हिंदू कट्टरता हिंदू मानस को कुंद कर देगी

पुस्तक अंश: अतिवाद हमेशा बुनियादी शिष्टता का नाश करता है. हिंसा समाज में बर्बरता के ऐसे बीज बो देगी जिससे कोई भी नहीं बच सकेगा.

(फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

साल 2022 में प्रकाशित हुई राजनीतिक अध्येता राजीव भार्गव की किताबबिट्वीन होप एंड डिजायरका हिंदी अनुवाद पत्रकार और लेखक अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है. राजकमल द्वारा प्रकाशित यह किताब हिंदी मेंराष्ट्र और नैतिकतानाम से उपलब्ध है. पढ़ें इसका अंश.

सार्वजनिक जीवन से मुसलमानों का अदृश्य होते जाना हर भारतीय के लिए चिन्ता की बात होनी चाहिए. उतनी ही चिन्ताजनक उन भारतीयों की आदतें भी होनी चाहिए जो मुसलमानों को अलगाव में डालने के लिए अपनी पूरी ताक़त लगा देते हैं. सवाल है कि जब मुसलमानों के साथ होने वाले ग़लत कृत्यों को सार्वजनिक रूप से सही ठहराया जा रहा हो तो ऐसे में वे क्या करें? मौजूदा दौर में हिंदू- मुसलमान की समस्या की एक ऐतिहासिक समझदारी बेशक अनिवार्य है लेकिन अतीत में जो हुआ- आज़ादी से पहले के भारत में- उसके सहारे वर्तमान की घटनाओं को सही ठहराना बिलकुल दूसरी बात है.

हिंदू और मुसलमानों पर आंबेडकर

इसमें कोई शक नहीं कि चालीस के दशक तक हिंदू और मुस्लिम कुलीनों के बीच का रिश्ता खट्टा हो चुका था. बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ज़िन्दा तक़रीबन हर महत्त्वपूर्ण भारतीय चिन्तक ने इस बारे में लिखा है लेकिन आंबेडकर के तटस्थ लेखन के क़रीब कोई नहीं ठहरता. चालीस के दशक में जब गांधी हिंदू- मुस्लिम एकता क़ायम करने में जुटे हुए थे, आंबेडकर ने लिखा:

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गृहयुद्ध को चलते हुए बीस साल पूरे हो रहे हैं. दोनों समुदायों के बीच कितनी गहरी दुश्मनी है, उसे औरतों के ख़िलाफ़ किए गए बेरहम अत्याचारों से समझा जा सकता है…दोनों पक्षों का मिजाज़ एक दूसरे से जंग में मुब्तिला दो देशों जैसा है…चौंकानेवाली बात यह है कि क्रूरता के इन सचेत और ठंडे कृत्यों को निन्दनीय नहीं समझा गया बल्कि इन्हें युद्ध- कौशल की वैध कार्रवाइयां माना गया जिनके लिए कोई माफ़ी ज़रूरी नहीं थी.

यह टिप्पणी क्या हमारे समय की कुछ घटनाओं पर सटीक नहीं जान पड़ती?

आंबेडकर यहां जिस बात की ओर इशारा कर रहे हैं उसे मैं बहुसंख्यक- अल्पसंख्यक ग्रंथि कहता हूं- यह रिश्तों का एक ऐसा बीमार तंत्र है जो बहुत ज़हरीला हो चुका है, जिसमें नकारात्मक भावों (विद्वेष, बैर, नफ़रत) की इतनी अति शामिल है कि यह दोनों समूहों को बदले की पाशविकता में धकेल देती है. ये एक दूसरे के साथ तनाव में और गहरे धंसते चले जाते हैं. ऐसी ग्रंथियों में परस्पर दुश्मनी खुलेआम चलती है, शिकायतों की परतें जमती चली जाती हैं. समय के साथ परस्पर भय और गाढ़ा होता जाता है और समूहों के बीच के रिश्ते विकृत हो जाते हैं. ऐसा लगता है कि आंबेडकर दोनों पक्षों के मानस में घुसकर देख रहे हों- ऐसे लोग जो एक दूसरे को सिर्फ़ और सिर्फ़ नुक़सान पहुंचाने और शर्मिन्दा करने के उद्देश्य से चोट पहुंचाते हों. दूसरे के ख़िलाफ़ आक्रामकता ही उन्हें परिभाषित करती है.

इस ग्रंथि के चलते दोनों पक्षों के बीच एक तार्किक और समावेशी समाधान सम्भव नहीं हो सका. इसने दोनों समुदायों के भीतर सुधारों का रास्ता भी रोक दिया. आंबेडकर इस बात को बहुत जल्दी समझ चुके थे कि समाज में जब यह ग्रंथि पैदा हो जाती है तब स्वतंत्रता को समृद्ध करनेवाली और समानता को लानेवाली कोई भी पहल ठंडे बस्ते में फेंक दी जाती है. उन्होंने कहा था कि जब समूह एक दूसरे को अपने वजूद के लिए ख़तरा मानने लगते हैं, तब वे अपनी समूची ऊर्जा इस ख़तरे से निपटने में लगा देते हैं. एक दूसरे के ख़िलाफ़ एक साझा मोर्चा बनाने की बाध्यता ‘सामाजिक बुराइयों के मामले में चुप्पी की साजिश’ को रचती है. कोई भी पक्ष उसे संबोधित नहीं करता, ‘भले ही ज़ख़्म बह रहे हों और उन्हें तत्काल उपचार की ज़रूरत क्यों न हो…सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वे सामाजिक सुधार की हर पहल को समूहों के भीतर असहमति पैदा करने, उसे बांटने के तरीक़े के रूप में देखते हैं जिससे उनकी युद्धरत क़तारें कमज़ोर हो जाएंगी जबकि ख़तरे से निपटने के लिए उन्हें अभी एकजुट रहना है.’ यही धारणा सामाजिक गतिरोध पैदा कर देती है. फिर दोनों तरफ़ विचारों और कृत्यों पर विवेकहीन रूढ़ियों का क़ब्ज़ा हो जाता है.

