मुग़ल सम्राट शाहजहां और उनकी पत्नी मुमताज़ महल के बड़े बेटे दारा शुकोह अपने समय के महत्वपूर्ण दार्शनिक, लेखक, शायर, चित्रकार और सूफ़ी साधक थे. अपने वक्त में उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने की कोशिश की लेकिन अंततः अपने भाई औरंगज़ेब के हाथों सत्ता के संघर्ष में हार गए, जिसके बाद उन्हें बंदी बनाकर मृत्युदंड दे दिया गया.
इतिहास के इस विशिष्ट पात्र के जीवन संघर्ष और उनकी वर्तमान प्रासंगिकताओं को हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने ‘दारा शुकोह – संगम-संस्कृति का साधक‘ में लिपिबद्ध किया है. इस किताब को हाल में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. प्रस्तुत है एक अंश:
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दुनिया–भर में सच्चे संत और साधक जब भी अपनी सोच का सच साहस के साथ कहते हैं तब सत्ताएं उनके ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती हैं और उनका जीना हराम कर देती हैं, उन्हें मार डालती हैं. सत्ताएं अनेक प्रकार की होती हैं. राजसत्ता से सहयोग करने वाली संस्कृति की सत्ता, धर्म की सत्ता और ज्ञान की सत्ता, सच कहने वालों की दुश्मन बन जाती हैं और उन्हें शहीद कर देती हैं.
इस प्रक्रिया के शिकार सुकरात, ईसा मसीह, मंसूर अल हल्लाज़, मीराबाई, दारा शुकोह और आधुनिक काल में महात्मा गांधी हो चुके हैं. सुकरात को ज़हर दिया गया, ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया, मंसूर की हत्या की गई, मीराबाई को भी ज़हर दिया गया पर वह जीवित रह गई, दारा शुकोह की घृणास्पद हत्या की गई और गांधी को गोली मार दी गई. ये सभी शहीद कट्टरतावाद, पुरोहितवाद और रूढ़िवाद के विरुद्ध अपनी सोच का सच कह रहे थे. वे राजधर्म के विरुद्ध सच्चे जनधर्म के उपासक थे, इंसानियत के पुजारी थे, इसीलिए उन्हें शहीद होना पड़ा.
जो धर्म नया होता है उसमें उतनी ही अधिक कट्टरता होती है. दुनिया के धर्मों के इतिहास को देखें तो इस्लाम सबसे नया धर्म था. उसमें कट्टरता और रूढ़िवाद बाकी धर्मों से अधिक था, यही नहीं उसमें उलेमाओं, क़ाज़ियों और मौलवियों की सत्ता अपने समाज और समय की राजसत्ता से जुड़ी हुई थी.
अपने जीवन के आख़िरी दिनों में औरंगज़ेब ने कहा था—
इस कथन को हमेशा याद रखो कि एक बादशाह के शब्द बंजर होते हैं.
वह यह कहना भूल गया कि शायरों, दार्शनिकों और संतों के शब्द उर्वर और अमर होते हैं.
दारा शुकोह शायर था, दार्शनिक था और सूफ़ी साधक भी था. इसलिए उसके शब्द, जो उसकी शायरी और उसकी लिखी किताबों में हैं, वे उर्वर और अमर हैं. सन् 1659 में दारा शुकोह की निर्मम हत्या की गई थी. तब से आज तक दारा की किताबें अनेक भाषाओं में बराबर छपती रही हैं और उनमें मौजूद विचारों के महत्त्व को ध्यान में रखकर उन पर अनेक निबंध और किताबें लिखी गई हैं.
दारा शुकोह एक महान अनुवादक भी था. उसने हिंदू धर्म–दर्शन की रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले 52 उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद (1657 ई.) किया. सन् 1801 में दारा द्वारा किए उपनिषदों के फ़ारसी अनुवाद का लैटिन अनुवाद छपा. इसके बाद ही यूरोप के दार्शनिकों को हिंदू धर्म–दर्शन का ज्ञान हुआ. इस प्रकार दारा शुकोह ने भारतीय दर्शन का अग्रदूत बनकर उसे यूरोप तक पहुंचाया और विश्वव्यापी बनाया.
उपनिषदों के साथ ही दारा ने श्रीमद्भगवद्गीता और योग वशिष्ठ का भी फ़ारसी में अनुवाद किया. इन अनुवादों को पूरा करते हुए उसे भारतीय दर्शन का ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने माना कि उपनिषदों में जो एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद है वह इस्लाम के एकेश्वरवाद के समान है. दोनों में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं है. इसी ज्ञान और समझदारी के आधार पर दारा ने फ़ारसी में मज्म ‘उल् बह् रैन और संस्कृत में समुद्र–संगम की रचना करते हुए इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच एकता स्थापित करने की कोशिश की.
