झारखंड में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. 13 व 20 नवंबर को दो चरणों में मतदान होगा एवं 23 नवंबर को मतगणना होगी. वर्ष 2000 में झारखंड बनने के बाद पहली बार अलग राज्य के लिए आंदोलन करने वाली पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के नेतृत्व में सरकार पांच सालों तक चली. लोगों की ‘अपनी सरकार’ से अपेक्षा थी कि जिन सपनों के साथ आंदोलन चला, यह सरकार उन मुद्दों पर काम करेगी.
2014-19 के दौरान मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)- ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) की सरकार के बाद झारखंड के इतिहास में दूसरी बार कोई सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल को पूरा करने वाली है. रघुवर सरकार के कार्यकाल में झारखंड लगातार मानवाधिकार उल्लंघनों, पुलिसिया दमन, जबरन भूमि अधिग्रहण और कई जन विरोधी नीतियों के लिए चर्चित रहा. 2019 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो, कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के गठबंधन ने इन नीतियों के विरुद्ध व स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा और इन्हें निर्णायक बहुमत भी मिला.
पिछले पांच सालों में भाजपा और केंद्र ने कई बार हेमंत सोरेन सरकार को गिराने की कोशिश की. हर विपक्षी राज्य की तरह झारखंड में भी ईडी, सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियां विपक्ष को घेरने में लगी रहीं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लोकसभा चुनाव के पहले ऐसे मामले में पांच महीने तक जेल भेजा गया जिसमें आज तक कोई साक्ष्य नहीं है.
भाजपा और केंद्र द्वारा हेमंत सोरेन सरकार को अस्थिर करने की लगातार कोशिशों के बीच कैसा रहा इनका कार्यकाल?
भाजपा के एजेंडा का विरोध
झारखंड जैसे छोटे राज्य के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, विभिन्न मुख्यमंत्री समेत अनगिनत भाजपा के राष्ट्रीय नेता जुटे हुए हैं. आखिर, हेमंत सोरेन सरकार ने आरएसएस-भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा को चुनौती दी है. संघ के विभिन्न संगठन झारखंड के आदिवासियों में सरना-ईसाई के नाम पर फूट डाल रहे हैं. साथ ही, ‘सरना-सनातन एक’ जैसे नारे से आदिवासियों को हिंदुत्व के खेमे में लाने की लगातार पहल चल रही है.
इसके विरुद्ध हेमंत सोरेन सरकार ने स्वतंत्र आदिवासी अस्तित्व व संस्कृति को स्थापित करने के लिए ठोस कदम उठाए हैं. आदिवासी धर्म व सरना कोड को मान्यता देने के प्रस्ताव को विधानसभा ने पारित करके केंद्र को भेजा है. साथ ही, सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस (जिसका आरएसएस विरोध करती है) को धूमधाम से मनाने की परंपरा शुरू की और ‘जोहार’ शब्द को प्रशासनिक बोलचाल का हिस्सा बनाया है. पिछले साल हेमंत सोरेन ने एक कार्यक्रम में यह बयान भी दिया कि ‘आदिवासी न कभी हिंदू थे और न कभी होंगे’. यह संघ के हिंदुत्व के एजेंडे पर सीधा प्रहार है. इसके अलावा, वे मोदी सरकार की केंद्रीकरण नीतियों के विरुद्ध झारखंडी हितों की वकालत करते रहे हैं.
लेकिन झारखंड सरकार ने हिंदुत्व को राजनैतिक चुनौती तो दी, इसके ज़मीनी विस्तार को रोकने में सक्रियता नहीं दिखाई. भाजपा और संघ से जुड़े विभिन्न संगठन पिछले पांच सालों में लगातार मुसलमानों और ईसाइयों को केंद्रित कर राज्य में सांप्रदायिकता फैलाने में लगे हुए हैं. राम नवमी के दौरान नफरती भाषण व हिंसा की अनेक घटनाएं हुई हैं. प्रशासन की और से ऐसी घटनाओं को रोकने व इन पर कार्रवाई की सक्रियता नहीं दिखी. हालांकि, रघुवर सरकार की तुलना में हेमंत सोरेन के कार्यकाल में गाय व धर्म के नाम पर मुसलमानों, आदिवासियों व दलितों की लिंचिंग की घटनाएं कम हुईं, लेकिन ऐसे मामलों में पुलिस व प्रशासनिक रवैये में फर्क नहीं दिखा. झामुमो गठबंधन सरकार से यह भी आशा थी कि वह मॉब लिंचिंग के विरुद्ध विशेष कानून बनाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
झारखंडी पहचान
झारखंड राज्य की मांग के पीछे एक प्रमुख कारण था क्षेत्र के रोज़गार, संसाधनों व प्रशासन पर गैर-आदिवासियों व बाहरियों का कब्ज़ा. इसलिए राज्य गठन के बाद से ही झारखंडी पहचान व स्थानीयता राजनीति का मुद्दा बना रहा. जहां एक तरफ संघ झारखंड के आदिवासियों को हिंदू पहचान देने में लगा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ आज तक झारखंडी की परिभाषा राज्य के आंदोलन की सोच के अनुरूप तय नहीं हो सकी. इस सोच के अनुसार झारखंड के आदिवासी एवं इस क्षेत्र में अनेक दशकों से रहने वाले विभिन्न समुदाय के लोग (मूलनिवासी), जिनके शोषण का इतिहास लंबा है, यहां के स्थानीय हैं. लेकिन इसके विपरीत 2016 में रघुवर दास सरकार ने ऐसी नीति लागू की जिससे 1985 में आकर बसने वाले लोग भी स्थानीय माने जाएंगे. यह हैरानी की बात नहीं है क्योंकि भाजपा का एक बड़ा वोट बैंक वे गैर-आदिवासी हैं जो हाल के दशकों में आसपास के राज्यों से आकर बसे हैं. पार्टी में भी ऐसे अनेक नेता हैं.
