जब उतरती है कैनवास पर कविता

आज कुंवर नारायण की जन्म तिथि है. पढ़िए कलाकार सीरज सक्सेना का यह खूबसूरत निबंध जो उन्होंने अपने चित्रों और कुंवर नारायण की कविताओं से बुना है.

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कुंवर नारायण और सीरज सक्सेना की कृतियां. (फोटो साभार: apvaad.blogspot.in/Siraj Saxena)

कुंवर नारायण जी का जन्म 19 सितंबर 1927 को हुआ. वे आज हमारे बीच होते तो सत्तानवे वर्ष के हुए होते. जब वे पचहत्तर वर्ष के हुए थे तब मैंने पहली बार उनकी कुछ कविता पंक्तियों को अपने सिरेमिक शिल्पों और पात्रों पर उकेरा था. अब लगभग इक्कीस वर्ष बाद फिर उनकी कविता पंक्तियों को अपने सिरेमिक पात्रों पर उकेरा, साथ ही कुछ चित्र कोलाज भी बनाए हैं.

उन्हें मैंने पहली बार भारत भवन भोपाल में वागर्थ की बाहरी दीवार पर लगी कुछ आदमकद तस्वीरों में देखा था. एक कवि की इतनी तस्वीरों को देख अचंभित होना स्वाभाविक था. यह वही समय है जब कविता मेरे जीवन में दाखिल हुई थी.

मेरा एक सिरेमिक स्टूडियो खुर्जा में है. इस स्टूडियो के असहज गर्म मौसम में कुंवर जी की कविता पंक्तियों के साथ अपनी तरल मिट्टी को छूना एक आत्मीय अनुभव रहा है. आंखों से होकर उंगलियों के स्पर्श से शिल्प के बाहरी सतह पर कवितांकन करना मेरे लिए कविता के साथ एक नवीन और संवेदनात्मक रिश्ता बनाने की तरह है. गोल, चौकोर या सपाट मिट्टी के पात्रों की देह से कविता का यह मिलन शुभ है. कविता मिट्टी की सतह पर उच्च तापमान में पककर जड़ नहीं होती बल्कि मिट्टी के संग इस समय अपनी संभावनाओं के साथ सुबह के पत्ते पर और की बूंद की तरह ठहर जाती हैं.

चमकते ग्लेज़ की पारदर्शी सतह से झांकती कविता बूंद की तरह लगती है. उसे पहले भी पढ़े जाने का अनुभव उसकी स्मृति को कुछ रोशन और तरल करता है.

कविता के साथ इस तरह होना रोमांचित करता है. कविता स्वयं अपने को तरह -तरह से प्रकट करती है पर सिरेमिक स्टूडियो में वह एक प्रिय सखा-सी देर तक साथ बनी रहती है.

कुंवर जी की कविता पंक्तियां जो मैनें अपने चीनी मिट्टी के इन पात्रों पर लिखी हैं उन्हें मैं रह रह कर दोहराता हूं. मैं दोहराता हूं कुंवर जी की कविता पंक्तियों में छुपा उनका आत्मविश्वास, जिजीविषा, प्रेम, आशा, स्वप्न और मनुष्यता.

एक शून्य है
मेरे और तुम्हारे बीच
जो प्रेम से
भर जाता है.

कुंवर जी को याद करते हुए, उनकी सौम्य उपस्थिति महसूस करते हुए अपनी चित्रशाला में मैंने यह रचना कर्म किया है. कुछ कोलॉज रचे हैं.

कुंवर जी पोलैंड के प्रति आकृष्ट थे. पोलैंड की गहरी छाप उनके मन पर छूटी है. वे यहीं विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा व नाज़िम हिक़मत से मिले थे. वे कई बार पोलैंड गए और इस देश के नए और खिलते हुए चेहरे को दर्ज किया.

मैं पोलैंड में उन जगहों, उन शहरों से गुजरा हूं जहां कुंवर जी रहे हैं.

पोलैंड मेरे लिए चित्रकला, सिरेमिक कला, लोक कला, संगीत व कविता का तीर्थ है जहां की मिट्टी मुझे अपनी मिट्टी महसूस होती है. पोलैंड की राजधानी वारसा के जिस होटल ब्रिस्टल में वे अपनी कविता के साथ उपस्थित थे उसी जगह चार वर्ष पूर्व मेरे दो चित्रों को दिखाया व संग्रहित किया गया है.

इन छोटे कोलॉज चित्रों के लिए पोलैंड में छपे मानचित्र की कतरनें मेरे चित्रों की भूमि है जो नेपाली राइस पेपर की हल्की पारदर्शिता में दिखाई देती हैं. अपने चित्रों में पोलैंड के मानचित्र की किसी पगडंडी पर कोलाज रचते हुए कई बार उन रास्तों पर चला भी हूं. मुझे याद आते हैं जर्मनी सीमा के पास बसा सिरेमिक कला के लिए मशहूर शहर बोलेस्वावियत्स, गरबातका, वारसा, क्रेकोव, षमिष और मेरे कुछ पोलिश कलाकार मित्र. चित्रों के इस भूगोल पर पीपल के पत्ते की उपस्थिति मुझे बुद्ध की उपस्थिति का एहसास कराती है तथा इन चित्रों में संगीन स्याही से उभरी रेखाएं किसी पोलिश लोकगीत की पंक्ति की तरह मुझे सुनाई देती हैं.

