कांग्रेस नेता राहुल गांधी की छवि किस तरह ख़राब की गई?

पुस्तक अंश: चुनावी राजनीति में विरोधी नेता का मज़ाक बनाना कोई नई चीज़ नहीं है. लेकिन पिछले एक दशक में यह काम संगठित ढंग से भारी पैमाने पर किया जाने लगा है. अगर इसे और अच्छी तरह से समझना है तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी के 'पप्पू' बनने की पूरी प्रक्रिया को देखना होगा.

किताब का आवरण (फोटो साभार: नवारुण प्रकाशन)

वरिष्ठ पत्रकार हरजिंदर की किताब ‘चुनाव के छल-प्रपंच: मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार‘ पिछले दो दशक में बदले राजनीतिक प्रचार और उसके औज़र की पड़ताल करती है. पढ़ें नवारुण प्रकाशन से छपी इस पुस्तक का अंश.

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चुनावी राजनीति में विरोधी नेता को गलत बताना, उसका मजाक बनाना, उसे नालायक साबित करना कोई नई चीज नहीं है. मुद्दों से शुरू हुई राजनीति हमेशा से नेताओं और उम्मीदवारों पर कीचड़ उछालने तक पहुंचती रही है. लेकिन पिछले एक दशक में सबसे खास बात यही हुई है कि यह सारा काम संगठित ढंग से और भारी पैमाने पर किया जाने लगा है. सोशल मीडिया के एल्गोरिदम से लेकर डाटा एनालिटिक्स तक की मदद से किसी की छवि को ध्वस्त करने का काम अब जितनी अच्छी तरह से किया जा सकता है, पहले उसकी कोई संभावना नहीं थी. 

इसे अगर और अच्छी तरह से समझना है तो हमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी के पप्पू बनने यानी पप्पूफिकेशन की पूरी प्रक्रिया को देखना होगा. परंपरागत मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक के जितने भी हथियार हैं सब उनके खिलाफ इस्तेमाल किए गए हैं. राहुल गांधी को पप्पू बनाने का यह काम 2013 के आस-पास शुरू हुआ. यह वह समय था जब बीजेपी को अपनी जीत साफ दिखाई देने लगी थी. 

वैसे पप्पू शब्द उतना बुरा नहीं है. बच्चों को अक्सर प्यार से पप्पू ही बुलाया जाता है. साठ के दशक के बाद पैदा हुए देश में शायद ऐसे लाखों लडक़े होंगे जिन्हें बचपन में पप्पू नाम दिया गया होगा. लेकिन यही पप्पू शब्द जब किसी नौजवान के लिए इस्तेमाल होता है तो इसका अर्थ बदल जाता है.

पप्पू शब्द तब ऐसे ही मजाक की वजह से चर्चा में था. उन दिनों टीवी मीडिया पर कैडबरी चॉकलेट का एक विज्ञापन काफी लोकप्रिय हुआ था जिसकी टैग लाइन थी- पप्पू पास हो गया. यह इतना लोकप्रिय हुआ कि बाद में इसी नाम की एक फिल्म भी बन गई. फिर उन्हीं दिनों एक गाने में इस शब्द का इस्तेमाल हुआ- पप्पू कांट डांस साला. राजधानी में जब विधानसभा चुनाव हुए तो दिल्ली चुनाव आयोग ने लोगों को प्रेरित करने के लिए एक विज्ञापन अभियान चलाया जिसकी टैगलाइन थी- पप्पू कांट वोट यानी पप्पू वोट नहीं डाल पाता. मूर्ख नौजवान के अर्थ में पप्पू शब्द उन दिनों चर्चा में था.

राहुल गांधी को पप्पू साबित करना उस समय तक बहुत कठिन भी नहीं था. उन्हें राजनीति में सक्रिय हुए एक दशक का समय हो गया था, वे पार्टी के उपाध्यक्ष भी बन चुके थे लेकिन तब तक उनके नाम के साथ कोई बड़ी उपलब्धि नहीं जुड़ी थी.

