हरियाणा के चुनावी मुद्दों में विनेश फोगाट के चुनावी मैदान में कूदने और हाल ही में हुए किसान आंदोलन की गूंज सुनाई देती है, लेकिन इन दोनों के अलावा एक और मुद्दा जो महत्वपूर्ण दिखाई पड़ता हैं, वो है 36 बिरादरियों के भाईचारे का नारा. ये नारा इन चुनावों के बुनियादी पहलू को इंगित करता है.
हरियाणा में 36 बिरादरी को प्रदेश में रहने वाली 36 जातियों के लिए एक सांस्कृतिक मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता हैं. हालांकि, वर्तमान में इनसे कहीं ज़्यादा जातियां हरियाणा में रहती है. इन 36 बिरादरियों में राज्य की ज़मींदार जातियों (जाट, त्यागी, रोड, अहीर) के अलावा, कुम्हार, बनिया, सुनार, लुहार, सैनी, नाई, स्वामी, चमार, तेली, दर्ज़ी, धानक, डूम, वाल्मीकि, खाती, धोबी, बिशनोई इत्यादि शामिल हैं.
भाईचारा- जाति या समाज?
भाईचारे की वैश्विक धारणा के बरक्स हरियाणवी समाज में ‘भाईचारा’ ऐतिहासिक रूप से केवल एक-दो जातियों तक ही सीमित रहा है, ना कि वृहद् समाज में. ये भाईचारा इन जातियों का अंदरूनी मामला था. ख़ासकर उन जातियों में, जिनके पास ज़मीनों का मालिकाना था. जाट उनमें सबसे प्रमुख थे. यह भाईचारा इन जातियों में कृषि अर्थव्यवस्था, भूमि संबंधों और पारंपरिक वैवाहिक मानदंडों की चुनौतियों में बदलाव के कारण उभरकर आता है. इस भाईचारे का उद्देश्य जाति को एकजुट रखने और उसके प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए आंतरिक जातीय चिंताओं और तनावों का प्रबंधन करना था. हालांकि यह भाईचारा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में कितना सफल रहा या नहीं, इस पर एक सवालिया चिह्न हैं. अब, भाईचारे का नारा फिर से सामने आया है, लेकिन एक अलग रूप में.
वृहद् कर पहली बार सभी 36 बिरादरियों के भाईचारे को बनाने की बात हो रही है, और पहली बार दलित व पिछड़ी जातियों को साथ लेने की बात हो रही हैं, जिनसे दबंग जातियों एतिहासिक द्वन्द रहा है. कोई भी चुनावी बैठक, पार्टी रैली, या घोषणापत्र इस नारे को नजरअंदाज नहीं कर सकती – चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो, आईएनएलडी या जननायक जनता पार्टी (जजपा). 36 बिरादरी के भाईचारे के नारे को लगातार पुरज़ोर तरीक़े से उठाया जा रहा है. फ़ौरी तौर पर देखने पर लगता भी है कि भाईचारे के इस नारे में दशकों से राज्य में व्याप्त गहरी जातीय शत्रुता के समाधान के रास्ते निकाले जा सकते हैं.
अंतरजातीय तनाव का इतिहास
हरियाणा में जातिगत संघर्षों का एक लंबा इतिहास रहा है, विशेष रूप से दबंग जातियों और दलितों और पिछड़े वर्ग के बीच. अधिकतर मामलों में इन जातीय संघर्षों की जड़ में भूमि संबंधी विवाद रहे हैं. आज़ादी और विशेष रूप से 1990 के दशक के बाद हुए भौतिक, क़ानूनी और सामाजिक गतिशीलता में बदलावों ने जातीय संबंधों में बड़े फेरबदल किए हैं, जिसके कारण दबंग जातियों के बरअक्स दलित और पिछड़े वर्ग सशक्त होकर उभरने लगे .
हरियाणा में अंतरजातीय तनाव का एक चेहरा आप 1900 के दशक में देख सकते हैं जब ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने उस वर्ष ‘पंजाब भूमि अलगाव अधिनियम’ नामक एक क़ानून लागू किया था. इस अधिनियम के तहत भूमि के मालिकाना अधिकार को केवल कुछ ही जातियों तक सीमित कर, दलितों और पिछड़ी जातियों को इसके दायरे से बेदख़ल कर दिया गया, जिसके परिणाम काफी दूरगामी हुए.
