बस जैसे-तैसे जीवन बिता दिया भर जाता है और सबसे बड़ी विचित्रता तो यह है कि जीवन के इन तमाम अभावों के बाद भी कुछ रुकता नहीं है.

एहतेशाम की सकीना आपा अपनी तमाम उपेक्षा और असमर्थता के बावजूद भी जी ही रही हैं. अपने ख़ुदा से उन्हें किसी भी तरह की शिकायत नहीं है, इसलिए जो थोड़े बहुत ख़ानदान के रिश्तेदार और अड़ोसी-पड़ोसी हैं उनसे भी उन्हें कोई गिला नहीं. वह ही सब के घरों में नियम से हाजिरी देती हैं, अपनी बातों और मज़ाकों से सबका दिल लगाए रखती हैं. वह लिखते हैं:

‘तो भी सकीना आपा अगर कुछ पल को भी घर में आतीं तो लोगों को हंसाना शुरू कर देतीं और यह हंसी उनके वापस जाने के बाद काफी देर तक घर में खनकती रहती.’

उनका जीवन इस अभाव का दूसरा नाम होकर भी उनकी दृष्टि में पूरा था. उनकी संतानों का पालन-पोषण उन्होंने अकेले ही सही, पर किया ही. बेटियां जमीला, शकीला, कनीज़ा, ज़ैनब और बेटे आलम सब ब्याहे ही गए. भले ही वह ऐसे यादगार संबंध न हुए हों, पर सामाजिक रीतियां निबाहना उनके जीवन की पूर्णता थी. कोई बेटी विधवा हुई, कोई बच्चे जनने में फ़ौत हो गईं और कइयों की किस्मत ने उन्हें परिवार की बदस्तूर मुफ़लिसी से बेहतर अवस्था में भी ला पहुंचाया, पर इन सब जीवन को तफ़सील में बतलाने में भी लेखक सभी के व्यक्तित्व और जीवन की विचित्रताओं को रेखांकित करना नहीं भूलते.

मसलन शकीला के संदर्भ  में उनकी यह टिप्पणी एक सामाजिक व्यवस्था को तो बतलाती है ही, उसके वैचित्र्य को भी दिखलाती है.

‘दरअसल जमीला के फौरन बाद शादी के लायक तो घर में शकीला थी, लेकिन उस ज़माने में उस पर अल्लाह मियां की गाय बनने और कहलाने का भूत सवार था. एक छोटी-सी कोठरी में भी उससे जितना बन सकता, वह पर्दा भी करती और इबादत भी.’

इस उत्तेजनाहीन टिप्पणी में निजी व्यक्तित्व की विचित्रता के पीछे सामाजिक रीति में पर्दा को निबाहने की मानसिकता ही काम कर रही है, जिसे आदतन स्त्रियों द्वारा अपने वजूद का ही हिस्सा बना लिया जाता है.

इसी तरह की वैयक्तिक विशिष्टताएं सबकी हैं. आलम जो जीवन भर मिस्त्री का हेल्पर ही बनने के काबिल था उसकी विचित्रताओं के संदर्भ में लेखक लिखते हैं:

‘अगर कोई आरा मशीन की सबसे लंबी हेल्परी जैसा रिकार्ड होता तो निस्संदेह आलम के नाम लिखा जाता. … आए दिन उसे अपने काम के ठीये बदलने पड़ते और ठीये बदलने का भी अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद आलम के नाम ही दर्ज होता. मिस्त्री तो खैर वह कभी बन ही नहीं पाया, मगर अत्तू मियां की मेहरबानी से सदा-सदा का हेल्पर ज़रूर बन गया.’

वहीं, जमीला के पति अत्तू मियां भी थे जो शादी के दस साल के अंदर ही अपाहिज, तीन बेटियों के बाप, जमीला को फिर से बीड़ी का सूपड़ा थामने और छोटे बच्चों को कुरान पढ़ाकर गुज़ारा करने पर मजबूर छोड़कर, दुनिया से रुखसत हो गए थे या कनीज़ा जो ‘बिना बोटी का हड्डी चमड़ा, सारे समय गोद में बीड़ी बनाने का सूपड़ा रखे, दुनिया को आंखें फाड़-फाड़कर देखने की कोशिश किया करती थी.

