सारंगढ़ की रियासत और फांसी के दो किस्से

1775 की एक सुबह कलकत्ता में नंद कुमार को फांसी दे दी गयी थी. इतिहास के उस स्याह अध्याय में तीन बरस बाद एक पन्ना जुड़ गया जब छत्तीसगढ़ में उस मुक़दमे के एक प्रमुख किरदार की मृत्यु हो गयी.

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पृष्ठभूमि में सारंगढ़ का महल. (सभी फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

पहला किस्सा 

इसे भारतीय इतिहास की पहली ‘न्यायिक हत्या’ कहा जाता है. यह घटित पूर्वी भारत में हुई थी, लेकिन इसके तार आगे चलकर छत्तीसगढ़ की सारंगढ़ रियासत से जुड़ गये थे. इसकी शुरुआत 8 जून, 1775 की सुबह कलकत्ता में हुई थी. भारत में सुप्रीम कोर्ट नया स्थापित हुआ था. मेयर के कोर्ट को अस्थायी सुप्रीम कोर्ट बना दिया गया था जहां पहली बार किसी क्रिमिनल केस का मुक़दमा शुरू हो रहा था. लेकिन उस दिन यहां भीड़ इकट्ठा होने का बड़ा कारण वह व्यक्ति था जिसे अंग्रेज़ों ने कटघरे में खड़ा किया था. व्यक्ति का नाम था महाराजा नंद कुमार.

1765 तक मुग़ल भारत के इस पूर्वी इलाक़े के औपचारिक शासक थे. उस वक्त उनके सबसे समृद्ध सूबे बंगाल के अंतर्गत आज का पूरा बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और झारखंड आता था. मीर जाफ़र इस सूबे के नवाब थे और महाराजा नंद कुमार उनके दीवान. बर्दवान के पास एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे संस्कृत, फ़ारसी और वैष्णवी भाषा के विद्वान सत्तर वर्षीय नंद कुमार को उसी वर्ष मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ‘महाराजा’ की उपाधि बख्शी थी. उसी वर्ष दो और महत्वपूर्ण घटनाएं हुई थीं. कुष्ठ रोग से पीड़ित मीर जाफ़र की मृत्यु हो गई था और पूरे बंगाल सूबे का राजस्व एकत्र करने का अधिकार अंग्रेजों को मिल गया था.

इसके साथ ही व्यापारी अंग्रेज ने शासक अंग्रेज के रूप में खुद को तब्दील करना शुरू कर दिया था. चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के पास ‘शासक-रूप’ के लिए नियम क़ायदे तैयार नहीं थे, इसका फ़ायदा उठाते हुए शुरुआती अंग्रेज शासकों, विशेषकर क्लाइव और हेस्टिंग्स, ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ति में बेइंतिहा इज़ाफ़ा किया. अंग्रेज शासन काल में भ्रष्टाचार और लूट का यह स्वर्णिम काल था. यह सब महाराजा नंद कुमार की आंखों के सामने हो रहा था और उन्होंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का फ़ैसला किया.

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11 मार्च, 1775 के दिन सुप्रीम काउंसिल के सामने महाराजा नंद कुमार से प्राप्त एक पत्र रखा गया. पत्र में नंद कुमार ने वॉरेन हेस्टिंग्स पर रिश्वत लेने के गंभीर आरोप लगाये थे. आरोप के समर्थन में उन्होंने नवाब मीर जाफ़र की विधवा मुन्नी बेगम के द्वारा हेस्टिंग्स को फारसी में लिखा एक पत्र भी भेजा था. पत्र में नवाब की गद्दी पर बैठे छोटे बच्चे की ओर से कामकाज संभालने की ज़िम्मेदारी मुन्नी बेगम को सौंप दिए जाने की स्थिति में मुन्नी बेगम की ओर से ढाई लाख रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी. इसके कुछ ही दिनों के बाद मुन्नी बेगम को वह ज़िम्मेदारी मिल गई थी. नंद कुमार का पत्र सामने आते ही हेस्टिंग्ज़ का आपा खोना स्वाभाविक था.

काउंसिल के सदस्यों से हेस्टिंग्स की पटरी नहीं बैठती थी. इसलिए उनके बचाव की सारी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एलाईजा इम्पी पर टिक गईं. दोनों स्कूल के सहपाठी और मित्र थे. अगले ही हफ़्ते कोर्ट के सामने एक शिकायत पहुंचा दी गई जिसमें महाराजा नंद कुमार पर कूटरचना (फ़ोर्जरी) का आरोप था. सुप्रीम कोर्ट के कंधों पर लद कर भारत आए ब्रिटिश क़ानून के अनुसार इस अपराध की सज़ा ‘मृत्युदंड’ थी. लेकिन इन बातों के विस्तार में न जाकर हम कहानी के उस हिस्से पर आते हैं जो इसके तार सारंगढ़ से जोड़ता है.

