परंपरा और परिवर्तन: मधुबनी पेंटिंग की विरासत पर रानी झा से विशेष बातचीत

मधुबनी पेंटिंग का प्रारंभिक इतिहास अगर चित्त (मन) की बात करता है, तो आधुनिक इतिहास वित्त की. एक समय महिलाएं ये चित्र आध्यात्मिक भाव से बनाती थीं और आत्मसंतोष प्राप्त करती थीं. अब इसका व्यवसायीकरण हुआ है, तो वित्त भी इससे जुड़ गया, जो सुखद है.

कागज पर चित्र उकेरतीं रानी झा. (फोटो साभार: फेसबुक)

मधुबनी बिहार की प्रतिनिधि चित्रकला है. मधुबनी कलाकार दृश्य जगत तक सीमित नहीं रहते, वे तमाम अनुभूतियों, संवेदनाओं और ध्वनियों को रंगों के जरिये थाम लेते हैं. आशुतोष कुमार ठाकुर ने मधुबनी की चर्चित कलाकार विदुषी रानी झा से उनके जीवन, यात्रा और उनकी कला के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से बात की है.

रानी जी, कृपया अपने प्रारंभिक जीवन और परिवार के बारे में संक्षेप में बताएं. साथ ही, यह भी बताएं कि आपकी शैक्षणिक यात्रा ने आपको मधुबनी पेंटिंग का कलाकार बनने के लिए कैसे प्रेरित किया ?

मैं मूलतः एक कलाकार और कला शिक्षिका हूं. मैं एक निम्न – मध्यमवर्गीय परिवार से आती हूं. मेरी  शिक्षा-दीक्षा बिल्कुल ही ग्रामीण परिवेश में हुई. चित्रकला का गुण मुझे अपने पिता पक्ष से और गायन मुझे मातृपक्ष से मिला है. मैं पारंपरिक लोकगीत गाती हूं और इन गीतों को कभी-कभी चित्रों के माध्यम से आकार देती हूं, खासकर सीता से संबंधित गीत का प्रयोग चित्रों में करती हूं.

मेरी स्वर्गीय दादी (स्व. बुच्चनी देवी) बहुत ही सुंदर ‘लिखिया’ करती थीं. मिस्टर आर्चर द्वारा भित्ति  चित्रों के फोटोग्राफ्स जो ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन को समर्पित किए गए थे, उनमें से एक चित्र मेरी दादी का भी है. उच्च शिक्षा ने मुझे इस चित्रकला के प्रति नई दृष्टि दी. मुझे इसके व्यावहारिक पक्ष के अलावा इसके सैद्धांतिक पक्ष को समझने हेतु प्रेरित किया.

आप हमारे पाठकों को संक्षेप में मधुबनी पेंटिंग का इतिहास बताएं. 

मुझे लगता है कि इस पेंटिंग के आधुनिक इतिहास की नींव इसका आरंभिक इतिहास ही है. मिथिला में इसकी परंपरा आदि काल से ही थी. 1934 के भूकंप के बाद मिट्टी की दीवारों पर जो चित्र प्राप्त हुए वह सदियों नहीं, युगों पुरानी चित्र परंपरा की झलक मात्र थे- जो मिथिला के लोकाचार में रची-बसी थी. यह संयोग था कि 1934 में आए विनाशकारी भूकंप ने दुनिया को इस परंपरा से रू-ब-रू करवाया और सत्तर के दशक के अकाल में धीमी गति से ही सही यह ‘कला’ बाज़ार की तरफ मुड़ गई.

1960 से लेकर 2000 ई० तक यह पेंटिंग अपने पूर्व- स्वरूप में ही नजर आई. हां, इन चालीस सालों में कुछेक कलाकारों ने ‘कचनी’ शैली में अपने विषय (थीम) में थोड़ा सा परिवर्तन किया. जिसमें प्रमुख थीं- पद्मश्री गंगा देवी, पद्मश्री गोदावरी दत्त और श्रीमती ललिता देवी. गंगा देवी को अपनी जापान यात्रा में जो कुछ भी नई चीजें दिखीं उन्होंने उन दृश्यों को अपनी कला में आकार दिया.