हेमंत सोरेन सरकार ने इस स्थानीय नीति को बदलकर आदिवासी-मूलवासियों के लंबे समय की मांग के अनुरूप 1932 खतियान आधारित स्थानीयता नीति को विधानसभा में पारित किया. इस नीति के अनुसार ऐसे लोग स्थानीय होंगे जिनके पास वर्ष 1932 के ज़मीन मालिकाना का प्रमाण है. साथ ही भूमिहीन मूलवासियों के लिए विशेष व्यवस्था रखी गई. लेकिन इसे लागू करने के बजाय राज्य सरकार ने संविधान की 9वी अनुसूची में जोड़ने की मांग के साथ केंद्र के पाले में डाल दिया. वर्तमान चुनावी गणित के कारण गठबंधन सरकार ने इसे तुरंत लागू करने की हिम्मत नहीं की. हालांकि, सरकार ने स्थानीय हिस्सेदारी को सुदृढ़ करने के लिए एक और सकारात्मक पहल की. रोज़गार में स्थानीय हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों में 40,000 रुपये से कम के मासिक वेतन वाली नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 75% आरक्षण का कानून बनाया. यह धीरे-धीरे लागू हो रहा है, लेकिन इस आरक्षण के लिए अभी तक रघुवर सरकार की नीति के अनुसार ही स्थानीयता तय हो रही है.
जल, जंगल, ज़मीन
राज्य में जल, जंगल, ज़मीन बचाने के लिए आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास लंबा है. यह उम्मीद थी कि झामुमो गठबंधन सरकार इस संघर्ष का साथ देगी. रघुवर दास सरकार ने 2016 में राज्य की 22 लाख एकड़ सामुदायिक ज़मीन (जिसे ग्राम सभाएं पारंपरिक रूप से अपना मानती हैं) को बिना ग्राम सभा को सूचित किए लैंड बैंक में डाल दिया था. इसका उद्देश्य था कि कोई भी कंपनी अधिग्रहण के लिए कंप्यूटर पर ही ज़मीन चिह्नित कर सकती है जिसे राज्य सरकार रातों-रात उन्हें दे सके.
इसके अलावा रघुवर सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून-2013 में संशोधन किया था, जिसके तहत निजी व सरकारी परियोजनाओं के लिए बिना ग्राम सभा की सहमति व सामाजिक प्रभाव आकलन के बहुफसलीय भूमि समेत निजी व सामुदायिक भूमि का जबरन अधिग्रहण किया जा सकता है.
गठबंधन दलों ने विपक्ष में रहते इन नीतियों व कानूनों का जमकर विरोध किया था और सरकार बनते ही इन्हें रद्द करने का वादा भी किया था. लेकिन हेमंत सरकार इन पर पांच साल तक चुप्पी साधे रही. इस दौरान विभिन्न कोयला खदानों के लिए भी जबरन भूमि अधिग्रहण हुआ. हालांकि यह केंद्र का मामला है, राज्य की ओर से इस पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं दिखा. पहले की तरह ही पत्थर और बालू का अवैध खनन भी चलते रहा. साथ ही, पिछले पांच साल भी छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटीए) व संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटीए), जिसके तहत आदिवासी ज़मीन के गैर-आदिवासियों को हस्तांतरण पर पूर्ण रोक है, का व्यापक उल्लंघन जारी रहा.
आदिवासी स्वायत्तता और स्वशासन व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए बने पेसा कानून को झामुमो सरकार ने अपने कार्यकाल में ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं किया. झारखंड ही एक मात्र पांचवी अनुसूची का राज्य है जहां पेसा कानून की नियमावली आज तक नहीं बनी है. इसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी ज़िम्मेवार है या नौकरशाही की रुकावट, यह साफ़ नहीं है.