सुप्रीम कोर्ट में चीफ़ जस्टिस के अलावा चार और जज थे जो जीवन में पहली बार समुद्री जहाज़ में बैठकर कुछ ही दिन पहले भारत पहुंचे थे. इनके अलावा एक दर्जन जूरी भी थे. भारत की भाषाओं और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने के मामले में सभी चौथी फेल थे. दस्तावेज़ फ़ारसी और संस्कृत में थे. ज़ाहिर है लिखने, पढ़ने, बांचने, बोलने, समझाने के लिए बिना एक योग्य दुभाषिये के मुक़दमा आगे नहीं बढ़ सकता था.

एलाईजा इम्पी ने जिस शख़्स को इस काम के लिए नियुक्त किया वह था बीस वर्षीय अलेक्ज़ेंडर ईलियट. हेस्टिंग्ज़ का विश्वस्त साथी. मुक़दमा किस मुक़ाम पर पहुंचेगा, यह इम्पी और हेस्टिंग्स तय कर चुके थे. पर मुक़दमे को उस ओर हांकने में ईलियट की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली थी. उसकी समझ और समझाईश पर सारा केस निर्भर था. आठ दिन तक सुबह साढ़े आठ बजे से देर रात तक लगातार चले मुक़दमे के बाद 16 जून को मृत्युदंड की सज़ा सुना दी गई और 5 अगस्त को महाराजा नंद कुमार को फांसी पर लटका दिया गया.

तीन वर्ष के बाद एक महत्वपूर्ण मिशन पर हेस्टिंग्ज़ ने अलेक्ज़ेंडर ईलियट को कलकत्ता से रवाना किया. (ईलियट की मौत का कारण बनने वाला मिशन अपने आप में एक पूरी कहानी है). सारंगढ़ से 12 किलोमीटर दूर सेमरापाली और सालर गांवों के बीच 12 सितंबर, 1778 के दिन ईलियट की मृत्यु हुई और वे वहीं दफ़न कर दिए गए.

सारंगढ़ में अलेक्ज़ेंडर ईलियट की क़ब्रगाह.

हेस्टिंग्ज़ ने एक शिला पर स्मृति-लेख उकेर कर सारंगढ़ भेजा. सारंगढ़ के आदिवासी राजा विश्वनाथ सिंह की अनुमति प्राप्त की और ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारत में पहली क़ब्रगाह का निर्माण हुआ. अनचाहे ही सारंगढ़ का संबंध उस मुक़दमे के साथ स्थायी रूप से जुड़ गया जिसे इतिहास में भारत की पहली ‘न्यायिक हत्या’ के रूप में याद किया जाता है.

दूसरा मुक़दमा

सारंगढ़ से कोई चालीस किलोमीटर दूर गांव है देवानपाली. कई दशक पहले इस छोटे-से गांव में कुल चार झोपड़ियां और एक चूने का भट्ठा हुआ करता था. एक छोटा नाला था जिसके किनारे गूलर का वृक्ष होने के कारण यह स्थान गूलर घाट कहलाता था. 13 मार्च, 1932 को यहां पेड़ की जड़ से बंधा, पानी में उतराता एक शव बरामद हुआ. पता चला पास के गांव बिलाईगढ़ के बारह वर्षीय बालक बाली का है. पिता रायगढ़ गया हुआ था बाली के लिए वधू देखने. बाली का एक कान कटा था. गले में पहनी सोने की धन-माला और कान की बाली, दोनों ग़ायब थे. पास की बरमकेला पुलिस चौकी से सब-इंस्पेक्टर केवल सिंह के साथ पुलिस आई. सरिया थाने से इंस्पेक्टर गुरु प्रसाद मिश्रा को भी भेजा गया. शव को पोस्टमार्टम के लिए सारंगढ़ भेजा और तफ़्तीश शुरू हुई.

अधिक समय नहीं लगा. पांच दिनों के बाद ही मुख्य आरोपी धनेश्वर ने गांव के प्रमुख लोगों के सामने जो कहा वही शब्द उसने बाद में अदालत में दोहराए और शब्द रिकॉर्ड का हिस्सा बन गए – ‘गौटिया गा, मैं तो रघुनाथ गौटिया के बेटा ला मार डारे हों, मोला तो रतीराम कह दीस है गा, मोर ख़ातिर कुटुम्ब बसिहा काबर दुख पाहीं, बुकरा एक ठन मंगवा दें और ठाकुर देब में देबो और सिकार खाओ…. (गौटिया लोगो, मैंने रघुनाथ गौटिया के बेटे को मार डाला है. रतीराम ने कहा था मुझे. मेरे कारण मेरे परिवार जन/आश्रित क्यों दुख पाएं. एक बकरा मंगवा दो, इष्ट देव को बलि दे कर प्रसाद खिलाऊं/प्रायश्चित करूं).’

