गाजा में इज़रायल के हमले को सालभर पूरा हो चुका है पर हिंसा ख़त्म होने की आस नज़र नहीं आती. फ़िलिस्तीन में बरसों से हो रहा विध्वंस साहित्यकारों की दृष्टि से अछूता नहीं रहा है. साहित्य अकादमी से सम्मानित लेखिका नासिरा शर्मा की किताब ‘फ़िलिस्तीन : एक नया कर्बला’ इस भूमि से जन्मी रचनाओं का एक प्रतिनिधि संकलन है.
इस किताब में लेखिका से फ़िलिस्तीन–इज़रायल परिदृश्य पर हुई बातचीत का यह संपादित अंश प्रस्तुत है.
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अशोक तिवारी: आपने मिडिल–ईस्ट पर बहुत काम किया है. आपके लिए इन मुल्कों की समस्याओं को लगातार उठाने के पीछे कौन–से प्रेरक तत्व रहे हैं?
नासिरा शर्मा: एक तो ख़बरों में बचपन से ही इन मुल्कों के बारे में कुछ–न–कुछ सुना था. ज़हन में ये मुल्क तो थे ही, लेकिन जब मैंने लिखना शुरू किया, तो यूं ही ख़्याल सा गुज़रा कि क्यों न मैं उन समस्याओं को उठाऊं जो मेरी पैदाइश के समय की हों. कुछ अरसे बाद मेरी नज़र अंग्रेज़ी में अनुवाद की हुई फ़िलिस्तीन की कविताओं पर पड़ी, जो मुझे अच्छी लगीं. इत्तेफाक़ देखिए कि फ़िलिस्तीन समस्या की शुरुआत 1948 में हुई. फिर मैंने फ़िलिस्तीन की कविताओं का उर्दू–हिंदी में अनुवाद किया और लेख लिखा जो अलीगढ़ से निकलने वाली उर्दू पत्रिका अल्फ़ाज़ में छपा.
फ़िलिस्तीन से भारत का जो रिश्ता था, वो बहुत गहरा था. ख़ासकर पीएलओ लीडर यासर अराफ़ात के साथ. और एक दिलचस्प बात ये भी थी कि उस वक़्त के फ़िलिस्तीनी राजदूत बहुत अच्छी हिंदुस्तानी बोलते थे और लंबे अरसे से हिंदुस्तान में थे. यहां तक कि टेलीविज़न पर भी उन्हें बुलाया जाता था. उस दौर में बहुत सारी गोष्ठियां जगह–जगह होती थीं, जिनमें मैं भी शिरकत करती थी. और इत्तेफाक़ देखिए हिंदुस्तान का बंटवारा 1947 में हुआ और इस विषय पर मेरा उपन्यास ‘ज़िन्दा मुहावरे’ हिंदुस्तान के बंटवारे के 45 साल बाद 1992 में आया.
1947 में हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ और 1948 में इज़रायल अस्तित्व में लाया गया. क्या इसमें आपको कुछ कनेक्शन दिखते हैं?
बिल्कुल. अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ दोनों देशों में मुख़ालफ़तों का दौर था. ब्रिटिश समझ चुके थे कि उनका जाना तय है. मगर जाने से पहले ये दो काम करके गए. 1947 और 1948 में हिंदुस्तान और फ़िलिस्तीन को ऐसी सौगात दे गए कि उसका घाव भरता ही नहीं. ख़ामोशी से खदेड़े गए यहूदियों को गुप्त रूप से फ़िलिस्तीन में बसाया और यहूदी अरब में न सुलझने वाली समस्या खड़ी कर दी. पीएलओ नेता यासर अराफ़ात ने ये बात कही भी थी कि ‘यूएनओने इस समस्या का हल करने के लिए फ़िलिस्तीन–इज़रायल के बराबर–बराबर हिस्से के साथ दो देशों को वजूद में लाए जाने की बात की थी. मगर हुआ ये कि फ़िलिस्तीन को खदेड़ता हुआ इज़रायल आगे बढ़ता चला गया और उसको चूहे के बिल में रहने पर विवश कर दिया.
आपको फ़िलिस्तीनी कविताओं में ऐसा क्या लगा जो आपने उनका अनुवाद किया?