गोदावरी दत्त ने परंपरागत चित्रों की लीक से हटकर कुछ नए प्रयोग किए, जैसे केवल एक त्रिशूल जिसे उन्होंने कचनी शैली में अभिनव डिजाइन से सजाया था. अभी तक इतने बारीक डिजाइन से सुसज्जित चित्र मेरी जानकारी में नहीं देखे गए थे. शिव के साथ त्रिशूल तो हर कलाकार बना रही थीं पर एक त्रिशूल मात्र किसी ने नहीं प्रस्तुत किया था, इसे हम एक नए प्रयोग के तौर पर देख सकते हैं. इसी श्रृंखला में उन्होंने सुदर्शन, धनुष, बासुकी नाग आदि की अपनी प्रस्तुति दीं. ये सभी चित्र जापान के मिथिला म्यूजियम (संग्रहालय) में देखे जा सकते हैं.

इसी तरह से विषय में परिवर्तन हम श्रीमती ललिता देवी (सिमरी राजनगर) के चित्रों में भी देख सकते हैं, जो उन्होंने सेवा (सेल्फ एम्प्लॉयड वीमेन एसोसिएशन)-मिथिला की संस्थापिका श्रीमती गौरी मिश्र के सुझाव पर बनाए थे, जैसे कि ‘पर्यावरण और हम’, ‘महिला स्वावलंबन’ आदि.

2003 में अमेरिकी नृविज्ञानी रिसर्च स्कॉलर रेमंड ओवेंस के सहकर्मी डेविड सैटन (एथनिक आर्ट फाउंडेशन, न्यू जर्सी) ने मिथिला कला संस्थान की स्थापना की जो मधुबनी के महिला कॉलेज रोड पर था. हालांकि, इसकी स्थापना में मुख्य योगदान यहां के मूल निवासी लेकिन न्यू जर्सी, अमेरिका  में रहने वाले डॉ. परमेश्वर नारायण झा एवं उनकी पत्नी श्रीमती विभा झा का रहा. इस संस्थान ने कलाकारों की एक नई खेप तैयार की.

इसमें पारंपरिक चित्रों के साथ समसामयिक विषयों पर भी चित्र बनाए गए. इस संस्थान के माध्यम से मिथिला पेंटिंग का एक नया कलेवर सामने आया. अंतरराष्ट्रीय कला बाजार में ये पेंटिंग पसंद की गईं. इन पेंटिंग में मूल शैली को यद्यपि यथावत रखने की कोशिश की गई थी, केवल विषयों में परिवर्तन किया गया था, लेकिन इनमें हाव-भाव और मुद्राओं के पारंपरिक चित्रों की तुलना में संतुलन बनाने की कोशिश की गई थी जो विषयों के अनुसार चाहे-अनचाहे इन पेंटिंग्स की आवश्यकता हम कह सकते हैं. और परिवर्तन शाश्वत है, मैं ऐसा मानती हूं पर पता नहीं कैसे यह पेंटिंग कहीं न कहीं फाइन आर्ट की तरफ खिसकती जा रही थीं.

एक अन्य महत्वपूर्ण बात मैं जोड़ना चाहूंगी कि मधुबनी पेंटिंग का प्रारंभिक इतिहास अगर चित्त (मन) की बात करता है, तो आधुनिक इतिहास वित्त की. अर्थात लोकाचार का अभिन्न हिस्सा होने के कारण पहले महिलाएं इसे आध्यात्मिक भाव से बनाती थीं. वे चित्र बनाकर आत्मसंतोष प्राप्त करती थीं. अब इसका व्यवसायीकरण हुआ है तो वित्त भी इससे जुड़ गया, जो सुखद है.

मधुबनी पेंटिंग की ‘मिट्टी के बने घर की दीवार से कागज तक (और इस सबसे आगे भी) की कला यात्रा’ पर आपके क्या विचार हैं ?

परिवर्तन शाश्वत है जो इस कला की यात्रा में परिलक्षित है. उसमें भी इसकी यात्रा तो सदियों की नहीं, युगों की है. पहले यह आंगन में भूमिचित्र ‘अरिपन’ के रूप में और घर की दीवारों पर भित्ति चित्र के रूप में अपनी छटा बिखेरती थी. बाद में दीवार से उतरकर आंगन की परिधि की तोड़ते हुए पार करती बाहर निकली. अब तो इसकी छटा सर्वव्यापी हो गई है. यह कला राष्ट्र से लेकर अंतरराष्ट्रीय संग्रहालयों और आर्ट गैलरीज में विराजती है, जो रोमांचकारी और सुखद है.