दारा शुकोह के ज्ञान और चिंतन का दायरा केवल धर्म–दर्शन तक सीमित न था. वह भारत की मिट्टी से जुड़ा हुआ था. यही कारण है कि दारा ने भारत की कृषि–कला पर भी फ़ारसी में एक किताब लिखी थी जिसका नाम– नुस्खा दर फन्नी फलाहत है. यह किताब अंग्रेज़ी अनुवाद सहित सन् 2000 में सिकंदराबाद से प्रकाशित है.
इस फ़ारसी पुस्तक में भारत में पैदा होने वाले विभिन्न फलों, सब्ज़ियों और अनाजों के पैदा करने के तरीक़ों का ब्योरा दिया गया है. इस किताब में लगभग 100 क़िस्मों के फलों और अनाजों को बोने और पैदा करने के तरीक़ों का वर्णन है. यही नहीं, उसमें गेहूं, जौ, धान, नारियल, कपास, जैतून, कुम्हड़ा, प्याज़, अमरूद, अंगूर, सेब, आम, केला आदि को पैदा करने के लायक़ ज़मीन, जलवायु और मौसम का भी वर्णन है. आधुनिक काल से पहले भारत में जो अनाज, सब्ज़ी तथा फल पैदा होते थे, उनका वर्णन भी इस किताब में मिलता है.
एक प्रकार से यह किताब कृषि के इतिहास की किताब है. एक राजकुमार द्वारा लिखी यह किताब उसकी जनसामान्य से जुड़ने की प्रवृत्ति का परिचायक है. यद्यपि राजकुमार होने के कारण वह उपभोक्ता वर्ग से जुड़ा हुआ था लेकिन यह किताब लिखकर उसने यह साबित किया कि वह उत्पादक वर्ग और उसके श्रम संबंधी कामों को भी ठीक से जानता था और उनकी कृषि संबंधी गतिविधियों में मदद करना चाहता था.
दारा शुकोह शायर भी था. उसके जीवन और लेखन पर लिखने वाले सभी लोग यह स्वीकार करते हैं कि वह कादरी उपनाम से फ़ारसी में शायरी करता था. उसकी फ़ारसी शायरी का दीवान इकसीरे आज़म नाम से मौजूद है. इस दीवान में 216 ग़ज़लें और 180 रुबाइयां हैं. रुबाइयां दारा के सूफ़ी मत से संबंधित हैं. दारा के समय के अनेक लेखकों ने उसकी रुबाइयों की तारीफ़ की है. कुछ लेखक उसकी शायरी में दरिया–ए–तौहीद अर्थात अद्वैत का समुद्र देखते हैं.
दारा हिन्दी या ब्रजभाषा में भी कविता करता था. ब्रजभाषा मुग़ल राजवंश के परिवार की भाषा थी. लगभग मातृभाषा की तरह थी. मिश्र बंधुओं के अनुसार दारा ने ब्रजभाषा में जो कविता लिखी थी, उसके संग्रह का नाम दोहास्तव है. बहुत खोजबीन के बावजूद वह अब तक न प्राप्त हुई है और न प्रकाशित. असल में औरंगज़ेब के हुक्म से जब दारा शुकोह की हत्या की गई तब उसकी लिखी किताबों को रखना अपराध हो गया. इसलिए वे सब किताबें जिनके पास थीं उन्होंने उन्हें नष्ट कर दिया.
दारा शुकोह कलाप्रेमी था, वह स्वयं चित्रकार था और कलाकारों का आदर करता था. यद्यपि मुल्ला और मौलवी चित्रकला को नापसंद करते थे लेकिन अकबर से लेकर बाद के अनेक बादशाहों ने चित्रकला और चित्रकारों को बढ़ावा दिया. इसलिए मुग़ल शैली की चित्रकला का विकास हुआ.
ओशियन ऑफ कोबराज़ (Ocean of Cobras) के लेखक मुराद अली बेग के अनुसार दारा के पास अपने बनाए चित्रों का संग्रह था, जो अब ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में है. अपने और दूसरों के बनाए चित्रों का संग्रह दारा ने अपनी पत्नी को भेंट किया था, वह भी लंदन में है.
मुग़ल ख़ानदान में शाहज़ादों को सुलेख की शिक्षा–दीक्षा की व्यवस्था थी. दारा शुकोह भी सुलेख में कुशल माना जाता था. दारा ने क़ुरान की प्रति अपने सुलेख में तैयार की थी जिसका हवाला जनाब महफूज़–उल–हक़ ने अपनी किताब मज्म ‘उल् बह् रैन के अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में दिया है.
