‘काफ़्का को लगता था कि उनके भीतर कोई पशु बैठा है’

पुस्तक अंश: यह किताब काफ़्का के जीवन की हर महत्वपूर्ण घटना को उसके अथक रचनाकर्म के साथ जोड़कर देखती है और एक तटस्थ, पैनी निगाह के साथ उसके लेखन के मर्म को थामकर पाठक के सामने धर देती है.

(फोटो साभार: संभावना प्रकाशन)

साल 1987 में 20वीं सदी के महानतम लेखकों में शुमार फ्रान्ज़ काफ़्का के जीवन और कर्म को केंद्र में रखकर मशहूर जीवनीकार पीएत्रो चिताती ने काफ़्कालिखी थी. इस किताब का हिंदी रूपांतरण लेखक-अनुवादक अशोक पांडे ने किया है. पढ़ें किताब का अंश.

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अनुवादक का आत्म-कथ्य 

यथार्थ की कठोर ज़मीन से फ़ंतासी की असंभव लेकिन चकनाचूर कर देने वाली उड़ानें काफ़्का के अद्वितीय लेखन का सिग्नेचर हैं. वह नीम-अंधेरी रात और भूमिगत चीज़ों का श्रमसाध्य अनुसंधानकर्ता है. घरों में रहने वाले साधारण मनुष्यों की बनिस्बत उसकी दिलचस्पी खोहों, सुरंगों और बिलों में रहने वाले चूहों और छछूंदरों जैसे प्राणियों के जीवन-संघर्षों के जटिल विवरणों को इकट्ठा करने में है.

अकारण नहीं कि उसकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘द मेटामॉरफॉसिस’ का मुख्य पात्र ग्रेगोर साम्सा, जो कि एक अदना सा सेल्समैन है, एक सुबह ख़ुद को कीड़े में तब्दील हो गया पाता है. उसकी पीठ किसी जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, पेट मुड़ा हुआ, भूरा और असमतल हो गया है और उसके असंख्य छोटे-छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे हैं. लेकिन उसके कमरे में उसके आसपास की बाकी सब चीज़ें पहले जैसी ही बनी-बची हुई हैं.

बीसवीं सदी के साधारण मनुष्य के जीवन की रोज़मर्रा की त्रासदी को संसार के साहित्य में इस तरीके से न कभी सोचा गया था, न लिखा गया था. ढेर सारे अंधेरे में बहुत ज़रा सी रोशनी के सहारे जस-तस जीवित रह रहे इस साधारण मनुष्य को हम काफ़्का की रचनाओं में बार-बार देखते हैं. ‘अमेरिका’ का कार्ल रोसमान, ‘द ट्रायल’ का जोसेफ़ के या ‘द कासल’ का महज़ के इसी सतत पराजित होते मनुष्य के प्रतिनिधि हैं.

फ्रान्ज़ काफ़्का एक मुश्किल लेखक है. उसके सघन गद्य की अंधेरी भूलभुलैया बाहर से देखने पर बेहद डरावनी और निराशाभरी लगती है. यह अलग बात है कि एक बार उसमें प्रविष्ट हो जाने के बाद आपके सामने रोशनी का अथाह महासागर होता है. उसमें प्रवेश करने के लिए भरपूर धैर्य और हिम्मत की ज़रुरत पड़ती है.

ठीक सौ बरस पहले यानी 1924 में काफ़्का इस दुनिया से चला गया था. उसने अपना चालीसवां जन्मदिन मनाना बाकी था. इन सौ वर्षों बाद अब वह आधुनिक विश्व साहित्य की सबसे कीमती धरोहरों में शुमार होता है. उसके लेखन के साथ-साथ उसके जीवन को लेकर बहुत सारा काम हुआ है और कई किताबें छपी हैं. मैक्स ब्रॉड, ऑस्कर पोलाक, फेलीस बाउएर और मिलेना जेन्स्का आदि के साथ उसके सम्बन्धों को लगातार अन्वेषण का विषय बनाया जाता रहा है. काफ़्का की सबसे प्रामाणिक मानी जाने वाली जीवनियां लिखने वालों में मैक्स ब्रॉड, रेनर स्टाख, पीएत्रो चिताती और अर्न्स्ट पावेल का नाम सबसे ऊपर है. 