झारखंड हमेशा से पुलिसिया दमन और सुरक्षा बलों की हिंसा के लिए चर्चित रहा है. रघुवर सरकार ने तो पत्थलगड़ी को असंवैधानिक करार देकर अनेकों आदिवासियों व हजारों अज्ञातों पर राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था. हेमंत सोरेन सरकार की सराहनीय पहल थी कि इन मामलों एवं सीएनटी-एसपीटी कानूनों में हुए संशोधनों के विरुद्ध आंदोलन में दर्ज मामलों को ख़त्म किया. लेकिन यह दुःख की बात है कि इन पांच सालों में भी पुलिस व सुरक्षा बलों के गैर-संवैधानिक रवैये में कोई बदलाव नहीं दिखा. आदिवासियों व अन्य वंचितों पर दैनिक दमन, जैसे हिरासत में हिंसा व फर्जी आरोप लगाना, जारी रहा. इसके दोषियों के विरुद्ध महज़ प्राथमिकी दर्ज करवाना आज भी चुनौतीपूर्ण है.
सामाजिक सुरक्षा व बुनियादी सेवाएं
रघुवर दास सरकार के कार्यकाल में बड़े पैमाने पर राशन कार्ड व पेंशन से लोगों के नाम काटे गए थे, जिसके कारण भूख से कई मौतें हुई थीं. गठबंधन दलों ने इसे 2019 विधानसभा चुनाव का एक बड़ा मुद्दा बनाया था. इस मुद्दे पर प्रतिबद्धता दर्शाते हुए हेमंत सोरेन सरकार ने गरीब व वंचितों के लिए कई महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा व खाद्य सुरक्षा योजनाएं लागू की हैं. बुजुर्गों के लिए पेंशन की उम्र को 60 वर्ष से कम करके 50 वर्ष की. साथ ही, बुजुर्गों, एकल महिलाओं व विकलांगों को मिलने वाली पेंशन का दायरा व्यापक स्तर पर बढ़ाया. 2019 में राज्य द्वारा केवल 6.6 लाख लोगों को पेंशन दि जाती थी, जबकि अब 30 लाख लोगों को दी जा रही है. हाल में लागू की गई मईयां सम्मान योजना से राज्य की 18-49 साल की उम्र की करीब 50 लाख महिलाओं को 1000 रुपये मासिक सहयोग राशि मिलने लगी है. जिस राज्य की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीब हो, वहां ऐसे सहयोग का महत्त्व समझा जा सकता है.
साथ ही, केंद्र सरकार के राशन के अपर्याप्त कोटे के कारण राज्य के कम-से-कम 46 लाख पात्र लोग जन वितरण प्रणाली के बाहर हैं. 2020 में झारखंड सरकार ने अपनी खाद्य सुरक्षा योजना शुरू की जिसके अंतर्गत ऐसे 20 लाख लोगों को सस्ती दर पर चावल देना शुरू किया. हालांकि, वर्तमान आंकड़े 17 लाख लोगों को सस्ती दर पर चावल मिलने की पुष्टि करते हैं. वहीं, सरकार ने योजना का दायरा बढ़ाकर 25 लाख लोगों तक लाभ पहुंचाने घोषणा की है. वैसे इस योजना के अंतर्गत लोगों को नियमित रूप से राशन नहीं मिल रहा है क्योंकि केंद्र इस योजना के लिए अतिरिक्त अनाज नहीं दे रहा है. कोविड लॉकडाउन के दौरान केंद्र ने तो कई महीनों तक झारखंड के मजदूरों की समस्याओं को नकारा, लेकिन गठबंधन सरकार ने बढ़-चढ़ कर अपनी जिम्मेवारी निभाई, चाहे उन्हें राज्य में वापस लाना हो या उनके लिए खाने-पीने की व्यवस्था करनी हो.
राज्य सरकार कई मामलों में पूर्ण रूप से विफल भी रही. राजनैतिक उदासीनता और नौकरशाही पर नियंत्रण की कमी के कारण अनेक वादे घोषणा तक ही सीमित रहे. उदाहरण के लिए, कई बार ऐलान करने के बावजूद अभी तक मध्याह्न भोजन व आंगनवाड़ी में बच्चो को रोज अंडे मिलना शुरू नहीं हुआ. सरकारी योजनाओं, जैसे मनरेगा व मुख्यमंत्री रोज़गार सृजन योजना, में व्यापक ज़मीनी भ्रष्टाचार व ठेकेदारी पर अंकुश नहीं लगा. चार सालों से बिना सूचना आयुक्त के निष्क्रिय पड़ा सूचना आयोग भी इसका प्रमाण है. साथ ही, राज्य की लचर सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था, जो सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, को ठीक करने में नगण्य काम हुआ.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और झारखंड में जन मुद्दों पर संघर्ष करते हैं.)