ऐसे न जाने कितने बारीक विवरण हैं जिनसे कि एहतेशाम अपनी कथा का ताना-बाना रचते हैं, पर इन विवरणों के माध्यम से वह एक ऐसे समय-समाज का चित्र रचने में सफल होते हैं, जो अपनी रवायतों में, सामाजिक सींकचों की ज़द में इतना गहरा धंसा हुआ है कि उससे ताउम्र छुट्टी नहीं मिलती.

जमीला जब अत्तू मियां के अत्याचारों से निजात पाने के लिए घर वापस आती, तो सकीना आपा का यह कथन उस सामाजिक रवायत को ही उघाड़ने वाला होता, जहां एक बार ब्याह दी गई बेटी को पीछे मुड़कर भी देखने की इजाज़त नहीं होती है. एहतेशाम सकीना आपा के मुंह से कहलवाते हैं: ‘यहां से गई हो, तुम्हारा घर है. जब चाहो यहां आ सकती हो. मगर बेहतर यही होगा कि अच्छा-बुरा जैसा भी हो, अपने घर ही जियो.’

यहां ऐसे पात्र हैं जो अपनी मानसिक विक्षिप्तता को भी अपनी वैयक्तिक विचित्रता के रंग में रंगकर जी रहे हैं. शहंशाह और नवाब, दो भाई, जिनमें से एक को अतिरिक्त साफ-सफाई का मर्ज़ था और नवाब जो होश और दीवानगी के बीच इधर-से-उधर सफर करता रहता था, उस पर दौरे पड़ते थे. ‘नमाज़ पढ़ने का दौरा, नमाज़ न पढ़ने का दौरा, मेहनत का दौरा, हाथ-पर-हाथ धरे रहने का दौरा.’

यह विक्षिप्तता संसाधनहीनता से भी उपजी हुई अधिक लगती है. मसलन, कनीज़ा जो मानसिक रूप से कमज़ोर है, विवाह के बाद गर्भधारण करने की पूरी यंत्रणा से अपनी विक्षिप्तता में कोई संगति नहीं बिठा पाती है. एहतेशाम उसकी तुलना उस परिंदे से करते हैं जिसका शरीर किसी पिंजड़े में कैद है.

‘वैसे भी उसे देखने पर दिमाग में किसी मजबूर परिंदे का ख्याल आता था, अब लगता वह परिंदा अपनी रिहाई की आस छोड़कर बाकी ज़िंदगी क़ैद समझकर काट रहा है.’

यह क़ैद की स्थिति सिर्फ शाब्दिक नहीं है, बल्कि उस सामाजिक विसंगति का परिणाम है जो बेमेल विवाहों से और बहुगुणित होता है. कनीज़ा की शादी अपने से तीस-पैंतीस साल बड़े शहंशाह से हो गई थी, जो अपने आप में एक त्रासदी थी. यह बेमेल विवाह उसमें जिस प्रकार के शारीरिक-मानसिक परिवर्तन लाता है, वह लेखक की दृष्टि से छुपा नहीं है. वह नोट करते हैं:

‘यह सही-सही कह पाना तो संभव नहीं कि उस जैसे कमज़ोर दिमाग की लड़की की समझ में शादी और औरत-मर्द के रिश्ते का मतलब क्या रहा होगा, लेकिन शादी के बाद मैंने उसे जब भी देखा, किसी खौफ़ में मुब्तिला, खुद को कपड़ों में बांधते-समेटते ही देखा. वह बड़ा बदलाव था, उस लड़की में जिसे कुछ दिन पहले तक अपने ओढ़नी-दुपट्टे का ख्याल तक नहीं रहता था.’

सब छोटी बेटी ज़ैनब तक आते-आते सकीना आपा की चिंता कुछ कम होती दिखती है, जब उसकी शादी एक अच्छे परिवार में हो जाती है, जो सकीना आपा के लिए भी अच्छे समय आने का धुंधला आश्वासन लाती है. पर जीवन ताउम्र सकीना आपा के लिए एक तमाशा ही बना रहा.