अपनी देसी भारतीय दृष्टि से यूं मैं अपने ही घर में रहते हुए पोलैंड की मिट्टी की महक और स्पर्श महसूस करता हूं. इस अनुभव, इस रचनात्मक अनुभव में कुंवर जी की कविता मेरे जीवन और चित्र में एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है.

हाल ही में मेरी कला प्रदर्शनी ‘शब्दों से नहीं’ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली में संपन्न हुई . इस प्रदर्शनी में मैंने कैनवास, कोलाज व चीनी मिट्टी में बनी कला कृतियां प्रदर्शित कीं. प्रदर्शनी का शीर्षक भी कुंवर जी की कविता पंक्ति से ही लिया था. इस प्रदर्शनी में कुंवर जी की कविता पंक्तियों को गैलरी की दीवार पर व दीवार पर लगी अपनी कला कृतियों पर देखना/पढ़ना पुस्तक में कविता पंक्तियां पढ़ने से भिन्न अनुभव था.

गैलरी की दीवार पर कविता पंक्ति अपनी दृश्य उपस्थिति में और अधिक मुखर रूप में दिखाई देती है, अपने अर्थ को और विस्तार देती हुई लगती है और नए ढंग से उस अर्थ को छू पाती है. कविता की यह मायावी उपस्थिति सच लगती है, जिसे न सिर्फ़ पढ़ा जा सकता है बल्कि छुआ भी जा सकता है. आंखों से होते हुए कविता पंक्ति का चाक्षुक अनुभव स्मृति पटल पर दृश्यरूप में भी अंकित होता है. स्मृति के इस लोक में यह अनुभव होता है जहां ‘न सीमाएं हैं न दूरियां’.

कविता पंक्ति दृश्य के साथ मिलकर एक नए भूगोल में अवस्थित होती है. कविता पंक्ति चित्रित सतह पर आकर और मुकम्मल हो जाती है. अब वह अकेली नहीं रहती. उसे चित्रित भूगोल में रंग, रेखा और रूप का साहचर्य मिलता है. दर्शक, पाठक के मन पर यह संगत एक रोमांचकारी, आनंद से भरा अनुभव छोड़ती है.

‘नदी बूढ़ी नहीं होती’

यह कविता पंक्ति पढ़कर कुछ ठिठक गया था. जैसे किसी ने बड़ी शालीनता से सच का ऐलान किया हो . फिर अपनी व अपने पुरखों की स्मृति में चहलक़दमी की और यक़ीन हुआ कि सच में नदी बूढ़ी नहीं होती.

जैसे किसी पहाड़ के रेखाचित्र को बिना रेखा के नहीं अंकित किया जा सकता पर हम जब पहाड़ पर होते हैं तो रेखा वहां से ओझल हो जाती है. पहाड़ की रेखा भ्रम है. रेखा रूप के साथ रहती ही है. यह भ्रम सत्य है. कवि का सत्य कलाकार/चित्रकार देखता है और कवि की उस पंक्ति में ठहरे सत्य को अपने चित्र या कलाकृति में अवस्थित करता है यह कला प्रयोग दर्शक और पाठक दोनों को रोमांचित करता है.

कुंवर जी की कविता में समाहित सकारात्मकता मैं अपने रंगों में महसूस करता हूं और इस पर भी यक़ीन करता हूं कि –

‘उसी ओर से उगेगा सूर्य
आशा से देखते हैं जिधर वृक्षों के शिखर’

मेरे इस प्रयोग में चित्र कविता का अनुवाद नहीं है और न ही कविता चित्र का. दोनों अपने-अपने भाषायी व्याकरण के साथ एक दूसरे के साथ हैं, एक युगल की तरह, दोनों माध्यमों को जैसे उन्हें एक दूसरे की ख़ुशबू पसंद हो.

इस प्रदर्शनी के दर्शकों का कुंवर जी की कविता और मेरे चित्रों से एकसाथ सामना पहली बार हुआ. दृश्य और भाषा के साथ वे नए ढंग से रूबरू हुए.

कविता समय की कई परतों को अपने साथ अपनी इबारत पर लेकर चलती है तो कलाकृति की देह भी रंगों, काग़ज़ों व रेखाओं की परतों से बनी होती है. कुंवर जी के काव्य संसार में ये छोटी-छोटी परतें छोटी-छोटी संपूर्णताएं हैं जो जीवन रचती हैं.

चित्र में आकर कविता कमल के पत्ते पर ओस की बूंद की तरह बनी रहती है. दोनों एकदूसरे में घुलते नहीं पर एक दूसरे से अर्थपूर्ण संवाद स्थापित करते हैं, अपनी अस्मिता खोए बग़ैर..