मांगती है सईदा पिछले तीस बरसों का हिसाब

पुस्तक समीक्षा: आज की मूलतः पुरुष केंद्रित पत्रकारिता के बीच पत्रकार नेहा दीक्षित अपनी किताब 'द मैनी लाइव्स ऑफ सईदा एक्स' में एक मुस्लिम महिला और असंगठित मज़दूर की कहानी कहने का जोखिम उठाती हैं.

(फोटो साभार: जगरनॉट प्रकाशन/इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

मुझे आज भी याद है 6 दिसंबर 1992 का वह दिन जब हिंदू उन्मादियों द्वारा बाबरी मस्जिद का क़त्ल कर दिया गया. मैं बेचैन सी अपने घर के गलियारे में टहल रही थी. मुझे कुछ ख़ाली-ख़ाली सा लग रहा था. लग रहा था इस मुल्क की तवारीख के साथ कुछ अघटित घट गया, जिसकी भरपाई कभी नहीं होने वाली थी.

मुझे नहीं पता था कि उसी वक्त हमारे शहर से तीन घंटे की दूरी पर स्थित बनारस की सईदा की ज़िंदगी में कुछ ऐसा घटने वाला था जो उसके जीवन के हालात बदल देगा हमेशा के लिए. जैसे इस मुल्क की तासीर बदल गई हमेशा के लिए. 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के 30 साल बाद 2020 में दिल्ली के करावल नगर में हुए दंगे तक इस मुल्क की नफ़रती रूह पूरी तरह से उघड़ चुकी है.

इन तीस सालों में बनारस के जुलाहे परिवार की सईदा के जीवन के संघर्ष की शानदार दास्तान है पत्रकार नेहा दीक्षित की किताब ‘द मैनी लाइव्स ऑफ सईदा एक्स’ (The Many Lives of Syeda X, जगरनॉट प्रकाशन). दरअसल ये सिर्फ सईदा की कहानी नहीं है, ये कहानी है असंगठित क्षेत्र में हर दिन खट रही उन असंख्य चेहरा रहित औरतों की, जिनके बारे में कोई सोचना नहीं चाहता.

नेहा दीक्षित का कहानी कहने का चयन शानदार है. हाशिये पर पड़ी एक मुस्लिम, महिला और असंगठित क्षेत्र के मजदूर की ज़िंदगी को उठाया है उन्होंने अपनी कहानी कहने के लिए. और यह कहानी कहते हुए वह समाज के सामने आईना रख देती हैं. जब आप अपने दिमाग को पुष्ट करने के लिए बादाम खाने को लिए उठाते हो तो आपकी आंख-आंख नाचने लगती हैं- करावल नगर की वे बादाम मजदूर औरतें. उनके कामों में बादाम को तोड़ना, साफ़ करना और उसे बेचने के लिए पैक करना आदि काम शामिल है.

12 से 16 घंटे के अनथक श्रम के बाद उन्हें मिलता था 23 किलो की बोरी बादाम साफ़ करने का केवल 50 रुपये. उन बादाम मजदूरों ने साल 2009 में एक सशक्त और लंबी हड़ताल की थी. यह दिल्ली के असंगठित मजदूरों की सबसे लंबे समय तक चली हड़ताल थी. दमन और गिरफ़्तारियों के बावजूद वे नहीं झुकीं. महिला मजदूर इस हड़ताल में आंशिक रूप से सफल हुई और अपने वेतन में केवल 10 रुपये की वृद्धि करवा पाई. हालांकि उन मजदूरों के लिए उस वक्त प्रतिमाह 300 रुपये की वृद्धि भी राहत देने वाली थी. सईदा एक्स भी उस हड़ताल में शामिल थीं.

सईदा शादी के बाद बनारस के लोहता में अपने बनारसी साड़ी बुनने के उस्ताद पति अकरम के साथ रहती थी. उनका पूरा कुनबा वहीं रहता था. 1992 में 6 दिसंबर को अचानक लोग चिल्लाने लगे ‘गुंबद गिर गया, गुंबद गिर गया.’ मेरी तरह ही वे लोग भी गुंबद के गिरने से ‘शॉक्ड’ थे. हालांकि मेरी और उनकी चिंता में फ़र्क था. मैं चिंतित थी इस मुल्क के मुस्तकबिल के लिए. वे चिंतित थे कि उनके वजूद को ही ढहा दिया गया था जैसे. हिंदू मुस्लिम समरसता का जो राग हिंदुस्तान में सालों से गाया जा रहा था, उसके रेशे-रेशे बिखर गए.

उसके बाद बनारस में दंगे हो गए. जब हम दंगे की बात कहते हैं, तो लगता है दोनों पक्ष एक दूसरे को मारने लगते हैं. लेकिन अब भारत में दंगों का मतलब है अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों का सफ़ाया. दरअसल आरएसएस और उसके बिरादराना संगठनों ने इसे बहुत व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया है. सरकार, पुलिस, न्यायपालिका सब उनकी जेब में है.

