कमोबेश हर जमीनी संस्था अपने सामाजिक प्रभाव को व्यापक बनाने की आकांक्षा रखती है ताकि उनकी सेवाएं और प्रयास अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकें. विस्तार की इस प्रक्रिया से न केवल वे अपने दायरे को बढ़ा सकते हैं बल्कि इससे उनकी सामाजिक पहचान भी मजबूत होती है.
हालांकि, यह यात्रा उतनी सरल नहीं होती जितनी दिखती है. नवाचार संस्थान, चित्तौड़गढ़ और कोटड़ा आदिवासी संस्थान, उदयपुर जैसी जमीनी संस्थाओं के साथ बातचीत से पता चलता है कि इसमें कई तरह की बाधाएं है.
पहचान बनाने और बड़े स्तर पर जाने में संस्थाएं कहां अटकती हैं?
बढ़ती ज़िम्मेदारियों और काम के बोझ के साथ संस्थाओं के सामने कई तरह की चुनौतियां आती हैं. इनमें प्रभावी प्रबंधन, वित्त, प्राथमिकताएं, नए अवसरों की पहचान, रणनीतिक दृष्टिकोण प्रमुख रूप से शामिल हैं.
1. सामुदायिक गतिविधियों तक सीमित आर्थिक संसाधन
जमीनी संस्थाओं के लिए स्थायी और नियमित वित्तीय स्रोत जुटाना हमेशा एक कठिन काम रहा है. नवाचार संस्था के अरुण कहते हैं, ‘हमारे पास ज्यादातर फंड अन्य संस्थाओं से होकर आते हैं. ऐसे में पहले से ही निर्धारित होता है कि इस धनराशि का उपयोग केवल सामुदायिक गतिविधियों के लिए ही किया जा सकता है. ऐसे में संस्था को बढ़ाने, कार्यकर्ताओं के क्षमता-विकास और अन्य जरूरी पहलुओं के लिए फंड की समस्या बनी रहती है.’
कुछ एनजीओ अपनी कार्यक्षमता और विकास की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों की खोज करने की बजाय अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं का इंतजार करते हैं. वे मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय दानदाता इन आवश्यकताओं को कुछ हद तक समझते हैं. एफसीआरए के मुद्दों के बाद ऐसा करना और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है.
2. संस्था की दीर्घकालिक प्राथमिकताएं
कोटड़ा आदिवासी संस्थान के निदेशक सरफ़राज का मानना है कि ‘संस्था का छोटा होना कोई बुरी बात नहीं है. अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि जैसे छोटे से गांव में काम किया लेकिन आज वह पूरे भारत के लिए एक मॉडल ग्राम बन चुका है. ऐसे और भी मॉडल ग्राम बनने चाहिए.’
आज कई समाजसेवी संस्थाओं में दीर्घकालिक दृष्टिकोण और स्पष्ट मिशन की कमी दिखती है जो उनके विकास और विस्तार में बाधा बनती है. समाज में स्थायी प्रभाव लाना एक लंबी प्रक्रिया है. हालांकि, अक्सर संस्थाएं इस लंबी प्रक्रिया के कारण बदलती सामाजिक चुनौतियों पर तो समुदाय के साथ जुड़कर काम करने के नवाचारों को प्राथमिकता देती हैं, लेकिन इसमें खुद को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई भविष्य की योजनाएं पीछे छूट जाती हैं.
3. मौजूदा मानव संसाधनों के उपयोग में चुनौतियां
कई एनजीओ बदलती चुनौतियों के अनुरूप खुद को ढालने में असफल रहते हैं, जिससे उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है. जमीनी संस्थाएं अभी भी अपने कार्यकर्ताओं की क्षमताओं का विश्लेषण करने, उन्हें उपयुक्त कार्य-क्षेत्रों में लगाने और उनकी चुनौतियों को समझने पर कम ध्यान देती हैं. बिना उचित कौशल और क्षमताओं के कार्यों का बंटवारा करने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं.
अरुण इस बात पर जोर देते हैं कि ‘जमीनी संस्थाएं समाज के बीच रहते हुए भी भूमिकाओं में बदलाव (शिफ्ट ऑफ रोल) को समझने की कोशिश नहीं करती हैं. वे अब भी अपने पुराने मिशन पर काम कर रही हैं और कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं.’
उपलब्ध मानव संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करने की नीति का अभाव संस्थान के विकास में बड़ी बाधा बनता है. इस स्थिति में, संस्थाओं का विस्तार करने का विचार अक्सर इस डर से रुक जाता है कि इससे समस्याएं और भी जटिल हो सकती हैं.