राहुल गांधी के लिए एक मौका 2009 का था जब पार्टी को पहले से ज्यादा सीटें मिलीं और फिर एक बार उसकी सरकार बनी. अगर वे उस चुनाव में अपनी कोई बड़ी भूमिका निभाते तो इस जीत का श्रेय उन्हें मिल सकता था. या फिर चुनाव के बाद बनने वाली सरकार में वे कोई बड़ी भूमिका ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. अक्सर यह कहा जाता है कि राहुल गांधी को अगर पप्पू बनाया गया तो इसकी एक वजह वे खुद ही थे. उनके कई ऐसे बयान थे जिनके चलते उन्हें अपरिपक्व या नासमझ कहा जा सकता था. उन दिनों उनका एक बयान काफी चर्चा में था- पॉवर इज़ प्वाइज़न यानी सत्ता का जहर है. राहुल को राजनीति का नादान खिलाड़ी साबित करने के लिए आज भी इस बयान का इस्तेमाल होता है.

हालांकि यहां भी राहुल ने जो कहा उसका संदर्भ दूसरा था. उस दिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सम्मेलन में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष चुना गया था. इसके बाद उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ‘कल रात मेरी मां मेरे कमरे में आईं और रोने लगीं, क्योंकि वे जानती हैं कि पॉवर इज़ प्वाइज़न.’ उनके इस भाषण से यह टुकड़ा उठाकर उनके खिलाफ इसका खूब इस्तेमाल हुआ. वैसे इस तरह के बयान दूसरे नेताओं के भी ढूंढ़े जा सकते हैं. राहुल गांधी के साथ दिक्कत ज्यादा बड़ी थी. न तो कांग्रेस पार्टी ने कभी राहुल गांधी की कोई ब्रांडिंग की और न ही राहुल गांधी ने कभी अपने ब्रांडिंग करने की कोई कोशिश की. 

अगर किसी नेता की जबरदस्त ब्रांडिंग हो चुकी हो तो उसकी निगेटिव ब्रांडिंग बहुत कठिन होती है. लेकिन अगर किसी की कोई ब्रांडिंग हो ही न तो उसके खिलाफ माहौल खड़ा करना बहुत आसान होता है. 

एक बार जब यह सिलसिला शुरू हुआ तो राहुल गांधी के हर एक भाषण, उनके हर एक बयान, उनकी हर गतिविधि को माइक्रोस्कोप से देखा जाने लगा. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव से पहले 2013 में राहुल गांधी ने दिल्ली में उद्योग संगठन कनफेडरेशन ऑफ इंडिया इंडस्ट्रीज़ यानी सीआईआई के सम्मेलन में एक भाषण दिया. वे अपने साथ एक लिखा हुआ भाषण लाए थे लेकिन ऐन वक्त पर उन्होंने इस भाषण को किनारे रख दिया और फिर खुलकर बोले. जिस समय राहुल गांधी यह भाषण दे रहे थे उस समय द ट्रिब्यून के एडिटर इन चीफ चिदानंद राजघट्टा वहां मौजूद थे. वहां से लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें वे इस भाषण से काफी प्रभावित दिखे. उनका कहना था कि राहुल हैज़ फाईनली स्टुड अप, यानी राहुल आखिर खड़े हो गए.

लेकिन जब तक यह लेख छपता ट्विटर पर हैशटैगपप्पूसीआईआई ट्रेंड कर चुका था और राहुल के भाषण के तमाम वाक्यों की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं. पप्पू नाम से चलने वाले हैशटैग अब बहुत आम हो गए थे. 

चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी ने टाईम्स नाऊ न्यूज़ चैनल के अरनब गोस्वामी को एक इंटरव्यू दिया. यह कांग्रेस के या राहुल गांधी के मीडिया मैनेजमेंट की बहुत बड़ी गलती थी जिसने उनका पहला ही इंटरव्यू एक विरोधी विचार वाले आक्रामक एंकर को देना तय किया. जबकि इसके बहुत सारे दूसरे विकल्प मौजूद थे. अरनब गोस्वामी अपने आक्रामक तेवर से सामने वाले का मुंह बंद करा देने के लिए मशहूर थे. अरनब ने इस बार भी वही किया. हालांकि इसी के आस-पास जब अरनब ने नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया तो वे इसमें काफी विनम्र और संयत दिखाई दिए. 

2017 के गुजरात चुनाव के समय राहुल गांधी सोमनाथ मंदिर गए, उनके साथ पार्टी के नेता अहमद पटेल भी थे. तब यह खबर चलाई गई कि मंदिर के रजिस्टर में राहुल गांधी ने खुद को गैर हिंदू बताया है. इसे लेकर ट्विटर पर कई हैशटैग चलाए गए. इनमें यह बताने की कोशिश थी कि राहुल हिंदू नहीं कैथोलिक हैं. बाद तक यह बात कभी स्पष्ट नहीं हो सकी कि उस रजिस्टर में वे इंट्री किसने की थीं. न तो उसकी हैंडराईटिंग राहुल गांधी की थी और न ही अहमद पटेल की.