इतालवी लेखक पीएत्रो चिताती की ‘काफ़्का’ ने अपने घने गद्य और धारदार निगाह के चलते मुझे लगातार आकर्षित किया. इसे पढ़कर काफ़्का को नए सिरे से जानने की निगाह हासिल हुई. अनुवाद मुश्किल था और चिताती के मुहावरे को अपनी भाषा में ला पाना चुनौतीभरा. यह चिताती की किताब से पैदा हुआ सम्मोहन था जो मुझे काफ़्का के नगर प्राहा की उन गलियों में लेकर गया जिनमें बेचैन टहलते इस महबूब लेखक ने अपनी रचनाओं के स्रोतों की पहचान की होगी. 

यह किताब काफ़्का के जीवन की हर महत्वपूर्ण घटना को उसके अथक रचनाकर्म के साथ जोड़कर देखती है और एक तटस्थ, पैनी निगाह के साथ बार-बार उसके लेखन के मर्म को थाम कर पाठक के सामने धर देती है. मिसाल के तौर पर ‘मेटामॉरफॉसिस’ के ग्रेगोर साम्सा या ‘अमेरिका’ के कार्ल रोसमान की त्रासदी के साथ काफ़्का के ट्रीटमेंट को लेकर पीएत्रो चिताती लिखते हैं:

‘तब काफ़्का चुप्पी साध लेता है. पन्ने के ऊपर एक अभेद्य चुप्पी पसर जाती है. घटनाएं जितनी त्रासद होती जाती हैं उतना ही ज्यादा उनके बारे में नहीं बताया जाता : ऐसे मौकों पर जहां हर दूसरा लेखक भरपूर शब्दों का प्रयोग करता, काफ़्का हमें किसी खोखल की-सी भीषण चुप्पी प्रस्तुत करता है.’

इस किताब में काफ़्का के जीवन का पुनर्सृजन करते हुए पीएत्रो चिताती महज़ घटनाओं या तारीखों के क्रम पर निर्भर नहीं रहते; वे काफ़्का के अंतर्मन में प्रविष्ट होने का प्रयास करते हैं. वे उन घटनाओं और प्रक्रियाओं को किसी उस्ताद मनोवैज्ञानिक  की निगाह से परखते हैं जिन्होंने काफ़्का की रचनाओं के लिए खाद-पानी का काम किया. उनका यह उद्यम इस ज़रूरी किताब के हर पन्ने में दिखाई देता है. 

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पशु की भूमिका में लेखक

उसे लगता था उसके भीतर कोई पशु है. बार बार अपने अचेतन की आकृतियों में से, जो मध्यकाल की पशुओं के चित्रों वाली किसी किताब की तरह विराट थीं, वह अपने भीतर किसी सोते हुए गुबरैले को महसूस करता था; जमीन में सुरंगें खोदते किसी छछूंदर को; उस चूहे को जो आदमी के आते ही भाग जाता है; एक फड़फड़ाते चमगादड़ को; हमारे रक्त पर पलने वाले किसी परजीवी कीट को; एक भुतहा जानवर को जो हताश किसी गड्ढे में या अपनी मांद में पड़ा होता है; राख के रंग के कौए को जिसके पंख पूरी तरह विकसित नहीं होते; एक गुर्राते हुए कुत्ते को जो उसके चैन में खलल डालने वाले हर शख्स को दांत दिखाता है या एक बुत के चारों तरफ परेशान भौंकता दौड़ता रहता है; कभी दो जानवरों से बने जीव को जिसका शरीर भेड़ का है और सिर और पंजे बिल्ली के और जिसकी आंखों में दोनों की मिलीजुली चमक है; या उन घृणित दुष्ट और परजीवी आदमियों में से एक को जिन्हें उसने ‘अमेरिका’ के आखिरी हिस्से में दिखलाया है. वह कई जानवरों से बेतरह डरता था. जब वह ज़ुराउ में था वह चूहों के बीच रहा था.

