जब देश की बड़ी आबादी दशहरा के उत्सव में व्यस्त थी, हैदराबाद से ख़बर आई कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने रात साढ़े आठ बजे के आसपास आखिरी सांसें लीं. लगभग दस सालों तक क़ैद में रखे जाने के बाद मार्च 2024 में जब वे मुंबई हाईकोर्ट से निर्दोष बरी किए गए थे, तब तक उनकी सेहत काफ़ी बिगड़ चुकी थी. 90% तक शारीरिक तौर पर अक्षमता के बावजूद इन दस सालों में नागपुर जेल में उनके स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षा और आपराधिक लापरवाही बरती गई. साईबाबा की जीवनसाथी वसंता गुहार लगाती रहीं कि उनकी सेहत लगातार गिर रही है, लेकिन राज्यसत्ता की दमनकारी नीतियों को लागू करने और परपीड़क रवैये वाले अधिकतर जेल अधिकारियों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा.
दस सालों तक क़ैद में अलग-थलग और कठोरतम जीवन परिस्थितियों के बीच भी साईबाबा की जिजीविषा और हौसला अटूट रहा. शायद इन्हीं जीवन मूल्यों के सहारे उन्होंने सदियों से उत्पीड़ित समुदायों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए अपनी असंदिग्ध प्रतिबद्धता को क़ायम रखा होगा.
उन्हें दृढ़ तौर पर भरोसा था कि एक न एक दिन वे बेगुनाह साबित होकर अपने शिक्षक के पेशे में वापसी करेंगे और दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के बीच अंग्रेजी साहित्य की कक्षाएं ले रहे होंगे. लेकिन, यह भी एक तथ्य है कि 5 साल की उम्र में ही शरीर के निचले हिस्से में पोलियोग्रस्त होने के कारण साईबाबा को रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों के लिए भी कई बार अपने सहयोगियों की मदद की आवश्यकता होती थी. अतः जेल की यातनादायक कालकोठरी में अलग-थलग दस साल गुजारने के बाद उनके शरीर के आंतरिक हिस्सों में जो जानलेवा प्रभाव पड़े होंगे, उसकी वजह से उनका असामयिक देहांत समूची न्याय-प्रणाली और राज्य की क्रूर मशीनरी के बारे में कुछ गंभीर सवाल पैदा करता है.
विडंबना ये है कि हमारे देश की मुख्यधारा का अधिकतर मीडिया इन चुभते सवालों से निगाह बचाने में लगा हुआ है. वर्तमान समय में देश का लगभग समूचा मीडिया, जिसे सचमुच के लोकतांत्रिक मूल्यों का हिमायती होना चाहिए था, वह भी राज्य के ही एक जनविरोधी उपकरणीय हत्थे के बतौर तब्दील हो गया है.
साईबाबा, जिन्हें उनके क़रीबी लोग साई के नाम से पुकारते थे, का वैचारिक फलक बहुत व्यापक था. वे वर्तमान भारत में आदिवासियों के मानवाधिकारों से लेकर राजनीतिक बंदियों तक और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के खिलाफ आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर भारत अभियान के साथ-साथ युद्धविरोधी जन-संघर्षों तक एक समान ढंग से आवाजाही करते थे. वे तेलुगु भाषा में मौजूद उस उपनिवेशवाद-विरोधी सांस्कृतिक परंपरा से आते थे जिसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में तेभागा और निजाम विरोधी तेलंगाना आंदोलन तक जाती हैं.
वो आजादी के आंदोलन के बाद एक स्वतंत्र और अमेरिकापरस्त, साम्राज्यवादी नीतियों से मुक्त संप्रभु भारत की संकल्पना में रचे-बसे जन-आंदोलनों के प्रति गहरी आस्था से प्रेरित जन-बुद्धिजीवी थे, जिनके लिए अकादमिक जीवन की नीरस सुविधा-संपन्नता और बौद्धिक बहसें मन बहलाने का साधन नहीं, बल्कि वर्तमान भारत में हाशिये पर धकेल दिए गए समुदायों और जन-जीवन के संघर्षों से एकता की पहल थीं.