आप अपने विचार और अनुभवों से बताएं कि मधुबनी पेंटिग की पहली पीढ़ी के कलाकारों – जगदंबा देवी, सीता देवी और गंगा देवी- की कलाकृतियों, कलारूप और उनकी विरासत ने समकालीन कला परिदृश्य को कैसे प्रभावित किया है?

मुझे लगता है इन महान कलाकारों के चित्रों की सहज अभिव्यक्ति ने विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा. इन चित्रों का बाजार आना मिथिला समाज की एक युगांतकारी घटना थी. ऐसा मैं इसलिए कहती हूं कि मिथिला की महिलाएं सदियों से अर्थ के मामले में पुरुषों पर आश्रित थीं, जो कि एक परंपरा थी, उसमें थोड़ा हस्तक्षेप हुआ था. महिलाएं इस कला के माध्यम से स्वावलंबन की ओर बढ़ चली थीं. यहां तक कि फलाने की बहू, फलाने की पत्नी आदि संबोधन से अलग ये कलाकार महिलाएं स्वयं के नाम से जानी गईं. सरकार और समाज ने जब सम्मान दिया तो इनका आत्मविश्वास बढ़ा. अर्थ के मामले की आत्मनिर्भरता से परिवार में निर्णय लेने की क्षमता उनमें स्वत: आ गई. उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाने लगा. स्त्री हाथों की इस कला को जहां स्थानीय लोग बहुत हल्के में लेते थे, वहां पूरा परिदृश्य ही बदल गया.

पलायन के विषय पर रानी झा की एक पेंटिंग.

आप जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी और उस समय के अन्य महत्वपूर्ण कलाकारों की कलात्मक अभिव्यक्तियों को कैसे देखती हैं? कैसे उनके योगदान ने इस कला को वैश्विक आकार दिया?  

पद्मश्री जगदंबा देवी, पद्मश्री गंगा देवी या उनके समय के अन्य कलाकारों के चित्रों की अपनी खासियत है. जगदंबा देवी, सीता देवी भरनी शैली की कलाकार रहीं. इनके चित्रों में गुलाबी लाल, गैरु, गाढ़ा पीला, नारंगी रंगों का प्रयोग मुख्यतः किया गया है. उसके बीच में कहीं गाढ़े नीले रंग का प्रयोग रंगों की एकरसता को तोड़ता है और चित्रों में गजब का सम्मोहन पैदा करता है. आकृतियों की बनावट में मौलिक अंतर स्पष्ट दिखता है. जगदंबा देवी की मानव आकृतियों में घुमावदार मुद्रा और गर्दन से लेकर कमर तक दोहरी रेखा के बीच में कचनी, उनके चित्रों को एक ठोस स्वरूप प्रदान करती है.

सीता देवी की लंबी देह आकृति और उसकी सजावट के साथ आभूषण डिजाइन और स्त्री-आकृति में केश विन्यास देखते ही बनता है.

पद्मश्री गंगा देवी की सधी हुई रेखाओं से बनी आकृतियों और डिजाइन की बारीकियां अचंभित करती हैं. ‘भरनी शैली’ से अलग उन्होंने एक नई शैली ‘कचनी’ को स्थापित किया. उनके समकालीन कलाकारों में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त आदरणीय जमुना देवी ने भी चित्रों की बनावट से एक नई शैली स्थापित की. गोबर के गाढ़े घोल से बनी बाह्य रेखाएं और उनमें चटख रंगों के के प्रयोग और सजावट में गोल – गोल बिंदी का प्रयोग उनके चित्रों को अलग स्वरूप प्रदान करता है.

उस समय के सभी कलाकारों में एक समानता नजर आती है वह है ‘सहजता’. परफेक्शन की कोई चिंता नहीं, कृत्रिमता की कोई गुंजाइश नहीं पूरी निष्ठा और निश्छलता से बने इन चित्रों की मुद्राएं शांत और मधुर है. जो जीवंतता के साथ देखनेवालों से मानो संवाद करती नज़र आती है.