तमाशा का शीर्षक अपने आप में उन अनुभवों, जीवन स्थितियों का प्रतीक है, जहां व्यक्ति बस एक किरदार की भांति यंत्रचालित अपनी भूमिकाएं (अपेक्षित नैतिकताएं) निभाने के लिए बाध्य रहता है. इसलिए जैसे सकीना आपा स्वयं यह कहती रहती हैं कि ‘तमाशा है सब’, वह प्रायः उस जीवन की अंतहीन यंत्रणा के ही संदर्भ में ही है, जहां ज़िम्मेदारियां बनाते-निभाते व्यक्ति की एक पूरी उम्र निकल जाती है. इन तमाशों की पृष्ठभूमि में जो जीवन चलता है , ऐसा नहीं कि स्थिर या जड़ बना रहता है, बल्कि वह भी समय के परिवर्तनों से घिसता हुआ चलता ही है.

लेखक जो उन समय और उन जीवनों का साक्षी रहा है खुद को एक ऐसा बूढ़ा गिद्ध समझने लगा है, जो ऊंचे किसी दरख्त से बैठ निर्विकार दृष्टि से इन परिवर्तनों को देख रहा है. जीवन में आने वाले बदलाव जैसा कि एहतेशाम कहते हैं, ‘समझ में आ सकने वाले स्वाभाविक जीवन के पड़ाव थे. जो दो दिन खुश था, उसे तीसरे दिन मुश्किल का सामना और फिर उसका हल तलाश करना, सब जिस तरह आमतौर पर होता है, वह हो रहा था.’

पर लेखक यहां सिर्फ इन जीवनों का प्रत्यक्षदर्शी मात्र नहीं है, वह उन जीवन की दिशाओं से प्रभावित भी होता है. उसका खुद का जीवन भी इन जीवनों से आकार ग्रहण करता है. वह इन निरुद्देश्य जीवनों को देखने के बाद अपने या ख़ास तौर से इंसान के जीवन के विषय में भी उतना आश्वस्त नहीं रहता है.

‘दुनिया ने उम्र के साथ समझ या अनुभव के तौर पर मुझे जो दिया उसमें किसी आस या उम्मीद का पहलू कम था. मैं खुद के बारे में सोचसोचकर इसी नतीजे पर पहुंचा था कि एक कीड़ा हूं, जो कुछ सोच समझ भी सकता है, इससे ज्यादा हरगिज़ कुछ नहीं. जिस दिन सही मायने में कुछ समझ में आ जाए, इस उबाऊ सिलसिले को ही खत्म कर देना चाहिए. मैंने शादी न करने का फैसला किया था.’

यह निर्णय लेखक के अपने अनुभवों के कारण है, क्योंकि ‘अब्बा अम्मा को अच्छा न लगने के बावजूद, ऐसी कई औलादें थी जो पूरी निराशा के रूप में सामने आ चुकी थीं, जिन्होंने कहे पे बहुत खुश होकर शादियां की थीं.‘ पर वहीं सकीना आपा का जीवन अपनी तमाम रिक्तता के बावजूद भी बेउम्मीद नहीं था.

लेखक से सालों बाद जब वह मिलने जाती हैं तो उनके खाली घर में उन्हें बस दुल्हन की कमी लगती है. एक बार फिर हमें यहां लेखक के विचार अपने इर्द-गिर्द जीए गए जीवन के अनुभवों से ही प्रभावित लगते हैं: ‘क्या मिलता है, सकीना आपा, मैंने हंसकर बात टालने को कहा था-नालायक और बेमुरव्वत औलाद जो जब तक साथ रहती है, तो दुख देती है और फिर अपनी मर्जी से जीने को अकेला छोड़ देती है’.

पर कहानी किसी हताश अंत पर खत्म नहीं होती. वह जिसकी कहानी सुना रहे हैं, उसे इस तमाशे रूपी जीवन को जी लेना ही बड़ी उपलब्धि लगता है. सकीना आपा सालों बाद लेखक से मिलने किसी ज़रूरत की वजह से नहीं बल्कि उस खानदानी संबंध की गर्माहट को याद करने जाती है. वह अभावहीन जीवन के ‘होने’ और ‘न होने’ की बीच की छीना-झपटी मानती हैं और यह सब क़िस्मत की बातें हैं कि उनके और उनकी औलादों के हिस्से में ‘न होना’ ही आया.

लेखक भी अंततः जीवन का सार इन्हीं दोनों स्थितियों के बीच झूलते रहने को मानते हैं. और तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी नए नामों और नए चेहरों के साथ भागती रहती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)