4. पेशेवरों की कमी
तेजी से बढ़ती तकनीक ने जमीनी संस्थानों की आवश्यकताओं को भी बदल दिया है. अरुण कहते हैं, ‘आजकल हर संस्था के पास वेबसाइट होना अनिवार्य हो गया है और समुदाय से जुड़ाव के लिए सोशल मीडिया भी ज़रूरी हो गया है.’
वह आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन तकनीकी रूप से सक्षम प्रोफेशनल्स (पेशेवर) कम वेतन पर और छोटे इलाकों में लंबे समय तक काम करने के इच्छुक नहीं होते. इसके अलावा, अब इस सेक्टर में भी लोग प्रोफेशनल (पेशेवर) हो गए हैं. वे अपने संस्थान से अधिक अपने रिज़्यूमे को मजबूत बनाने को प्राथमिकता देते हैं. हालांकि, पेशेवर होने में कोई बुराई नहीं है लेकिन इस सेक्टर में बदलाव लाने के लिए समय देना पड़ता है. उन्हें हमारी जैसी जमीनी संस्थाओं में रोके रखना वास्तव में एक गंभीर चुनौती है.’
यह भी देखा गया है कि प्रबंधन, फंडिंग प्रपोजल, डेटा विश्लेषण, प्रोजेक्ट रिपोर्ट आदि में तकनीक का योगदान पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ा है. ऐसे में, कम तकनीकी कौशल वाली संस्थाएं अपने लक्ष्यों को बड़े स्तर पर ले जाने में विफल हो जाती हैं.
5. क्षमता निर्माण के कमज़ोर तरीके
संस्थाओं को अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर रणनीतिक योजना, निगरानी, और मूल्यांकन जैसे तरीकों की आवश्यकता होती है. इसके लिए कर्मचारियों की क्षमता को लगातार बढ़ाना ज़रूरी है. सरफ़राज़ कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि संस्थाएं क्षमता-वर्धन पर काम नहीं करती हैं लेकिन इसके तरीके काफी पुराने हैं. हम अभी भी पुराने कंटेंट पर काम कर उसे अधिक प्रभावी बनाने पर ध्यान नहीं दे रहे हैं.’ कई संस्थाएं क्षमता निर्माण में निवेश करने से इसलिए भी हिचकिचाती हैं क्योंकि उनके पास इसके लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं.
6. सरकारी नीतियां
जटिल सरकारी नीतियां और अनुपालन आवश्यकताएं भी बाधा बनती हैं. कई बार समाजसेवी संस्थाओं पर कठोर सरकारी नियम और प्रतिबंध होते हैं जिससे उनके लिए अपने काम को बढ़ाना मुश्किल हो जाता है. सरफ़राज बताते हैं कि ‘हमारे पास दो अकाउंटेंट हैं. उनमें से एक तो सारा दिन बस सरकारी नियमों के 12ए, 80जी जैसे कागजों को पूरा करने में ही लगे रहते है. कागजों की जटिलता के चलते कई संस्थाएं एफसीआरए होते हुए भी बाहरी धन नहीं ले पाती हैं.’
अरुण इसमें जोड़ते हैं, ‘जब कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) की शुरुआत हुई तो एक उम्मीद जगी थी कि वित्तीय स्थिति बेहतर होगी. लेकिन बाद में कॉरपोरेट्स ने अपनी पसंद के विषयों पर फाउंडेशन चलाने शुरू कर दिए. इससे स्थानीय मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं के लिए वित्तीय मुश्किलें और बढ़ गईं. सरकार को इस पर भी गहराई से विचार और विश्लेषण करना चाहिए.’
बड़े स्तर पर काम करने के कुछ तरीक़े जो ज़मीनी संस्थाओं के लिए मददगार हो सकते हैं
भले ही जमीनी संस्थानों के पास अपनी कई चुनौतियां हैं लेकिन इनकी बेहतर समझ समाधान अथवा विकल्प तलाशने में भी मदद करती है. संस्थाएं चाहें तो अपने रास्ते खोज सकती हैं जिसमें ये विकल्प आपकी मदद कर सकते हैं:
1. वित्तीय संसाधनों की विविधता
संस्थाओं को आगे बढ़ने के लिए वित्तीय विविधता को बढ़ावा देते हुए धन जुटाना आवश्यक है. इसमें वे व्यक्तिगत दान, कॉरपोरेट साझेदारी और सरकारी अनुदान जैसे कई तरह के आर्थिक सहयोग को शामिल कर सकती हैं.