यह ग्रंथि क्यों क़ायम है

आंबेडकर ने आज़ादी से कुछ साल पहले ही ये वाक्य लिखे थे. सत्तर साल बाद संदर्भ बुनियादी रूप से बदल चुका है. बहुसंख्य हिंदू और मुसलमान अपने जीवन को बेहतर बनाने में जुटे हुए हैं और वे इस ग्रंथि को नहीं पालना चाहते. मुसलमान अल्पसंख्यक होते हुए भी भारी संख्या में हैं लेकिन उनकी ताक़त अब कमज़ोर हो चुकी है. वे जानते हैं कि इस ग्रंथि ने उनका क्या नुक़सान किया है. इसलिए एक छोटे से तबक़े को छोड़कर मोटे तौर पर वे भी इससे दूर ही रहना चाहते हैं. दोनों समूहों की हिचक के चलते इस ग्रंथि को अब तक ख़त्म हो जाना चाहिए था, लेकिन यह अब तक क़ायम है. क्यों?

पहली बात, इसका एक मनोवैज्ञानिक वजूद है. भले ही यह दोनों पक्षों के छोटे से हिस्से के मानस में क़ायम रही है, लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान हिंदू अतिवादियों के दिमाग़ में इसका गुणात्मक विस्तार हुआ है. दूसरे, इसकी एक सामाजिक मौजूदगी भी है, जिसे भारतीय राजनीति पैदा कर रही है. अफ़सोस की बात यह है कि इसके होने का अहसास ही चुनावी फ़ायदे लेकर आता है. मासूम नागरिक इसके चक्कर में पड़ जाते हैं और एक आभासी ग्रंथि को और ताक़तवर कर देते हैं. लेकिन इसके सामाजिक निहितार्थ देश में अख़लाक़ जैसे लोगों के लिए ख़ासकर जानलेवा साबित हुए हैं.

बहुत दिन नहीं हुए जब इंडियन एक्सप्रेस में मुसलमानों की स्थिति पर एक विवाद खड़ा हुआ था. दुनिया भर की दिलचस्प व्याख्याएं की गईं लेकिन किसी ने भी आंबेडकर के सुझाए उस साधारण से नुस्ख़े को नहीं पकड़ा जिसके चलते दोनों समुदायों में गतिरोध आ गया था. अपने समुदाय के भीतर की समस्याओं को संबोधित करने के बजाय दोनों पक्षों ने अपनी सारी ऊर्जा आक्रांताओं से लड़ने में लगा दी. अन्तर- धार्मिक प्रभुत्व हमेशा धर्मों के भीतर प्रभुत्व को बढ़ावा देता है. और आंबेडकर ने हमें याद दिलाया था कि आंतरिक सुधारों की क़ीमत सबसे ज़्यादा समुदाय के वंचित समुदायों को चुकानी पड़ती है, यानी औरतें, बच्चे, बुजुर्ग और ग़रीब. मुस्लिम कट्टरता हिंदू अतिवाद पर पनपती है. मुसलमान औरतें तब तक बुरक़ा नहीं छोड़ेंगी जब तक कट्टर हिन्दुओं की आक्रामकता से उन्हें निजात नहीं मिल जाती.

अतिवाद हमेशा बुनियादी शिष्टता का नाश करता है. दूसरे के ख़िलाफ़ हिंसा की कोई भी हरकत समाज में बर्बरता के ऐसे बीज बो देती है जिससे कोई भी नहीं बच सकेगा. हम नहीं चाहेंगे कि हमारा बच्चा असभ्य समाज में बड़ा हो. हर बार जब हम ऐसी बुरी घटनाओं को होने देते हैं, हम अपनी क़ब्र ख़ुद खोद रहे होते हैं. बेशक, यही वह अहसास था जिसने अकादमिकों और भूतपूर्व सरकारी अधिकारियों को प्रधानमंत्री के नाम ख़त लिखने को विवश किया था कि वे कट्टरता पर लगाम कसें. और यह समझने में कोई ग़लती नहीं होनी चाहिए कि मुसलमानों के प्रति आक्रामकता और नफ़रत हिन्दुओं को भी नुक़सान पहुंचाती है. हिंदू कट्टरता हिंदू मानस को कुन्द कर देती है और उसके भीतर रूढ़िवाद को बढ़ावा देती है. इस संदर्भ में मोटे तौर पर देखें तो कठुआ में एक मुसलमान बच्ची का बलात्कार और उन्नाव में एक हिंदू लड़की का बलात्कार, दोनों घटनाएं आपस में जुड़ी हुई हैं.

(साभार: राजकमल प्रकाशन)