नई दिल्ली: वैश्वीकरण के दौर में यूरोपीय भाषाओं से इतर भाषाओं के अनुवाद में वृद्धि हुई है. ऐसा नहीं है कि एशियाई साहित्य पहले नहीं पढ़ा जाता था या उसका अनुवाद नहीं होता था, लेकिन पिछले दशकों में एशिया और उसके साहित्य में पश्चिम की दिलचस्पी बढ़ गयी है. एशिया को समझने और उससे संवाद करने की ज़रूरत पहले से अधिक महसूस हो रही है. इस कारण चीनी, दक्षिण कोरियाई, अरबी, तुर्की आदि गैर यूरोपीय भाषाओं से अनुवाद इस दौर में पहले से काफ़ी अधिक हुए हैं और उनको स्वीकार्यता भी अधिक मिली है. अनुवाद को लेकर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाने लगे हैं और ग़ैर-यूरोपीय भाषाओं का साहित्य परिदृश्य पर उभर कर आया है, खासकर उन भाषाओं का साहित्य जिनकी तरफ पहले कम ध्यान दिया गया था.
दक्षिण कोरियाई लेखिका हान कांग, जिन्हें इस वर्ष साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, उनके लेखन को आप अनुवाद की इस संस्कृति के आईने से भी देख सकते हैं. वे इस सम्मान को पाने वाली पहली कोरियाई लेखक हैं.
हान ने अपनी लेखकीय पारी की शुरुआत ‘दी स्कार्लेट एंकर’ (कोरियाई शीर्षक ‘फ़ोलगुन दाछ’) नामक नॉवेला से की थी जो सियोल सिनमुन पत्रिका में 1993 में प्रकाशित हुआ. इसके बाद, 1994 में उनका उपन्यास ‘रेड एंकर’ आया. लेकिन जिस कृति ने हान को दुनिया के सामने लाने का काम किया वह था क़रीब बीस साल बाद लिखा उनका उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’. हान को उनके इस उपन्यास के लिए साल 2016 का मैन बुकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. मैन बुकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार किसी उपन्यास को उसके मूल पाठ और अनुवाद, दोनों के लिए दिया जाता है. कोरियाई से इसका अंग्रेज़ी अनुवाद डेबोराह स्मिथ ने किया है.
इस पुरस्कार के बाद अनुवाद की जहां एक तरफ़ सराहना हुई थी, वहीं दूसरी तरफ़ पश्चिमी मीडिया में इसे लेकर नकारात्मक खबरें और टिप्पणियां देखने-पढ़ने को मिलीं. मसलन, ‘हफिंगटन पोस्ट’ ने इसे ‘मूल विषय से परे’ कह दिया. ‘द गार्जियन’ ने इस अनुवाद को ‘(मिस)ट्रांसलेशन’ कहकर इसकी आलोचना की थी.
लेकिन इन सभी विवादों के बीच हान कांग अपने उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवाद और अनुवादक डेबोराह स्मिथ के साथ डटकर खड़ी रहीं. ‘द वेज़िटेरियन’ को लेकर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य जगत में उथल-पुथल मची और यह अनुवाद साहित्य के लिए एक नई उम्मीद लाने वाली घटना बन गया. आज नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद यह कहा जा सकता है कि कथानक और अनुवाद को लेकर वे सभी नकारात्मक टिप्पणियां संभवतः या तो खोखली रही होंगी या फिर पक्षपातपूर्ण.
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अपने शुरुआती लेखन में हान ने मानव अलगाववाद, आघात और अस्तित्ववाद को केंद्र में रखा था. लेकिन इसके बाद के उनके लेखन में आपको मानव मानस, हिंसा, सामाजिक दबाव, व्यवस्थाओं के कारण इंसानी ज़ेहन पर पड़ने वाले अथाह बोझ जैसे विषय दिखाई पड़ने लगते हैं. हान अमूमन स्त्री के इर्द-गिर्द अपनी कथा बुनती हैं और उनके मुख्य पात्र बनी-बनाई व्यवस्थाओं और सुव्यवस्थित ढांचों को बड़ी शालीनता और सौम्यता के साथ चुनौती देते हैं. मसलन, ‘द वेज़िटेरियन’ की मुख्य पात्र ‘यंग-ही’ बड़े ही शांत एवं सहज ढंग से मांसाहार को त्याग कर शाकाहार को अपनाकर कोरियाई समाज के ताने-बाने को चुनौती देती हैं.
हान की प्रसिद्ध कहानी ‘ने यज़ा ऊई यलमै ( दी फ़्रूट ऑफ माय वुमन)’ की पात्र भी मानव सभ्यता को एक बार फिर से शाकाहार की तरफ़ ले जाने का संदेश देती हुई नज़र आती है. कह सकते हैं कि ‘द फ़्रूट ऑफ माय वुमन’ ने ‘द वेज़िटेरियन’ के लिए आधारशिला का काम किया. ‘द वेज़िटेरियन’ को मिली ख्याति के बाद हान ने कहा था कि मुझे इन दोनों कहानियों के सूत्र कोरियाई कथाकार यी सांग के कथन ‘मेरा मानना है कि मनुष्य को एक पौधा बन जाना चाहिए’ से प्राप्त हुए थे.