इसके साथ स्थायी फंडिंग की एक रणनीति विकसित करनी चाहिए और संभावित दानदाताओं के साथ संबंध बनाना चाहिए. सरफ़राज कहते हैं कि ‘आजकल धन देने वाले लोगों को डेटा पॉइंट, सटीक विषय बिंदु, मुद्दों पर स्पष्ट विश्लेषण चाहिए. इसके लिए हमें खुद को भी इस तरीके से तैयार रखना चाहिए.’ अरुण जोड़ते हैं, ‘राजस्थान में कई संस्थाओं के विषयवार वॉट्सऐप ग्रुप बने हुए हैं, जैसे – एसआर अभियान, बाल सरंक्षण अभियान. यहां लोग अवसरों को साझा करते रहते हैं. इसके अलावा, एक सुनियोजित धन के रूप में समुदाय के साथ मिलकर भी आय के स्त्रोत तलाशे जा सकते हैं.’
2. दूसरे दर्जे का नेतृत्व विकसित करना
सरफ़राज़ कहते हैं कि ‘अगर आपको अपने काम को बढ़ाना है तो ‘एकला चलो रे’ वाली अवधारणा को छोड़ना होगा. आपको अपनी लीडरशिप में युवाओं और मध्यम अनुभवी लोगों को मौका देना चाहिए और उन पर भरोसा करके आगे बढ़ना चाहिए.’ इस पर आई-पार्टनर संस्था में लीडरशिप भूमिका में कार्यरत निशा कहती हैं, ‘संस्थाओं का किसी एक कुशल नेतृत्व से आगे बढ़ पाना मुश्किल है, इसके लिए और लोग चाहिए होंगे. हमारी संस्था ने अगली पीढ़ी की लीडरशिप को हाल ही में तैयार किया है. हालांकि यह थोड़ी लंबी प्रक्रिया है, इसके लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा. साथ ही, इस प्रक्रिया में बहुत भरोसे और सहनशीलता की आवश्यकता है.’
नेतृत्व विकसित करने के लिए आजकल को-लीड का भी प्रचलन है. संस्था प्रमुख अपने साथ एक साथी को जिम्मेदारियां सौंपते हुए सिखाने का तरीका भी अपना सकते हैं. अरुण इसमें जोड़ते हैं कि ‘नेतृत्व विकास की आवश्यकता हर स्तर पर है. जमीनी कार्यकर्ताओं को भी संस्थान में अपनी तरक्की का अनुभव होना चाहिए. संस्थाओं को उनके लिए ऊपरी स्तर तक पहुंचने के रास्ते स्पष्ट करने चाहिए. इसके अलावा, अन्य समाजसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, और प्रशिक्षण संस्थानों के साथ सहयोग करके भी इस कमी को पूरा किया जा सकता है.’
3. तकनीक और नेटवर्किंग
जमीनी संस्थाओं को यह समझना होगा कि अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर संचार प्राथमिक कड़ी है. इसके लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग शुरू करना चाहिए. अब सोशल मीडिया और अन्य नेटवर्कों का उपयोग केवल समुदाय तक आपके कार्य को पहुंचाने या जागरूक करने तक सीमित नहीं रह गया है. ये दानदाताओं को आकर्षित करने, सोशल सेक्टर से जुड़े ग्रुप, चैनल, और अन्य संस्थाओं से नेटवर्किंग करने, आपकी तात्कालिक विषयों और आवश्यक अवसरों के बारे में जागरूक रखने का अवसर प्रदान करते हैं.
हालांकि अरुण कहते हैं, ‘वित्तीय जरूरतों के चलते अभी संस्थाओं के लिए वेबसाइट, ऐप जैसे माध्यमों पर आना आसान नहीं होगा. लेकिन सोशल मीडिया माध्यमों पर निरंतर अपडेट रहने से शुरुआत की जा सकती है.’
4. सरकारी नीतियों की समझ
एनजीओ को सरकारी नीतियों और कानूनी ढांचे की अच्छी समझ होनी चाहिए ताकि वे इन नियमों का पालन कर सकें और अपने कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा कर सकें. इसके लिए वे पेशेवरों या नेटवर्क से मदद ले सकते हैं, जो उन्हें इन नीतियों की समझ में मदद करेंगे. सरफ़राज़ दोहराते हैं कि ‘इस सेक्टर में अच्छी बात यह है कि यहां हर विषय पर संस्थाएं काम करती हैं. बस आपको अपनी नेटवर्किंग बनानी है. कानूनी ढांचे पर भी काम करने वाले बहुत लोग हैं. जिस तरह आप लोगों की मदद कर रहे हैं, वे भी आपकी मदद के लिए तैयार हैं. आपको बस उनसे जुड़ने की जरूरत है.’
कुल मिलाकर, जमीनी संस्थाओं को विस्तार करने में चुनौतियों को नकारा नहीं जा सकता है. लेकिन इसके लिए रणनीतिक और खुला दृष्टिकोण, लगातार सीखना, सहयोग करना, नेतृत्व विकसित करना और अपने समुदायों के साथ मजबूत संबंध बनाना आदि उनके आगे बढ़ने में सफलता की सीढ़ी बन सकते हैं.
(यह लेख पूर्व में आईडीआर की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है.)