हिंदी भाषा में उत्कृष्ट अकादमिक शोध कहीं कम क्यों है?

'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' के नारे के ज़रिये हिंदी का प्रभुत्व और दबदबा बनाने की बात बहुत हुई, लेकिन इससे हिंदी को कुछ भी ठोस नहीं मिला है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/DiplomatTesterMan/CC BY-SA 4.0)

इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में बताते हैं कि भाषाई आंदोलनों से भाषा जनता के लिए उनकी पहचान का एक शक्तिशाली प्रतीक बन गई. हिंदी के आरोपण की कोशिश और क्षेत्रीय भाषाओं का प्रतिरोध चलता रहा है. आज जब हम इन सबसे निकलकर थोड़ा आगे बढ़े हैं तब देखते हैं कि देश की राजधानी के प्रमुख संस्थानों जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में जो किताबें और लेख शामिल हैं जिन्हें ‘रीडिंग्स’ की संज्ञा दी जाती है, वे सभी अंग्रेज़ी में हैं. हिंदी में उनके अनुवाद अनुपलब्ध हैं.

इससे हिंदी माध्यम से आए छात्रों के लिए लड़ाई दोहरी हो जाती है, एक तो उन्हें कक्षा में अधिकांशतः अंग्रेज़ी में दिए गए लेक्चर को सुनना होता है, दूसरा कि पढ़ने की सामग्री भी केवल इसी भाषा में है. बांग्ला और तमिल में कुछ लेखों के अनुवाद भले मिल जाएं, हिंदी में नहीं हैं.

अपने चालीस वर्ष के जीवन में राहुल सांकृत्यायन ने कुल मिलाकर 134 किताबें हिंदी में लिखीं, संपादित और अनूदित की हैं. इतिहासकार राम शरण शर्मा  बताते हैं कि सांकृत्यायन कभी-कभी दिन के बीस घंटे भी काम कर जाते थे. महीने भर में उन्होंने हज़ार पन्ने की किताब सोवियत रूस पर हिंदी में लिख दी. वे चाहते थे कि हिंदी में ज़्यादा से ज़्यादा काम हो सके, और हर विषय पर किताबें लिखी जाएं और अनूदित हों. सांकृत्यायन की यह चाह हम कितनी पूरी कर पा रहे हैं?

उच्च शिक्षा में हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों की बौद्धिक बाधाएं

जब विद्यार्थियों को किसी विषय-विशेष की उपयुक्त किताबें और लेख हिंदी में नहीं मिलते, तब वे मजबूरन एक सामान्य पाठ्यपुस्तक से सभी विषयों, मुद्दों को कवर करने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से हो सकता है कि वे परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाएं, लेकिन अकादमिक रूप से उनका बहुत विकास  नहीं हो पाता. जिस विषय में वे स्नातक और परास्नातक कर रहे होते हैं, उसमें उनकी गहरी समझ नहीं बन पाती.

उदाहरण के लिए, अगर कोई विद्यार्थी आधुनिक भारत का इतिहास पढ़ रहा है, तो उसे हर विषय पर तमाम सामग्री चाहिए होती है. विभिन्न विद्वान अलग-अलग नजरियों से लिखते हैं, जोकि उनकी अकादमिक पृष्ठभूमि, मेथड, राजनीतिक झुकाव आदि से प्रभावित होते हैं. इतिहास-लेखन में या किसी भी सामाजिक विज्ञान में कई विचारधाराएं होती हैं: राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी, नारीवादी, एनाल्स स्कूल (Annales school), सबाल्टर्न स्कूल, उत्तर-आधुनिक इत्यादि. किसी भी विषय पर गहरी पकड़ बनाने के लिए यह ज़रूरी है कि विद्यार्थी इन सभी विद्वानों के कार्यों को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से पढ़ें. चूंकि यह पाठन सामग्री हिंदी में उपलब्ध नहीं है, आधुनिक भारतीय इतिहास का विद्यार्थी बिपिन चंद्र या शेखर बंदोपाध्याय या फिर स्पेक्ट्रम जैसी किताबों पर पूर्णतः निर्भर हो जाता है.

ऐसा नहीं है कि इन किताबों में कोई खामियां हैं, लेकिन उच्च शिक्षा के दृष्टिकोण से ये पर्याप्त नहीं हैं. अगर हम भारत के विभाजन को ही ध्यान में रखें, तो विभाजन के कारणों पर विद्वानों में काफी असहमति है. कुछ इतिहासकार इसे मुसलमानों की अलग पहचान की इस्लामी भावना से जोड़ते हैं, तो कुछ इसे भारत में व्याप्त सांप्रदायिकता- दोनों हिंदू और मुस्लिम- की पराकाष्ठा के रूप में देखते हैं. कुछ नए विद्वान जैसे आयेशा जलाल, जिन्हें ‘संशोधनवादी’ (revisionist) कहा जाता है, विभाजन के लिए कांग्रेस को भी गुनहगार मानती हैं. यह तो रही विभाजन के कारणों की बात.

कुछ इतिहासकार इस बात से भी असहमत हैं कि हमें इतिहास को सही से जानने के लिए ‘कारणों’ (causation) को जानने की ज़रूरत है. इन सभी बातों को सही से समझने के लिए कई किताबों का अध्ययन करने के अलावा कोई आसान तरीका नहीं है. और वे किताबें या उनके अनुवाद हिंदी में अनुपलब्ध हैं, इसलिए हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को सीमित ज्ञान ही मिल पाता है.