उसे उस शान्त पशु शक्ति से डर लगता था जो कहीं घात लगाए बैठी होती थी. पर साथ ही उसे लगता था कि वे ही पाशविक शक्तियां उसके भीतर भी छिपी बैठी हैं. उसे अपने भीतर के पशुओं से इसलिए डर लगता था कि उसे खौफ था वे कभी भी अपने आप को प्रकट कर सकते थे और उसके हाथ पैर बालों से ढंक सकते थे और उसकी आवाज ने चहचहाहट में बदल जाना था जैसा कि उसने ओविड की ‘मेटामॉरफॉसिस’ में पढ़ा था.

उसे पता था कि ऐसा होने पर वह मानवीय स्तर से नीचे उतर जाएगाः उस अंधकार में जो हमारी चेतना के नीचे वास करता है; लेकिन वह इससे डरता नहीं था क्योंकि ऐसा होने पर उसका स्तर इस मायने में ऊंचा उठ जाना था कि वह अब तक न जीती गई रोशनी और संगीत को जीत सकता था.

तब उसे अपनी सिहरनें समझ में आईं. उसके भीतर रहने वाला पशु उसकी आत्मा और लेखक के उसके शरीर के अलावा कुछ न था जो हर रात अपने को प्रेरणा की आवाज की आज्ञा का पालन करता हुआ कोठरी में बंद कर लेता था ठकि उसी तरह जैसे कुछ जानवर जाड़े का सारा मौसम खोहों में सोते हुए बिताया करते हैं. 17 नवंबर 1912 को वह अपने कमरे में बंद बिस्तर पर लेटा हुआ था. इतवार था. पिछली रात ‘अमेरिका’ लिखता हुआ वह संतुष्ट नहीं थाः उसे लग रहा था कि उपन्यास बदतर होता जा रहा था; फिर उसने सपना देखा कि एक जादुई डाकिए ने उसे फ़ेलीस के लिखे दो अन्तहीन पत्र ला कर दिए. अब बिस्तर में बैठा वह फ़ेलीस के वास्तविक पत्रों की प्रतीक्षा कर रहा था. उसने पौने बारह तक इंतजार किया और इंतजार के उन दो भीषण घन्टों में उस पर बार बार होने वाला नैराश्य का वह आक्रमण हुआ- उसे लगा कि वह कोई ऐसा परजीवी पशु है जिसे दुनिया से बहिष्कृत कर दिया गया है और बाकी लोग जिसे कुचल सकते हैं या लतिया सकते हैं.

संपूर्णता के साथ अपना मानवीय आयाम खोए हुए वह पूरी तरह बेहोशी और स्वप्नावस्था से गुजरा होगा और उसने एक कहानी सोची जिसे वह शब्दों में ढालना चाहता होगा. हमेशा की तरह उसने समय बरबाद नहीं किया. ‘अमेरिका’ को किनारे रख कर उसी शाम उसने उसे लिखना शुरू कियाः कहानी उसके हाथों में विस्तार लेने लगी. यह ऐसी कहानी थी जो हर दिशा में बढ़ रही थी और उसके और बाकी लोगों के जीवन की जटिलता को अपने भीतर समोए हुए थी. वह चाहता था उसके सामने एक न खत्म होने वाली रात होती जिसमें वह इस कहानी को पूरी तरह प्रकट कर पाता. उसने 7 दिसंबर को उसे पूरा किया. वह ‘द मेटामॉरफॉसिस’ थी.

निकलाशश्ट्रासे के छोटे से कमरे में उन दिनों एक दोहरा कायांतरण हुआ. रात की अपनी मांद में काफ़्का उन गहराइयों में उतर गया जहां अब तक कोई नहीं गया था. सभी सर्जकों की तरह उसने सभी चीजों में बदल सकने और सारे रूप धर पाने की अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया. महीने भर से कम समय में एक ठंडी बेहोशी के बीच उसने एक नया शरीर धारण किया और बेहद चौकन्नी निगाहों के साथ उसने अपनी कहानी के पात्र के कायांतरण का अनुसरण भी किया मानो कागज पर लिखते हुए वह भी एक विशाल परजीवी कीड़े में बदल रहा हो. ताल्सताय भी अपने आप को ब्रह्मांड की विराटता में एकरूप करते हुए कीड़े घोड़े या चिड़िया में तब्दील कर सकते थे; लेकिन काफ़्का ऐसा अपनी गहराइयों को खोजने के लिए कर रहा था. निकलाशश्ट्रासे के उस छोटे से कमरे को जहां वह अपने मां बाप के साथ रहता था उसने ग्रेगोर साम्सा के अपार्टमेंट में बदल दिया. हर चीज सही सही थी: कपड़ों से भरी अल्मारियां, डेस्क और पलंग, खिड़की के बाहर अस्पताल, कमरे के ऊपरी हिस्से में प्रतिबिंबित होती गली की रोशनियां, दरवाजे, अपार्टमेंट के बाकी कमरों की व्यवस्था. इस तरह एक महीने के लिए उसका कमरा उस त्रासदी का रंगमंच बन गया था जिसने पूरे जाड़ों भर चलते जाना था.