हान अपनी प्रत्येक कृति में अमूमन नई ज़मीन को तोड़ती हैं. मसलन, उनकी जटिल लेकिन लिरिकल कृति ‘द ह्वाइट बुक’ (कोरियाई नाम ‘हिन’) अद्भुत शिल्प को रचती है. इस किताब के केंद्र में ‘सफ़ेद रंग’ है, जिसे उनका देश दक्षिण कोरिया शोक का प्रतीक मानता है. माना जाता है कि अपनी मां की मृत्यु से उद्वेलित होकर हान ने यह उपन्यास लिखना शुरू किया था. जन्म लेने के मात्र दो-ढाई घंटे बाद एक नवजात शिशु की मृत्यु और उससे उपजे शोक के सहारे इस उपन्यास में हान ने शोक, हर्ष, आनंद और जीवन तथा मृत्यु के बीच के संतुलन को बड़े नायाब तरीक़े से बुना है. यह किताब फ़िक्शन और मेमॉयर के बीच तैरती है.
हान कांग स्मृति, हानि और जीवन की नाजुकता को चित्रित करने के लिए सफेद वस्तुओं (जैसे बर्फ, चावल और सफ़ेद फूल, सफ़ेद कोरा कागज़) की छवियों का उपयोग करती हैं. उपन्यास व्यक्तिगत दुःख को व्यापक अस्तित्व संबंधी प्रश्नों के साथ जोड़ता है, जिससे ज्वलंत गद्य में डूबी एक ऐसी कृति आपके सामने आती है जो आत्मविश्लेषणात्मक है, और कथ्य की भयावहता के बावजूद अत्यंत सुंदर है. इसकी शैली ‘द वेज़िटेरियन’ से अलग है, लेकिन यह उपन्यास भी भावनाओं और दार्शनिक प्रतिबिंबों को उसी गहराई और सफलता से थामता है.
अंतरराष्ट्रीय और कोरियाई साहित्य समाज अभी ‘द वेज़िटेरियन’ को मिलने वाली सफलता के प्रभाव में था कि हान ने 2023 में अपनी नई कृति से अपने पाठकों को चौंका दिया. छाकब्यलहाजी आनन्दा (Jagbyeolhaji Anneunda) नामक इस उपन्यास का फ्रेंच अनुवाद ‘आई डू नॉट बिड फ़ेयरवेल’ एमिली याए वॉन (Emily Yae Won) ने किया है. एमिली समकालीन कोरियाई साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नाम हैं. इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘वी डू नॉट पार्ट’ जल्द प्रकाशित होने की सम्भावना है.
हान की यह कृति 3 अप्रैल की ऐतिहासिक जेजू घटना को तीन स्त्रियों के माध्यम से पाठक के सामने लाती है. यह घटना 1948 में दक्षिण कोरिया के जेजू द्वीप पर हुई थी, जिसमें सरकार के खिलाफ विद्रोह और उसके बाद की हिंसा शामिल थी. यह घटना दक्षिण कोरिया के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और दुखद अध्याय है. यह किताब दुख और स्मृति से संवाद करती है. यह उपन्यास व्यक्तिगत और सामूहिक अस्मिता के जरिये मनुष्य पर पड़ते विभिन्न आघातों के प्रभाव को दर्शाता है.
यह उपन्यास अलगाव-विछोह से मिलने वाले दर्द और किसी भी त्रासदी के बाद जीवन के अर्थों को खोजने के लिए किए गए संघर्षों की कथा कहता है. किसी ऐतिहासिक घटना की छाया में महिलाएं अपना जीवन कैसे व्यतीत करती हैं, और हिंसा की विरासत और अपनी निजी क्षति से जूझती हैं, यह उपन्यास उसकी गाथा है.
आज नोबेल के रूप में हान को जो सम्मान मिला है वह उसकी पात्र हैं और उनकी कृतियां दुनिया भर के पाठकों और साहित्य-प्रेमियों को इसका प्रमाण देती हैं.
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जिस दिन हान कांग को यह पुरस्कार मिला, वह एक अन्य अर्थ में भी ख़ास है. 9 अक्टूबर को दक्षिण कोरिया हानगुल डे (Hanguel Day) के रूप में मनाता है. कोरियाई भाषा जिस लिपि में लिखी जाती है, उसका नाम हानगुल (Hanguel) है. चीनी एवं अन्य एशियाई प्राचीन भाषाओं की तुलना में महज़ लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पुरानी अपनी भाषा के सम्मान में दक्षिण कोरिया हर साल यह दिन बहुत हर्ष और उल्लास के साथ मनाता है. दुनिया भर के तमाम विभिन्न विश्वविद्यालय और स्कूल जहां कोरियाई भाषा पढ़ाई जाती है, यह उत्सव मनाते हैं.
जिस समय दक्षिण कोरिया अपनी भाषा का जश्न मना रहा था, उसकी एक लेखिका ने अपनी लिपि, अपनी भाषा और अपने देश को एक नायाब तोहफ़ा दे दिया.
गौर करें, ‘हान’ दक्षिण कोरियाई भाषा का एक प्रतिनिधि शब्द है. यह उन तमाम संवेदनाओं को प्रतिबिंबित करता है जिन्हें कोरिया अपनी पहचान का प्रतीक मानता है. आज दक्षिण कोरिया जश्न मना रहा है अपने अस्तित्व, अपनी भाषा और अपने साहित्य का, इस अंतरराष्ट्रीय सम्मान का.
(लेखक कोरियाई भाषा की अध्येता हैं और दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाती हैं.)