उसमें जो सबसे बड़ी चीज़ मुझे महसूस हुई वो था, वतन से प्यार की शिद्दत और तेवर अपने अरब होने पर. महमूद दरवेश की ये कविता ‘मैं अरब हूं’ में बहुत गुरूर है. महमूद दरवेश की इंक़लाबी कविताओं के अलावा उनकी रोमांटिक कविताएं भी लोकप्रिय हैं. विशेष रूप से ‘फायर’ जो उन्होंने अपनी महबूबा को सम्बोधित करते हुए लिखी हैं. किशोर अवस्था का ये प्यार इस यथार्थ से टकराकर चूर–चूर हो गया कि उनकी महबूबा ने इज़रायल फ़ौज को जॉइन कर लिया, जब वे जेल में थे. और सोचते थे कि वो किसी फ़िलिस्तीनी लड़के से या तो पूछताछ कर रही होगी या किसी फ़िलिस्तीनी को फायर करने का ऑर्डर दे रही होगी.
बहुत सारे मुल्क फ़िलिस्तीन के बजाय इज़रायल का साथ दे रहे हैं, जबकि उन्हें पता है कि इज़रायल ग़लत कर रहा है. इसके पीछे क्या कारण हैं?
एक मुहावरा है– यहूदी सरगर्दान. इस शीर्षक से मेरी एक कहानी भी है– ईरानी शरणार्थियों पर. यहूदी सरगर्दान का मतलब है– यहूदी जो भटक रहा है. ऐसा नहीं है कि हमें यहूदियों से हमदर्दी नहीं है, लेकिन इज़रायल जो कर रहा है, वह हलक़ से नहीं उतर रहा है. उसके पीछे वही देश हैं जो यहूदियों के होलोकॉस्ट के समय चुप रहे और आज जो ख़ूनी नरसंहार को होते देख रहे हैं जिसमें फ़िलिस्तीन की आने वाली पीढ़ी काटी जा रही है. वे चुप हैं. उन्हें समंदर तक जाना है. अगर ग़ाज़ा हथिया लिया जाता है तो उनके लिए समंदर ही तो है न! इधर मिस्र है, उधर जार्डन है. फिर ग्रेटर इज़रायल का झंडा. यहूदी एक बहुत ज़हीन क़ौम है जो हर क़ौम से आगे का सोचती है.
यासर अराफ़ात के बारे में भी अभी जो आपने ज़िक्र किया कि किस तरह उन्हें आतंकवादी कहा जाने लगा, ये भगत सिंह के साथ भी हुआ था, ये तमाम उन लोगों के साथ भी हुआ जिन्होंने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी या संघर्ष किया. अपने अधिकारों के लिए लड़ना क्या व्यवस्था के प्रति विरोध या बग़ावत है या फिर आतंक? इसे हम कैसे परिभाषित करें कि कौन किस खाते में जाएगा?
जिसकी हुकूमत है वो अपनी हुकूमत चलाना चाहता है– चाहे वो विश्व के स्तर पर हो, चाहे वो देश के स्तर पर हो. और जब भी कोई बात कहेगा और उसके सामने कोई नई सोच रखेगा और न्याय की बात करेगा, तो वो आज के दौर में बाग़ी और आतंकवादी हो जाता है. यासर अराफ़ात के बाद तो ये मुहावरा चल पड़ा है कि जो भी अपने हक़ के लिए उठेगा वो बाग़ी नहीं, विरोधी नहीं, आतंकवादी है. अभी देखिए, किसी ने इज़रायलियों से कहा कि जो काम आ सकता है, वो है गांधी का सिद्धांत. आप क्यों चलाते हैं हथियार? मानी बात है हथियारों के मामले में फ़िलिस्तीन कुछ भी नहीं है, मिल गया कुछ, तो उसने दाग दिया. लेकिन इज़रायल को तो अभी भी लगातार मिल रहे हैं बड़े–बड़े हथियार और तमाम विध्वंसक सामग्री.
फ़िलिस्तीन का गद्य कैसा है?