जब हम कहानी शुरू करते हैं कायांतरण हो चुका होता है. शाम को ग्रेगोर साम्सा एक सामान्य ट्रैवलिंग सेल्समैन होता है; उस रात उसे खराब सपने आते हैं; अगली सुबह – जाड़ों की सुबह जो उतनी ही ठंडी थी जितनी वह रात जब काफ़्का लिख रहा थ – वह पाता है कि उसकी पीठ किसी जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, उसका पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है, और उसकी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे होते हैं. उसके चारों तरफ बाकी सारी चीजें वैसी ही हैं: वही छोटा कमरा, मेज पर रखी कपड़े के नमूनों की किताब, तस्वीरों वाली किसी पत्रिका से काटा गया एक स्त्री का फोटो, वही उदास बारिश जो अंधेरे आसमान से गिरती रहती है.

जिस तरह से हम इस नए प्राणी की संवेदनाओं को साझा कर पाते हैं वह महान होता हैः ठीक ग्रेगोर की ही तरह हम पाते हैं कि हमारी पीठ जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है और हमारी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे हैं. हमें एक तरफ हल्का दबा दबा दर्द है, पेट में खुजली लग रही है, ठंड और नमी है; हम अचरज से भर जाते हैं जब हम पाते हैं कि हमारी आवाज के साथ चिड़िया की सी एक अजीब दर्दभरी आवाज मिल जाती है और वे असंख्य कांपती टांगें हमें बिस्तर से बाहर नहीं ले जा पातीं. चाहे पहले दान्ते के साथ हुआ हो या ओविड के पशु में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया कभी भी इतने विस्तार से नहीं लिखी गई थी जो हमें इस कदर अपने साथ जोड़ लेती है.

लेकिन खुद ग्रेगोर साम्सा हम से कम इस से जुड़ा प्रतीत होता है. वह आश्चर्यचकित नहीं है‚ न उसे कोई सदमा पहुंचा है; ऐसा लगता है कि यह कायांतरण उसके लिए एक सामान्य प्राकृतिक तथ्य भर है जैसे रोज सुबह सात बजे की ट्रेन पकड़ना. जानते हुए या अचेतन में वह अपने साथ घटी हर चीज को संक्षिप्त कर लेता है; वह उसे कोई महत्व नहीं देता और समझता है कि जो हो चुका वह लौटाया नहीं जा सकता मानो वह अपने भाग्य की इस एब्सर्ड त्रासदी को जी पाने में अक्षम हो. दयनीय भलेपन के साथ वह प्रयास करता है कि जो हो चुका है उसे व्यवस्थित किया जाए ताकि असंभव और भयानक को सामान्य बनाया जा सके.

काफ़्का यहां पर अपने प्रिय नैरेटिव उपकरण का प्रयोग करता हैः ‘मैदान को सीमित करना’; जिसके कारण हम ग्रेगोर की चेतना के कुछ हिस्सों से वंचित रह जाते हैं (जैसा बाद में कार्ल, जोसेफ के. और के. के साथ होता है). इस तरह काफ़्का एक साफ साधारणता के साथ जीवन की उस त्रासद और दर्दनाक सच्चाई के स्वीकार को अभिव्यक्त कर पाता है जो ग्रेगोर साम्सा को फ्लाबेरियाई नायकों में आखिरी और महानतम बनाता है.

(साभार: संभावना प्रकाशन)