बाबरी मस्जिद गिराने के बाद बनारस में हुए दंगों के बाद सांप्रदायिक पीएसी ने सईदा के घर को ‘लूट’ लिया और ढहा दिया. उसके सूफ़ियाना मिजाज़ शौहर को दंगे का दोषी बताकर जेल में डाल दिया. पुलिस ने अकरम की इतनी पिटाई की कि 6 महीने बाद जेल से छूटने पर वह चलने के काबिल ही नहीं था. मायके में वह कितने दिन रहती. एक रोज़ अकरम ने उसकी इच्छा के ख़िलाफ़ उसे दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया.

1995 में 22 वर्ष की उम्र में सईदा अपने तीन बच्चों और शौहर के साथ दिल्ली आ गई. चांदनी चौक से सभापुर होते हुए अंततः करावल नगर में उसका ‘आशियाना’ बना. 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के दौरान एक बार फिर ‘जय श्री राम’ की फौज ने उसके घर पर हमला कर दिया. एक बार फिर वह बेघर हो गई.

इन 30 सालों में उसने एक असंगठित मजदूर के बतौर तकरीबन 50 नौकरियां की. नेहा दीक्षित ने बेहद तदनुभूति के साथ सईदा के 30 सालों की ज़िंदगी का रोज़नामचा लिखा है. ये 30 वर्ष सिर्फ सईदा की ही कहानी नहीं कहते बल्कि उन हज़ारों अनाम प्रवासी महिला मजदूरों की कहानी बताते हैं. इन तीस वर्षों में सईदा ने एक रोज़ के लिए भी छुट्टी नहीं की.

बेहद कम मज़दूरी में एक सीलन भरे कमरे से दूसरे सीलन भरे कमरे में काम बदलती रही. त्योहारों में भगवान के कपड़े सिलने से लेकर, राखी बनाना, फूल माला बनाना, फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान फुटबॉल सिलने का काम, नमकीन की फैक्ट्री में काम तो, साइकिल के पार्ट्स तो इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान के पार्ट्स बनाने का काम, तो भ्रूण का लिंग निर्धारण और गर्भपात कराने वाली क्लीनिक में काम करने तक सईदा ने न जाने कितने काम किए. अकरम पल्लेदारी और रिक्शा चलाने का काम करता. तमाम सारे पुरुष मजदूरों की तरह दारू पीने लगा. पुरुष लोग घर आधारित फुटकर काम करने को अपनी ‘मर्दानगी’ के ख़िलाफ़ समझते. घर चलाने की मुख्य ज़िम्मेदारी सईदा की ही थी.

सईदा ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहा. बड़ा लड़का शाजेब थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर बाइक मैकेनिक बन गया. और फिर एक हिंदू लड़की से दोस्ती के कारण उसे दिल्ली छोड़कर भागना पड़ा. छोटा बेटा सलमान स्कूल में सहपाठियों द्वारा 2002 में गोधरा के बाद ‘मुल्ले गाड़ी में आग क्यों लगाईं?’ का शिकार हो कर एहसासे कमतरी का शिकार हो गया. पढ़ाई छोड़ दिया और ‘मुस्लिम’ बन गया. एक रोज़ एक निर्माण कार्य में मजदूरी करते हुए छत उसके ऊपर गिर गई और वह मर गया. (गौरतलब है कि हमारे यहां निर्माण कार्य के दौरान मजदूरी करते वक्त प्रतिदिन 3 मजदूरों की मौत हो जाती है)

केवल बेटी रेशमा अपनी मां के कामों में हाथ बंटाते हुए भी इंटर पास हुई और इग्नू से ग्रेजुएट बन गई. एक मॉल में सफाई कर्मी का काम किया और फिर कंप्यूटर कोर्स करके उस समय नए-नए शुरू हुए पहचान पत्र के काम करने वाले एक जनसेवा केंद्र में नौकरी करने लगी. रेशमा अपने मां बाप को देखने वाली और घर चलाने वाली एकमात्र खुदमुख्तार संतान बन गई.

इन 30 वर्षों में सईदा को अपने लिए सोचने का वक्त ही नहीं मिला. काम करते-करते उसकी कमर दोहरी हो गई. मालिकों की लूट-खसोट बदस्तूर जारी रही. 16-17 घंटे काम करके भी उन्हें भरपेट रोटी नसीब नहीं थी. वेतन पूरी तरह से मालिकों की मनमर्ज़ी पर था. न्यूनतम वेतन मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं था. रहने के बेहद तकलीफ़देह परिस्थितियों में ज़िंदगी बसर हुई जा रही थी.