जिन कहानियों के अनुवाद मैंने पढ़े हैं, वो बहुत ख़ूबसूरत हैं. जिसका ज़िक्र मैंने अपने लेख ‘कहानियों में ख़्वाब की ताबीरें उकेरती क़लम’ में किया है. जिन अरब लेखकों को देश निकाला मिला वो विदेशों में फैल गए और उन्होंने 1920 ‘अरब राइटर्स एसोसिएशन’ या ‘पेन’ संस्था की बुनियाद डाली, जिसमें ख़लील जिब्रान, मिख़ाइल नूआजमा, अब्दुल मसीह हद्दाद और नासिब अरिदा. ये चारों जिलावतनी अमेरिका के माहौल और वहां के साहित्यकारों को समझने की कोशिश कर रहे थे, इसमें फ़िलिस्तीनी भी थे. वहां उन्हें मौक़ा मिला तो गद्य लिखा और ख़ूबसूरत लिखा.
इन कवियों को अपने को प्रवासी कहलाना पसंद नहीं था, वो ख़ुद को जिलावतन कहते थे. इसमें एडवर्ड सईद का नाम भी आता है, जिनकी फ़िल्में, वीडियो और किताबें लोकप्रिय रही हैं और वे भारत भी आ चुके हैं. जिलावतनी की शायरी व्यथा और संवेदना की शायरी है. संक्षेप में कहा जाए तो वो नॉस्टैल्जिया का अदब है. जैसे ख़लील जिब्रान ने अपनी कविता ‘द प्रोसेशन’ (The Procession) में शहरी ज़िंदगी का ज़िक्र किया है और अंत में जंगल की तरफ़ जाकर रहने पर समाप्त किया है. इन लेखकों को किताबों को छापने की आसानी मिली और इनके लेखन प्रभाव में आकर बहुत से अंग्रेज़ लेखकों ने फ़िलिस्तीन की समस्या की चर्चा मानवीय स्तर पर की जिससे चर्चा सिर्फ़ अरब भाषा तक सीमित नहीं रही.
फ़िलिस्तीन में युद्ध पर युद्ध थोपने और भयानक आक्रमण के कारण विश्व स्तर पर वाचक कविताओं की परंपरा पड़ी और आप देख ही रहे हैं कि 7 अक्टूबर, 2023 के हमले के बाद विदेशों में जो जुलूस निकल रहे हैं, उसमें फ़िलिस्तीनी–स्वीडिश कूफ़िया बैंड पर सभी फ़िलिस्तीनी पताका उठा–उठाकर नाच–नाचकर गा रहे हैं.
बहुत सारे इज़रायली पत्रकार ऐसे हैं जो अपनी सरकार के ख़िलाफ़ लिखते हैं, आधिपत्य की उनकी नीतियों के ख़िलाफ़ लिखते हैं. कुछ लोगों ने नज़्में लिखीं, कुछ लोगों ने कहानियां लिखीं, कुछ मंत्रियों ने लड़ाई लड़ी कि ऐसा नहीं करेंगे आप, ऐसे नहीं उजाड़ेंगे आप. तो ऐसा नहीं है कि इज़रायलियों के बीच टकराहट नहीं हो रही है.
उस क्षेत्र में जाने का आपका क्या अनुभव रहा?
मुझे एक–दो बार ऑफर मिले फ़िलिस्तीन जाने के लिए. सीधे नहीं मिले, मगर किसी के ज़रिये. उन्होंने कहा कि आप डरिए मत, आप देखिए हमारे मुल्क को. हम आपको वीजा एक पर्चे पे देंगे. कोई भी ठप्पा आपके पासपोर्ट पर नहीं लगेगा. लेकिन गोलन हाइट्स तक हम लोग गए हैं. सीरिया का एक शहर है– गोलन हाइट्स. वो पूरा वीरान था. हमें सुबह–सुबह ले जाया गया बहुत सिक्योरिटी के साथ. वहां बहुत से जंगली फूल खिले थे. और ज़ैतून फली हुई थी. मुझे याद है, मैंने ज़ैतून के पेड़ की टहनी पकड़कर एक तस्वीर भी खिचवाई थी. वहां पर एक खंडहर था और कुरान शरीफ़ के पन्ने इधर–उधर उड़ रहे थे. कुछ अजीब कैफ़ियत थी. वहां के लोगों ने बताया कि इस शहर को हमने खाली करवाया. और वहां के रहने वालों को दूर बसाया और जब मैंने वहां जाने के लिए पूछा तो उन्होंने बताया कि इज़रायल कितनी बुरी तरह से हम लोगों को बर्बाद करता है.