गांव के ठेकेदार (स्थानीय बोली में गौटिया) ने धनेश्वर से उसके खेत के किराए की मांग की थी (संभव है दबाव रहा हो). छप्पन वर्षीय धनेश्वर ने चार दिन की मोहलत मांगते हुए वायदा किया था कि इंतज़ाम कर देगा. उसके बीस वर्षीय साथी रतीराम के घर की आंट से आठ रुपये नगद और माला का एक हिस्सा बरामद हुआ. बाक़ी हिस्सा तब तक वह पास के बड़े गांव बरमकेला के व्यापारी को आठ रुपये दस आना में बेच चुका था. वजन था साढ़े चार माशा. सोने का रेट था तेईस रुपये तोला.

रतीराम ने वहीं चौदह आने में दो गज़ कपड़ा ख़रीदा, बरामदे में बैठे जान मोहम्मद टेलर को पांच आना सिलाई दे कर शर्ट बनवाई और दूसरे गांव लेन्ध्रा पहुंचा. 3 माशा वजन की कान की बाली को बेचा. बदले में जो चार रुपये मिले उसमें से दो रुपये दो आने में राजनांदगांव की बंगाल नागपुर कॉटन मिल में बनी ‘शेर छाप’ दो धोती और चौदह आने की एक पिछोरी ख़रीदकर गांव आ गया.

केस मजिस्ट्रेट तृतीय श्रेणी एहमदुल्ला खां की अदालत में पेश हुआ. वहां से नायब दीवान के सामने आया. अंत में सेशन जज और दीवान रामदास नायक के पास पहुंचा. मुख्य आरोपी के कबूलनामे और एक आरोपी के सरकारी गवाह बन जाने के बावजूद हर चरण में केस की विस्तृत समीक्षा हुई. चौबीस गवाहों के परीक्षण हुए.

अंत में फ़ैसला हुआ. मुख्य आरोपी धनेश्वर को मृत्युदंड (और उसके पुत्र सहित दो साथियों को आजीवन राज्य-बदर) की सज़ा सुनाई गई. सेशन जज के फ़ैसले के विरुद्ध पॉलिटिकल एजेंट के पास अपील की गई. उसने इसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर का मानते हुए गवर्नर की काउंसिल के पास नागपुर भेज दिया. वहां से मामूली फेरबदल के साथ वापस आने के बाद केस सारंगढ़ हाईकोर्ट में राजाबहादुर जवाहिर सिंह के सामने पेश हुआ, जहां उन्होंने अनुमोदन कर हस्ताक्षर कर दिए.

सारंगढ़ का हाईकोर्ट भवन जहां राजा जवाहिर सिंह ने धनेश्वर के मृत्युदंड के आदेश पर हस्ताक्षर किए. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

सिलसिला यहां समाप्त नहीं हुआ. दया और क्षमा की अंतिम अपील गवर्नर जनरल की काउंसिल के पास नई दिल्ली भेजी गई. गवर्नर जनरल के कार्यालय ने टेलीग्राम के ज़रिये सूचित करते हुए कहा कि यह आदेश ऐसे व्यक्ति के द्वारा अनुमोदित है जो (प्रोटोकॉल में) उनकी साम्राज्ञी के समकक्ष है और इसलिए हस्तक्षेप का विषय उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है.

इस सारी कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि ग़रीब धनेश्वर और दूसरे अभियुक्तों को न केवल सुनवाई और अपील के हर प्रावधान का लाभ दिया गया बल्कि उन्हें क़ानूनी मदद की व्यवस्था भी राज्य की ओर से की गई. उनकी ओर से मुक़दमे में मुख्य वकील रायगढ़ के जीएस गुरु तथा एसपी नायक थे. सलाह तथा अपीलें ड्राफ़्ट करने के लिए बैरिस्टर छेदीलाल तथा नागपुर में सर हरिसिंह गौर की सेवायें ली गई थीं. 15 दिसंबर, 1932 को सारंगढ़ के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एसी सेनगुप्ता ने धनेश्वर का स्वास्थ्य परीक्षण किया और सारंगढ़ जेल परिसर में उसे फांसी दी गई. वह परिसर अब उस मोहल्ले का हिस्सा है जिसे जेलपारा कहा जाता है. जहां जेल का फाँसी घर था, वह अब सरकारी अस्पताल के कैम्पस का हिस्सा है.

अपराध होने से लेकर अपराधी को सज़ा देने तक कुल समय लगा लगभग आठ माह. यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है कि मौत की सज़ा वाले मुक़दमों की आदर्श अवधि कितनी होना चाहिए.

(लेखक इतिहास-प्रेमी हैं, छत्तीसगढ़ में निवास करते हैं.)