मानविकी की शिक्षा में अभिजात्यवाद

1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद तकनीकी और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में एक उफान आया, जिससे मानविकी और सामाजिक विज्ञान की मांग और लोकप्रियता में कमी आई― इसका सीधा संबंध नौकरियों की उपलब्धता और गुणवत्ता से है. मानविकी के विषयों में करिअर के आकर्षक रास्ते काफी सीमित हो गए. इसका नतीजा यह हुआ कि सामाजिक विज्ञान और मानविकी के विषयों में उच्च अकादमिक शिक्षा कुछ चंद लोगों के लिए ही रह गई, जिन्हें नौकरी पाने की अधिक चिंता नहीं थी. गरीब और वंचित वर्ग के छात्र, जो राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों से मानविकी की शिक्षा प्राप्त करते रहे, उनके लिए शिक्षा की गुणवत्ता काफी निम्न स्तर की रही.

इस संदर्भ में, सामग्री के हिंदी में उपलब्ध न होने ने इस समस्या को और बढ़ाया. साथ ही साथ, मानविकी की शिक्षा जो पहले से ही विशिष्ट थी और जहां उच्च वर्ग का दबदबा था, वह दबदबा इस समस्या के कारण और पुख़्ता हो गया.

हिंदी राष्ट्रवाद बनाम लोहिया का हिंदी प्रेम

‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के नारे के ज़रिये हिंदी का प्रभुत्व और दबदबा बनाने की बात बहुत चली, लेकिन वास्तव में इससे हिंदी को कुछ भी ठोस मिला हो, ऐसा नहीं है. इसके बरअक्स, डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन’ का बिगुल फूंका तो उसमें कुछ ठोस था, वह ठोस यह कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को ज़रूरी तरजीह दी जाए और पढ़ाई मातृभाषा में हो. उस वक़्त के कई समाजवादी नेता व कार्यकर्ता हिंदी में तो ज़ोरदार ढंग से अपनी बात रखते थे, लेकिन अंग्रेज़ी न सिर्फ़ बोलने बल्कि उनमें से कइयों को समझने में भी दिक्कत होती थी.

यह आंदोलन उन सभी का हिमायती बनता है और नारा चलता है- ‘गांधी-लोहिया की अभिलाषा, चले देश में देशी भाषा’. हालांकि यह नारा और यह आंदोलन उस दौर में प्रासंगिक था, लेकिन आज हम अंग्रेज़ी की ज़रूरत को बख़ूबी समझते हैं. अंग्रेज़ी में सीखने-समझने को बहुत कुछ है, वह अगर हिंदी में आ पाए तो इससे दोनों ही भाषाएं समृद्ध होंगी.

यहां हम हिंदी की महज़ संकुचित हिमायत नहीं करना चाह रहे हैं, बल्कि यह कहना चाह रहे हैं कि जिस भाषा के नाम पर दशकों से राजनीति हो रही है और नेताओं का अच्छी हिंदी में भाषण देना एक अधिक लोकप्रिय साबित होता आ रहा है, वहां हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए स्थिति ठीक नहीं है. हिंदी राष्ट्रवाद ने सिर्फ़ दबदबे का शिगूफ़ा छोड़ा, लेकिन अगर संपूर्णता में देखें तो इसने अकादमिक रूप से हिंदी की भाषायी गरीबी को बढ़ाया ही है, कम नहीं किया.

समाधान की दिशा क्या हो?

इससे निबटने के लिए दो काम करने की ज़रूरत है. एक तो बहुत ही व्यापक स्तर पर अनुवाद का काम. तमाम अकादमिक और लोकप्रिय साहित्य की पहुंच केवल अनुवाद की वजह से हिंदी माध्यम के छात्रों तक नहीं हो पाती. विकासशील समाज अध्ययन केंद्र (सीएसडीएस) ने भारतीय भाषा कार्यक्रम के द्वारा एक अच्छी पहल की है. प्रो. अभय कुमार दुबे ने हिंदी में ‘समाज-विज्ञान विश्वकोश’ लाकर और विभिन्न पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करके इसे काफ़ी आगे बढ़ाया है.

दूसरा काम यह हो कि अधिकाधिक मूल लेखन भी हिंदी में हो. विभिन्न शोधकर्ताओं और विद्वानों को यह करना ही चाहिए. रामचंद्र गुहा अपने एक लेख ‘द राइज़ एन्ड फॉल ऑफ द बाइलिंग्वल इंटेलेक्चुअल’ में बताते हैं कि कैसे लेखकों को अंग्रेज़ी के अलावा अपनी मातृभाषाओं और भारतीय भाषाओं में भी लेखन करना चाहिए, जिससे उनके मूल विचार उनकी मूल भाषा में भी आ सकें. यहां वह बंगाल के बुद्धिजीवियों का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कैसे वे अंग्रेज़ी के साथ-साथ बंगाली में भी अच्छा-ख़ासा लेखन करते हैं जो सुलभ है और पढ़ा जा रहा है.

हिंदी में पाठ्यसामग्री की कमी पहले से ही रही है, और प्रयासों के अभाव में इसकी निरंतरता बनी हुई है. हमारे जानने वाले कई दोस्त जिन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक किया, परास्नातक के लिए उनका चयन दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ, लेकिन जब उन्हें यहां आकर और दिल्ली के तमाम खर्चे वहन करने का विचार करने के बाद यह मालूम हुआ कि अधिकाधिक पठन-पाठन अंग्रेज़ी में है, और पाठ्य-सामग्री (रीडिंग्स) भी हिंदी में नहीं हैं, तब उन्हें मजबूरन अपना एडमिशन रद्द करके वापस जाना पड़ा.

इस समस्या को ख़त्म करने का एकमात्र तरीका यही है कि शोधकर्ता, शिक्षक और छात्र मिलकर इस दिशा में प्रयास करें कि हिंदी भाषा में अकादमिक काम अकूत मात्रा में हो और हम सभी उसे काम में लें.

(आयुष चतुर्वेदी और शशि सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए के छात्र हैं.)