दारा शुकोह संवाद करने वाला दार्शनिक और विचारक था. उसके संवाद के दो रूप मिलते हैं. एक तो आमने–सामने बैठकर संवाद और दूसरे पत्रों से विचारों का आदान–प्रदान. दारा क़ादिरी सिलसिले के एक संत मियां मीर और दूसरे मुल्ला शाह से मिलकर संवाद करता था. एक कबीरपंथी साधक बाबा लालदास से दारा ने हिंदू धर्म–दर्शन से जुड़े विभिन्न सवालों पर लंबी बातचीत की, जिसे चन्द्रभान ब्राह्मण ने फ़ारसी में लिखा. उसका नाम है मकालये दारा शिकोह व बाबा लालदास. इस सबके साथ ही वह विभिन्न सवालों पर हिंदू, इस्लाम और ईसाई मत के विचारकों से बातचीत करता था.
दारा शुकोह का जीवन अनेक विडंबनाओं से भरा हुआ था. वह शाहजहां का सबसे बड़ा पुत्र था. शाहजहां ने अजमेर के सूफ़ी संत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाकर पुत्र के लिए प्रार्थना की. उसके बाद 20 मार्च, 1615 को दारा का जन्म हुआ. दारा शाहजहां का सबसे बड़ा लड़का था और सबसे अधिक प्रिय भी. दारा को शाहजहां ने 3 फरवरी, 1655 ई. में ‘शाह बुलंद इक़बाल’ की उपाधि दी. शाहजहां ने दारा को ‘वली अहद’ घोषित किया. उसके जन्म के समय बहुत जश्न मनाया गया. शाहजहां ने उसे अपने पास दरबार में रखा. उसे पहले इलाहाबाद और बाद में पंजाब तथा गुजरात के सूबे शासन करने के लिए दिए गए. लेकिन वह अपने कर्मचारियों की मदद से शासन करता रहा, इसलिए शासन और राजनीति के व्यावहारिक ज्ञान से वंचित रहा.
दारा ने इस्लाम का अध्ययन किया था. उसने अपनी प्रमुख किताबों के आरंभ में अल्लाह और मुहम्मद साहब की प्रार्थना की है लेकिन उसको विधर्मी और काफ़िर कहकर उसकी हत्या की गई. उस समय के मुल्ला और मौलवी उससे नाराज़ थे, क्योंकि वह इस्लाम की उनकी व्याख्याओं को अस्वीकार करता था. यही नहीं उसने अपनी रुबाइयों में उनकी निंदा भी की है. दारा ने अपनी एक रुबाई में लिखा है–
स्वर्ग वहीं है जहां मुल्ला न रहते हों,
जहां उनके वाद-विवाद एवं कलह का शोर न सुनाई देता हो,
ईश्वर करे संसार को मुल्लाओं के शोरगुल से मुक्ति प्राप्त हो जाए,
और कोई भी उनके फ़तवों पर ध्यान न दे.
जिस नगर में भी कोई मुल्ला बस जाता है,
वहां कोई भी बुद्धिमान ठहरना पसंद नहीं करेगा.
इसीलिए क़ाज़ियों ने दारा की हत्या का फ़तवा दिया. सूफ़ी साधकों की हत्या का इतिहास लंबा है. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने लिखा है—
इस्लाम के तेरह सौ वर्ष के इतिहास में मुंसिफ़ों और क़ाज़ियों (धार्मिक न्यायकर्ताओं) की क़लम, म्यान से बाहर निकली तलवार की तरह चलती रही और हज़ारों सत्य के पुजारियों के क़त्ल के लिए ज़िम्मेदार रही है. जब भी बादशाह के सिर पर क़त्ल व ख़ून का भूत सवार होता, तो फ़िक़ह (इस्लामी क़ानून) के माहिर क़ाज़ियों की क़लम और शाही सिपहसालार (सेनापति) की तलवार साथ–साथ चलती थी. शरीअत के विद्वानों में जो भी सत्य की रम्ज़ (इशारा) समझने लगता या हक़ीक़त का भेद पाने योग्य होता, तो मुल्ला, क़ाज़ी और शरीअत वाले उसे ठिकाने लगा देते. सत्य के पुजारियों को अनेक कष्ट सहने पड़ते और आख़िरकार जान देकर ही उनका छुटकारा होता.
दारा शुकोह अति आत्मविश्वासी था इसलिए वह प्रभावशाली दरबारियों के साथ शिष्टाचार का निर्वाह नहीं करता था. यही नहीं अति आत्मविश्वास के कारण किसी की सलाह नहीं मानता था. जिसका दुष्परिणाम उसे सत्ता के लिए औरंगज़ेब के साथ हुए निर्णायक संघर्ष में भुगतना पड़ा.
(साभार: राजकमल प्रकाशन)