आप मधुबनी पेंटिंग में पारंपरिक और आधुनिक दोनों प्रकार के चित्र बनाती हैं. आप अपनी कलाकृतियों में प्राचीन रिवाजों और परंपराओं को समकालीन और गंभीर सामाजिक मुद्दों के साथ किस प्रकार सहजता से जोड़ती हैं?

जी, में दोनों को साथ लेकर चलती हूं. हमारी परंपरा में जो अच्छी बातें है और जिनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी,अपने चित्रों में उसे रखने का प्रयास करती हूं. मेरी एक पेंटिंग है ‘पोखरी  घाट’, जिसमें मैंने जल संरक्षण की बात की है. हमारे यहां तालाब – कुओं  की संस्कृति रही है. मिथिला के प्रत्येक गांव में कम से कम तीन – चार तालाब होते थे, जिनसे पूरे गांव का नहाना – धोना होता था और जलस्तर यथावत बना रहता था, पानी की बचत होती थी. हमने उसे खत्म कर दिया. आज पूरी दुनिया जल संकट की ओर  बढ़ रही है. ‘पोखरी घाट’ के माध्यम से मैंने जल संरक्षण की हमारी पारंपरिक संस्कृति को दिखाने की कोशिश की है.

आप अक्सर पारंपरिक विषयों जैसे ‘सीता स्वयंवर’, ‘राजा जनक जी का बगीचा’, ‘कालिया दमन’ और अन्य को लेकर चित्र बनाती हैं. आप इन पारंपरिक विषयों को वर्तमान से कैसे जोड़कर देखती हैं?

हमारे पारंपरिक चित्र के विषयों में कलाकारों ने उन विषयों को चुना जिनमें शुभता, आनंद और उत्साह हो. मैं भी अपने पारंपरिक चित्रों के केंद्र में इन भावों को भरने की कोशिश करती हूं. हां, अपनी कल्पना – शक्ति से मैं उसमें एक ‘ट्विस्ट’ दे देती हूं, जिसे आप मेरे ‘जनक फुलवारी’ चित्र में देख सकते हैं. जहां ‘राम और सीता’ पहली बार मिल रहे हैं. इसमें मैंने दोनों की नजरों के बीच में एक ‘स्पेस’ छोड़ दिया है. इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इस पवित्र मिलन के बीच में कुछ भी आड़े न आए.

इसी प्रकार मैंने ‘राधा-कृष्ण’ के मिलन को भी दिखाया है. इसमें मैंने दैहिक प्रदर्शन की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए उनके परिवेश को इस तरह से चित्रित किया जो सांकेतिक रूप से देह मिलन की व्याख्या करता है- जैसे पेड़ से ‘लिपटी लताएं’, ‘कमल को चूमता भंवरा’, ‘आलिंगनबद्ध पक्षियों के जोड़े’ आदि.

आपने अपनी पेंटिंग्स में ‘गर्भपात, विस्थापन और समाज में महिलाओं की स्थिति’ जैसे संवेदनशील विषयों को प्रमुखता से उठाया है. आपको इन विषयों की प्रेरणा कैसे मिलती है? इन पर कला प्रेमियों, कला समीक्षकों और कला चिंतकों की क्या प्रतिक्रिया रही है?  

मैं अपने परिवेश को जीती हूं, और उसमें जो भी घटता हुआ देखती हूं उसे चित्रों के माध्यम से बयां करती हूं. मैंने कोख में ही बेटियों को मरते देखा है! मैंने रोजी-रोटी के लिए युवाओं को गांव सूना कर शहर की ओर जाते देखा है! अपने समाज की महिलाओं की दुर्दशा देखी है! ये सब मुझे विचलित करते हैं! अपनी छटपटाहत को दूर करने के लिए मैंने इनसे जुड़े चित्र बनाए. खुशी इस बात की है कि मेरी आवाज दूर तक गई.

एक ओर जहां आमिर खान की सत्यमेव जयते ने इन चित्रों पर संज्ञान लिया, वहीं विदेशों तक इन चित्रों पर चर्चाएं हुईं. मुझे राज्य पुरस्कार के साथ कई संस्थाओं द्वारा पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं, लेकिन भारत सरकार द्वारा अभी तक कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं मिला है.