बहुत सारी फेक न्यूज़ का सच उजागर भी किया गया. यह हम पहले भी देख चुके हैं कि जो सच सामने लाया जाता है वह कभी उतना वायरल नहीं हो पाता जितना कि फेक न्यूज़ का झूठ तब तक हो चुका होता है. लेकिन यह भी सच है कि किसी के खिलाफ फेक न्यूज़ जब हद से ज्यादा हो जाए तो वे बेअसर दिखने लगती हैं. यही राहुल गांधी के मामले में भी हुआ. समय के साथ सांप्रदायिक किस्म की फेक न्यूज़ अपना असर खोती गईं.

2022 में जब कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं ने जी-23 ग्रुप बनाया और पार्टी आला कमान के खिलाफ बगावत के संकेत दिए तो उनकी समस्या भी राहुल की यह छवि ही थी. उन्हें लग रहा था कि ऐसा ही चलता रहा तो पार्टी की संभावनाओं पर पूरी तरह विराम लग जाएगा. राहुल गांधी के सामने जो चुनौती थी वह बहुत बड़ी थी और इसका मुकाबला भी आसान नहीं था. 

राहुल गांधी ने इस सबका मुकाबला पदयात्रा से करने का फैसला किया. भारतीय राजनीति में पदयात्राओं का महत्त्व 1930 से ही रहा है जब महात्मा गांधी ने दांडी मार्च किया था. 387 किलोमीटर की यह यात्रा नमक पर टैक्स लगाने के ब्रिटिश सरकार के फैसले के खिलाफ थी. इस यात्रा ने पूरे देश को विरोध की राजनीति का एक नया तेवर दिया था. इसके बाद देखें तो समय-समय पर देश में कई राजनीतिक पदयात्राएं होती रहीं हैं. 

राहुल गांधी ने जब इस पदयात्रा की योजना बनाई तो किसी को पता नहीं था कि इस यात्रा सफर कहां जाएगा. खुद कांग्रेस के ही बहुत से लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था. विरोधियों को तो खैर इसमें संदेह था कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यह पदयात्रा राहुल पूरी भी कर पाएंगे या नहीं. लोग पूछ रहे थे कि यह यात्रा किस मर्ज की दवा है. इसका जवाब दिया पार्टी के नेता केसी वेणुगोपाल ने, ‘पिछले दस साल में बीजेपी ने राहुल गांधी के खिलाफ झूठ को जो फैक्ट्री खड़ी की है हम उसे नष्ट करने जा रहे हैं. अब देश के ग्रामीण इलाकों के लोग खुद देख रहे हैं कि राहुल गांधी वास्तव में हैं क्या.’

इस यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा का नाम दिया गया. सात सितंबर 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हुई यह यात्रा पूरे 150 दिन तक चली और इसने 4080 किलोमीटर की दूरी तय की. कन्याकुमारी से जब यह यात्रा शुरू हुई तो वहां भारी गर्मी और उमस थी. जब यह कश्मीर में खत्म हुई तो वहां बर्फबारी हो रही थी. 

इस बीच फेक न्यूज़ फैक्ट्री का उत्पादन रुका नहीं था. लेकिन इन सब का अब कोई अर्थ नहीं था. ये फेक न्यूज़ जो कहना चाहती थीं राहुल उसे गलत साबित कर चुके थे. जितनी फेक न्यूज़ आ रहीं थीं, राहुल गांधी हर रोज उससे कहीं ज्यादा रियल न्यूज़ दे रहे थे. और वे खबरें जो लोगों में दिलचस्पी जगाने वाली थीं. 

पूरी यात्रा के दौरान राहुल ने शेव नहीं बनाई. जब तक पदयात्रा दिल्ली पहुंची उनकी यह दाढ़ी लहलहाने लग चुकी थी. विज्ञापन की दुनिया का लंबा अनुभव रखने वाले प्रहलाद कक्कड़ ने इस पर जो टिप्पणी की है वह ध्यान देने लायक है, ‘इस दाढ़ी ने उन्हें एक हद तक गंभीरता दी है. अब इंदिरा गांधी के नाती या राजीव गांधी के बेटे नहीं, वे अपने आप में एक परिपक्व इंसान की तरह सामने आ चुके हैं. आज लोग उन्हें कैसे देखते हैं इस मामले में लोगों की राय बदल चुकी है.’

(साभार: नवारुण प्रकाशन)