1935 में डॉ. बीआर आंबेडकर ने औपनिवेशिक सरकार को ऐसी नीतियों के परिणामों के बारे में चेतावनी भी दी थी. हालांकि, उस समय के चुनावी तर्क और जमींदारों का प्रतिनिधित्व करने वाली यूनियनिस्ट पार्टी के उदय ने भूमि-स्वामी जातियों के प्रभुत्व को और मजबूत किया. जिन जातियों को ऐतिहासिक रूप से भूमि अधिकार से वंचित रखा गया था, वही जातियाँ, 36 बिरादरियों का एक बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर उभरी है, और इस तरह चुनावी राजनीति को प्रभावित कर रही हैं.
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद सरकारी नौकरियों में जाति-आधारित आरक्षण ने दबंग जातियों और दलितों और पिछड़े वर्ग के बीच संबंधों में और खटास ला दी. खेती में तेज़ी से घटती आय और कृषि अर्थव्यवस्था के संकट ने आरक्षण के प्रति इन दबंग जातियों की नाराजगी को बढ़ाने में आग में घी का काम किया. इसके बाद उपजी हिंसा ने राज्य में दलितों और पिछड़ों को अपना निशाना बनाया.
विवाह संस्था हरियाणा में हमेशा ही प्रतिवाद का मुद्दा रहा है, ख़ासकर जब बात अंतरजातीय विवाह की हो. अंतरजातीय विवाह ने दबंग जातियों के कठोर वैवाहिक मानदंडों को चुनौती दी, लेकिन इसने पितृसत्तात्मक और जाति-आधारित हिंसा को भी बढ़ावा दिया, जिसकी परिणति ‘ऑनर किलिंग’ जैसे जघन्य अपराधों में होती है. लैंगिक और जातिगत हिंसा के इन कृत्यों ने दबंग जातियों और, दलितों व पिछड़ी जातियों के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया. कारणवश एक वृहद् समाज में भाईचारे को स्थापित करने को कोई भी संभावना नहीं बची.
वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य लोहिया के बाद की प्रतिनिधित्ववादी राजनीति से आकार लेता है, जहां चुनावी राजनीति केवल चुनिंदा दबंग बिरादरियों को ही संतुष्ट करने और अधिकतर बिरादरियों को हाशिये पर धकेलने का जोखिम नहीं उठा सकती. 36 बिरादरियों के समावेशी नारे की भूमिका यहीं से बनती दिखती हैं.
36 बिरादरियों के भाईचारें का नारा वो धुरी बनता दिख रहा है, जिसके इर्द-गिर्द वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य घूम रहा है और सभी राजनीतिक दल इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ोर-शोर से ज़ाहिर करने का प्रयास कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, भाजपा ने मनोहर लाल खट्टर हो हटा नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बना ओबीसी मतदाताओं को एक मज़बूत संदेश देने की कोशिश की है. वहीं, कांग्रेस नेता भी बार-बार 36 बिरादरियों के भाईचारे की बात कर सामाजिक न्याय के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर रहे हैं. परंपरागत रूप से जाटों की पार्टियों के रूप में देखी जाने वाली जजपा और आईएनएलडी को ओबीसी और दलित मतदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से एएसपी (आजाद समाज पार्टी) के चंद्रशेखर आज़ाद और बसपा को अपने पाले में लेना पड़ा है.
एक तरफ़ ये प्रयास ओबीसी और दलित वोटों को एकजुट करने की चुनावी रणनीति की तरफ़ इशारा करते हैं, वहीं चुनावी राजनीति के लोकतंत्रीकरण को भी रेखांकित करते हैं. जो भी हो, इस समय जीत का यही एक मज़बूत फॉर्मूला दिख रहा है. 36 बिरादरियों के भाईचारे का आह्वान वर्षों से चली आ रही जातिगत दुश्मनी को, अगर पूरी तरह से ख़त्म नहीं तो, सुधारने की संभावना प्रदान कर सामाजिक गतिशीलता में एक संभावित बदलाव का संकेत भी देता है.
सावधानी फिर भी ज़रूरी है. सच्चा भाईचारा समानता और अपनेपन पर बना है, और रोटी-बेटी संबंधों की अवधारणा के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है. डॉ. आंबेडकर से प्रेरणा लेते हुए, इस भाईचारे को जातिगत, ख़ासकर दबंग जातियों की जातिगत सीमाओं से मुक्त कर आगे एक समावेशी भाईचारे की सुदृढ़ योजना के तहत विकसित करना होगा. इसमें ज़मींदार जातियों की भूमिका ही अग्रणी होगी.
36 बिरादरियों के भाईचारे का यह नारा एक स्वागतयोग्य बदलाव का संकेत दे रहा है, लेकिन आने वाला समय ही बताएगा कि चुनाव के बाद की राजनीति में यह कितना फलीभूत होगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं.)