रानी झा द्वारा बनाई गर्भपात क्लीनिक की एक पेंटिंग.

अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में हमें बताएं. आप अपने चित्रों के लिए ‘विषय’ कैसे तय करती हैं? क्या कोई ऐसी ‘प्रक्रिया’ है जिससे आप अपनी ‘अभिव्यक्ति’ को व्यक्त करने में सफल होती हैं?  

अपने पेंटिंग्स के विषयों का चुनाव करने के बाद मैं उसका अध्ययन करती हूं. पारंपरिक या कोई पौराणिक विषय के लिए उससे संबंधित पुस्तकों को पढ़ना, लोगों से बात करना आदि होमवर्क मैं जरूरी समझती हूं ताकि चित्रों के साथ न्याय कर सकूं. समसामयिक विषयों पर आधारित चित्रों को मैं अपने हिसाब से आकार देती हूं. कहीं प्रतीकात्मक, तो कहीं सीधा संवाद कर लेती हूं.

आप इस कला के उल्लेखनीय कलाकारों जैसे कि महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी, और गोदावरी दत्ता की कलाकृतियों को ध्यान में रखते हुए उनके काम को नारीवादी विचारधाराओं और अभिव्यक्तियों से कैसे जोड़ती हैं? 

इन सभी कलाकारों के चित्रों में नारीवाद का एक अलग दृष्टिकोण देखने को मिलता है, जिसमें अपनी संस्कृति का गौरव बोध है. वे कभी काली तो कभी दुर्गा तो कभी सीता और राधा के बहाने अपनी अस्मिता, अपने स्वाभिमान को पूरी ठसक के साथ कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती हैं. अपनी बातों को रखने का यह अंदाज उन्हें तथाकथित नारीवाद से अलग एक विशिष्ट नारीवाद की संवाहिका का स्वरूप प्रदान करता है. पद्मश्री महासुंदरी देवी, पद्मश्री गोदावरी दत्त और श्रीमती कर्पूरी देवी के चित्रों में आप इसकी परख कर सकते हैं.

मधुबनी पेंटिंग के संदर्भ में आप समकालीन कलाकार दुलारी देवी और बौआ देवी के योगदान को कैसे देखती हैं? आपको उनकी कला में कौन सा पक्ष विशेष प्रभावित करता है?

किसी भी कलाकार की कृतियों में उनका परिवेश भी बोलता है. मिथिला की जो भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक पृष्ठभूमि है उसके इर्द-गिर्द उनकी रचनात्मकता मुखर होती है. इसलिए जिसे इन कलाकारों ने देखा, सुना और भोगा है अपने चित्रों में उसे प्रस्तुत किया है. पद्मश्री बौआ देवी की कृतियों में ‘नाग-कथा’ के बहाने भौगोलिक और सांस्कृतिक पक्ष की बात की गई है, तो वहीं पद्मश्री दुलारी देवी अपने परिवेश को जीती हुईं अपनी कृतियों में नदी-तालाब और उनकी लोकदेवी, कमला मैया की पूजा-गाथा आदि रचती हैं. साथ ही, सामाजिक विषमताओं के खिलाफ भी मुखर दिखती हैं. वह अपने एक चित्र में दिखाती हैं कि हमारी व्यवस्था एक मरीज के साथ भी भेदभाव करती है.

मुझे बौआ देवी का रंग – संयोजन मुग्ध करता है. गोदावरी दत्त के प्राकृतिक विषयों का उपस्थापन एवं उनके डिजाइन प्रभावित करते हैं, साथ ही दुलारी देवी की आकृतियों की सहज मुद्राएं भी मुझे आकर्षित करती हैं.

क्या आपकी कला यात्रा में कोई विशेष कलाकार, गुरु, या घटना/अनुभव रहा है जिसने मधुबनी पेंटिंग के प्रति आपके दृष्टिकोण को विशेष रूप से प्रभावित किया हो?  