उधर पृष्ठभूमि में मोहल्ले के बेरोजगार लंपट हिंदू लड़कों की फ़ौज पेशेवर ‘गोरक्षक’ में तब्दील होते जा रहे थे. समाज की ‘हिंदू’ नसों में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले नफ़रत का ज़हर उतार चुके थे. चौक चौराहों पर वे गोरक्षा कम अपनी और दूसरी हिंदू बहनों और मुसलमान लड़कों पर ज़्यादा नज़र रखने लगे.

फिर 2020 में शाहीन बाग़ का शानदार आंदोलन होता है और भाजपा नेता अनुराग ठाकुर नारा लगाता है ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’… दिल्ली में दंगा भड़क उठता है. पुलिस की निगरानी में सैकड़ों लड़के मारे जाते हैं. सैकड़ों गिरफ्तार होते हैं. अधिकांशतः वे लड़के मुसलमान होते थे. करावल नगर के नाले में लाशें मिलने लगती है. वहशी लोगों की भीड़ सईदा के कमरे पर हमला कर देती है. सईदा, अकरम, रेशमा और उसके दोस्त को जान बचाकर भागना पड़ता है. सईदा की एक मजदूर सहेली उसके परिवार को पनाह देती है.

एक दंगे के बाद उजड़कर सईदा दिल्ली आई थी. बड़ी ज़द्दोज़हद करके ‘बसी’ थी कि तीस साल बाद फिर हुए दंगों में वह उजड़ गई. पर जीने की जिजीविषा है कि ख़त्म ही नहीं होती. इस बार रेशमा को नौकरी मिलती है और फिर ज़िंदगी के रण में वे उतर जा जाते हैं.

सईदा की ज़िंदगी के ये तीस साल केवल सईदा की ज़िंदगी नहीं है. ये भारतीय नवउदारवादी पूंजीवाद की हक़ीक़त है. ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों से छोटे उद्योग धंधों के तबाह होने के बाद शहर की ओर ‘मजदूर’ बनने के लिए लोगों के पलायन की दास्तान है.

भारत में कामकाजी औरतों का लगभग 82 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है. वे बेहद कम  वेतन पर निहायत नारकीय स्थितियों में जीवन जीने के लिए बाध्य हैं.

नेहा दीक्षित की किताब सईदा एक्स पढ़ते हुए याद आई ओप्टन सिंक्लेयर की ‘जंगल’. सिंक्लेयर की इस किताब में 20वीं शताब्दी के अमेरिका के पूंजीवाद का चित्रण है. हालांकि वे सर्वहारा मजदूर हैं, लेकिन पूंजीवाद ने किस तरह उनकी मांसमज्जा को चूसकर उनकी ज़िंदगी को नरक बना दिया था, इसका चित्रण पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

भारत के पूंजीवाद ने बड़ी संख्या में असंगठित मजदूर पैदा किए हैं जिनकी स्थिति आज 2024 में ‘जंगल’ के मजदूरों की ज़िंदगी से भी नारकीय है. ऊपर से सांप्रदायिकता का ज़हर उनकी ज़िंदगी को और भी नरक बना रहा है. याद कीजिए लॉकडाउन के बाद अपने घरों को पैदल लौटते मजदूर. जिन्हें उनके मालिकों ने रखने से इनकार कर दिया था. यही है भारत के ख़ूनी पूंजीवाद की हक़ीक़त!

नेहा दीक्षित की ये किताब 2020 में लॉकडाउन के ठीक पहले हुए दंगों के बाद ख़तम हो जाती है. लॉकडाउन के दौरान इन असंगठित मजदूरों की ज़िंदगी का क्या असर हुआ, इसका पता इस किताब से नहीं चलता. लेकिन संभवतः इस विषय पर लिखने के लिए नेहा को एक और किताब लिखने की ज़रूरत है. लेकिन यह समझना और रोचक होता कि पहले से इतनी मुश्किल जीते हुए लोगों का जीवन उस दौरान कैसे बीता.

नेहा दीक्षित बेहद सरल भाषा में इस किताब को संवेदनशीलता से अंजाम देती हैं. यह उनकी पहली किताब है. आज की मूलतः पुरुष केंद्रित पत्रकारिता के बीच नेहा एक मुस्लिम महिला और असंगठित मजदूर की कहानी कहने का जोखिम उठाती हैं. नौ साल के अथक परिश्रम के बाद वह सईदा के जीवन का जो चित्रण करती हैं, उस पर आप पूरा यक़ीन कर सकते हैं. आसान नहीं था उन अनाम मज़दूरों की ज़िंदगी में नज़दीक से उतरना और उसका लगभग फोटोग्राफिक चित्रण करना.

यह नेहा दीक्षित की अंग्रेजी में लिखी पहली किताब है, जो दूर तक जा सकती है.

(अमिता शीरीं सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)