1982 में यासर अराफ़ात साहब हिंदुस्तान आए थे. मध्य–पूर्वी देशों से जब महत्त्वपूर्ण शख़्सियतें आती थीं तो वे जामिया में ज़रूर बुलाए जाते थे. तो वाइस चांसलर किदवई साहब ने उन्हें चाय पर बुलाया था, मुझसे उन्होंने कहा था कि तुम ज़रूर आना. मैं वहां तब पढ़ा रही थी. यासर अराफ़ात से पहली बार मिली थी. उनसे बात क्या होती इतनी भीड़भाड़ में, मगर परिचय कराने पर जिस जज़्बाती तरीक़े से उन्होंने दोनों हाथ से मुझे खुलूस से झिंझोड़ा और अरबी भाषा में कुछ कहा था जो मैं समझ नहीं पाई थी. उनके अनुभवों की vibrations बहुत दिनों तक मेरे साथ रही.
फ़िलिस्तीन में ख़ूबसूरत और कलात्मक वॉल राइटिंग और वॉल पेंटिंग संघर्ष के तौर पर ख़ूब देखने को मिलती हैं. ऐसे देश में जहां दिन–रात बम, गोली, बारूद, विस्फोट, ख़ून और मौत की बात होती हो, तो ऐसे में कला और संस्कृति के विकास को आप किस तरह देखती हैं?
यह ताज्जुब की बात है कि उनके चेहरों पर एक अजीब कॉन्फिडेंस है, जो मैंने बच्चों के चेहरों पर देखा, जो सात–आठ साल के हैं, या अपने भाई–बहनों को संभाल रहे हैं. वो लोग जो कर रहे हैं, वो अद्भुत है. इसका मतलब है कि इतनी लंबी लड़ाई उनके ख़ून में जाकर मिल गई है. और जो तुमने आर्ट और कल्चर की बात कही, उसके लिए फ़िलिस्तीनी बहुत ही ज़्यादा दुख में हैं, क्योंकि उनकी सारी की सारी आर्ट मसलन, हस्तकला वग़ैरह को इन लोगों ने अपनाकर इज़रायली कहना शुरू कर दिया है.
वे लोग इन हालात में भी लगातार थिएटर कर रहे हैं. दाद देनी चाहिए उनकी जीवटता की. उसी तरह मैं उन लोगों (यहूदियों) को भी देख रही हूं. यहूदियों ने जो सहा, कैसे सहा, वो भी एक बहुत बड़ा तारीख़ी घाव है, जिसको इज़रायली फ़िलिस्तीन में, फ़िलिस्तीनियों पर दोहरा रहे हैं. ज़ाहिर है, ख़ुद उनके यहां भी मौत हो रही हैं, उनके यहां लोग बग़ावत कर रहे हैं कि आपने फ़िलिस्तीनियों को खदेड़कर एक जगह बसा दिया. जो कि एक ओपन जेल है.
फ़िलिस्तीन के लोगों के व्यवहार से लगता है कि उन्हें लोगों से मुहब्बत करना आता है. मैंने देखा कि कितनी छोटी–छोटी चीज़ों का वे ध्यान रखते थे, जब हम सभी कलाकार फ़िलिस्तीन में जगह–जगह नाटक करने गए तो वहां मिला फ़िलिस्तीनियों का प्यार और मुहब्बत का भरपूर जज़्बा आज भी हमारी यादों में बसा है.
पूरे मिडिल–ईस्ट में बहुत मुहब्बत है, और बेपनाह मुहब्बत है हिंदुस्तान के लिए.
हाल ही दक्षिण अफ़्रीका इज़रायल को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में ले गया. क्या हम उम्मीद करें कि इसी अदालत में दूसरे देश भी इज़रायल को नरसंहार के नाम पर घसीट सकते हैं?
ये सपना भी हो सकता है और सपना सच भी हो सकता है. इस तरह आगे आने के लिए जिस तरह देशों का अवाम सड़क पर उतरा है, काश! वैसा ही वलवला जोश उनकी हुकूमतों में भी आ जाए तो कहना ही क्या!!
(साभार: राजकमल प्रकाशन)