उनको पहले-पहल कुख्यात गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. कई कानूनविद तर्क देते हैं कि इस कानून की जड़ें 1919 में अंग्रेजों के शासन के दौरान रॉलेट एक्ट तक जाती हैं, जिसे गांधीजी ने सभी दमनकारी कानूनों में सर्वाधिक क्रूर कहा था. जलियांवाला नरसंहार इसी कानून के विरोध में अंजाम दिया गया था. स्वतंत्र भारत में, संवैधानिक मूल्यों का तकाजा होता कि ऐसे कानूनों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाना चाहिए था. क्योंकि ये नागरिक स्वतंत्रता के हनन के लिए ही कुख्यात होते हैं, लेकिन इंदिरा गांधी ने इस कानून को वापस खड़ा किया.
कालांतर में, बाद की सभी सरकारें इस कानून का प्रयोग करते हुए नागरिक स्वतंत्रता को कुचलती रहीं. साईबाबा के पहले कुचर्चित भीमा-कोरेगांव मामले में क़ैद फादर स्टेन स्वामी को भी इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था. मुकदमे के दौरान ही 80 वर्ष की उम्र में फादर स्टेन स्वामी का अस्पताल में देहांत हो गया. अब उन्हें इस मुकदमे से निर्दोष साबित करने की अदालती प्रक्रिया चल रही है. अगस्त, 2022 में साईबाबा के साथ गिरफ्तार किए गए एक अन्य आरोपी पांडु नरोटे की भी जेल में ही मौत हो चुकी है.
इस पूरे प्रकरण में एक बात गौरतलब है, वह है राज्य-मशीनरी के अदृश्य संगठनों की भूमिका. यह एक आवश्यक तथ्य है कि साईबाबा को गिरफ्तार करने, उन पर झूठ मुकदमा आरोपित करने और फलस्वरूप दस साल तक जेल में बेवजह क़ैद रहने के कारण उनके शारीरिक स्वास्थ्य के जानलेवा होते चले जाने में ‘डीप स्टेट्स’ की भूमिका पर उंगली उठाए बगैर नागरिकों को प्रताड़ित किए जाने के आपराधिक मकड़जाल को समझना मुश्किल है.
केंद्र और राज्य की खुफिया एजेंसिया, जेल अधिकारी, पुलिस तंत्र वगैरह सभी साईबाबा जैसे बुद्धिजीवियों और फादर स्टेन स्वामी और पांडु नरोटे जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के असामयिक और अप्राकृतिक मृत्यु के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष ढंग से जिम्मेदार हैं. अगर जेल व्यवस्था मानवीय हो, मेडिकल सुविधाएं त्वरित और सहज सुलभ हों तो ऐसी मौतें यकीनन रोकी जा सकती हैं और एक बेहतर व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है.
साईबाबा के देहांत के बाद उनके परिवार द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि उनका पार्थिव शरीर, साई की इच्छा के अनुरूप, मेडिकल अध्ययन के लिए दान कर दिया जाएगा. सोशल मीडिया पर, कम संख्या में ही सही लेकिन विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों ने साईबाबा को उनकी जिजीविषा, उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति और उनकी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के लिए याद किया है.
साईबाबा मार्च महीने में निर्दोष बरी होने के बाद राजनीतिक बंदियों और जेल के भीतर व्याप्त अमानवीय जाति-प्रथा के उन्मूलन के लिए काम करना चाहते थे. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जेल के भीतर मौजूद जातिगत भेदभाव की व्यवस्था को खत्म करने के पक्ष में जो निर्णय आया है, उसके आलोक में साईबाबा की उपरोक्त इच्छाएं और भी अहम हो जाती हैं.
नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं को वास्तविक नागरिक स्वतंत्रता हासिल करने के लिए साईबाबा का जीवन और उनके जीवन संघर्ष हमेशा प्रेरित करते रहेंगे. हालांकि, उनका असामयिक देहांत एक सवाल की तरह हमेशा हमारे गणतंत्र के समक्ष उपस्थित रहेगा. दक्षिण एशिया के महान शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शब्दों में कहें तो:
‘तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा
कितने आंसू तिरे सहराओं को गुलज़ार करें.’
(लेखक हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, जयपुर में सहायक प्रोफ़ेसर हैं)