बचपन में अपनी चचेरी दादी स्व. बिंदुल देवी को पिठार (गीले चावल को पीस कर बनाया मोटा घोल) में उंगलियों को डुबोकर फिर जमीन पर सहजता से सधी ज्यामितिक रेखाएं खींचते देखा है जो वह अवसरोचित अरिपन (भूमिचित्र) लिखने के दौरान बनाती थीं. चित्र का ककहरा मैंने वहीं से सीखा.

1990 के आस-पास मैं विषम परिस्थितियों से संघर्ष कर रही थी. ऐसे में मेरी एक चाची स्व. वीना झा ने मुझे एक रोशनी दिखाई. वे पेंटिंग बनाने के टूल्स-मटेरियल मुझे सौंपते हुए बोलीं कि आप के अंदर एक कलाकार है जिसे आपको बाहर लाना होगा. और देखना एक दिन यही चित्र आपको वो सब कुछ देगा जो चाहती हो. अब क्या था मैं चल पड़ी. फिर तो पेंटिंग के तमाम पहलुओं पर मैंने नजर दौड़ाई यानी किसी पेंटिंग की बारीकियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना मेरे जीवन का उद्देश्य बन गया.

आप एक प्रखर मैथिली कवयित्री भी हैं. आपका साहित्यिक लेखन आपकी पेंटिंग्स को कैसे प्रभावित करता है?

जी, मैं कविताएं भी लिखती हूं. अपनी कविताओं के कुछ शब्द या भाव में मुझे कुछ ऐसा दिख जाता है तो मैं पेंटिंग में ढाल लेती  हूं. कभी-कभी अपनी पेंटिंग को देखते हुए उससे अचानक ही शब्द और भाव निकल आते हैं, जिसे मैं कविता का आकार दे देती हूं. दोनों चीजें मेरे साथ चलती हैं.

पिछले कुछ दशकों में मधुबनी पेंटिंग की यात्रा को आप कैसे देखती हैं? कलात्मक शैलियों और समाज पर इसका क्या प्रभाव है?

जी, पिछले दशकों में इस पेंटिंग में कई प्रयोग किए गए हैं. अब बाजार के हिसाब से पेंटिंग बनने लगी हैं. इसकी शैली और बनावट में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है. पारंपरिक या प्रारंभिक चित्रों के भाव या मुद्राओं की जो सहजता थी, कहीं न कहीं इन चित्रों से दूर होती जा रही है. आप किसी संग्रहालय में रखे गए प्रारंभिक चित्रों से आज के बने चित्रों की तुलना करके उसे देख सकते हैं.

चित्रों को सुंदर बनाने के चक्कर में कहीं न कहीं हम इसकी मौलिकता से कट रहे हैं. मैं मानती हूं कि परिवर्तन शाश्वत है, इसे रोकना भी संभव नहीं लगता लेकिन मेरा मानना है कि हम ‘विषय’ में जरूर परिवर्तन करें लेकिन इसकी ‘मूल शैली’ को यथावत रहने दें. कारण यह है कि कोई भी कला अपने मूल स्वरूप में ज्यादा अच्छी लगती है. ये मेरा व्यक्तिगत विचार है.

क्या आपके अनुसार ‘मधुबनी पेंटिंग’ रोजगार देने वाली कला है? आप मधुबनी पेंटिंग को अगले दो दशकों में कहां देखती हैं? 

बेशक अब यह रोजगार देने वाली कला बन गई है. इसे अब कैरियर के रूप में लिया जाने लगा है. बिहार के माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार की पहल से मधुबनी जिला के सौराठ गांव में मिथिला चित्रकला संस्थान की स्थापना हो चुकी है. इसमें छात्र/छात्राएं नामांकन कराकर छह माह का सर्टिफिकेट कोर्स और त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स की पढ़ाई कर रहे हैं. यह चित्रकला अपने अकादमिक स्वरूप में आ गई है. निःसंदेह भविष्य में रोजगारपरक बनेगी. बहुत सारे युवा आज इससे जुड़े हैं और अच्छा पैसा, नाम, यश अर्जित कर रहे हैं. मेरा उन्हें एक ही संदेश है कि वे अपने ‘विषय’ में नई दृष्टि अवश्य रखें, पर इसकी मौलिकता जो इसकी आत्मा है, उसे बचाकर रखें.

(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट अधिकारी हैं, जो साहित्य और कला पर नियमित लिखते हैं.)