जल्द रिटायर होने जा रहे देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में कहा है कि राम मंदिर जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला लेने से पहले उन्होंने भगवान के समक्ष प्रार्थना की थी कि वह इस विवाद का हल निकालें. सीजेआई चंद्रचूड़ इस केस में फैसला लेने वाली पांच सदस्यीय पीठ का हिस्सा थे. इससे पहले गणेश चतुर्थी के अवसर पर उनकी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साथ पूजा करते हुए फोटो सामने आई थी, जिस पर पूर्व जजों समेत कई लोगों की ओर से सवाल खड़े किए गए थे.
इससे पहले सीजेआई चंद्रचूड़ ने 8 अगस्त 2024 को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि आम लोगों के भीतर अदालतों को लेकर डर इसलिए है, क्योंकि वे इनकी प्रक्रिया नहीं समझते हैं. लेकिन सालों साल लंबित पड़े मामले न्यायपालिका की कुछ और ही तस्वीर पेश करते हैं. साथ ही, अच्छी गुणवत्ता के वकील करना भी आम इंसान के बस की बात नहीं है.
सक्षम और स्वस्थ न्यायपालिका की अहम शर्तें हैं: केसों की सुनवाई के लिए पर्याप्त जजों और उनके सहयोगी स्टाफ का होना और इसके लिए आवश्यक ढांचागत सुविधाएं होना. फिलहाल हमारी न्यायपालिका दोनों ही मोर्चों पर संघर्ष कर रही है, लेकिन सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति जजों की संख्या को लेकर है.
इन्हीं दिनों जब देश में तीन नए आपराधिक कानून ‘भारतीय न्याय संहिता’, ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ और ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम’ लाकर देश की कानून और न्याय व्यवस्था को उपनिवेशवाद की छाप से छुटकारा दिलाकर भारतीय बनाने की बात हो रही है, तो यह जान लेना भी जरूरी है कि पहली बार विधि आयोग ने जब 1987 में जजों की संख्या को लेकर अपनी 120वीं रिपोर्ट पेश की तो न्यायपालिका में इसी औपनिवेशक सोच से छुटकारा दिलाने पर टिप्पणी की थी.
जजों की कम संख्या को लेकर आयोग ने कहा था, ‘इस समस्या के दो कारण हैं- राजनीतिक और तकनीकी. राजनीतिक कारणों के तहत ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही जानबूझकर भारतीय न्यायपालिका में कम जज और स्टाफ रखे गए. आजादी के बाद भी इस औपनिवेशिक स्थिति को जारी रखा गया.’
आयोग की रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘राजनीतिक कारणों में केवल भारत सरकार या राज्य सरकारों ने ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों, मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बार एसोसिएशन ने भी इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया. तकनीकी कारणों के तहत न्यायिक प्रशासन देखने वाले नीति निर्माताओं ने श्रमशक्ति के नियोजन के वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के बजाए पैचवर्क और एडहॉक जैसे अव्यवस्थित सुझाव दिए.’ नतीजा आज हम सबके सामने है.
पांच करोड़ मामले लंबित और जज केवल 20 हज़ार
दुनिया भर में न्याय प्रणालियां इस सिद्धांत पर एकमत होती हैं कि ‘देरी से मिलने वाला न्याय, अन्याय के समान है.’ भारत की बात करें, तो यहां की छोटी-बड़ी सभी अदालतों में मिलाकर लंबित मामलों की संख्या कुल पांच करोड़ से ज्यादा है और इनकी सुनवाई के लिए देश में करीब 20 हजार जज हैं. संसद के मानसून सत्र में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने लोकसभा में बताया कि सुप्रीम कोर्ट में 84 हजार केस (कुल 34 जज), उच्च न्यायालयों में 60 लाख से ज्यादा केस (कुल 757 जज) और निचली अदालतों में 4.5 करोड़ से ज्यादा केस (कुल 20,011 जज) लंबित हैं.
प्रति हाईकोर्ट जज पर 8 हजार, निचली अदालतों में 2 हजार केस का बैकलॉग
इन लंबित मामलों की संख्या प्रति जज बैकलॉग में काफी ज्यादा होती है और मौजूदा स्थिति को देखते हुए इन केसों का निपटारा मुश्किल लगता है. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) के मुताबिक, हाईकोर्ट के प्रति जज पर जुलाई 2024 तक 7,879 केस लंबित हैं तो निचली अदालतों के प्रति जज पर 2,268 केस लंबित हैं और सुप्रीम कोर्ट में 34 जजों पर 84 हजार केस लंबित हैं.
संसद के मानसून सत्र में ही कानून मंत्री ने राज्यसभा में भी बताया कि फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में सभी जजों के पद भरे हुए हैं और उच्च न्यायालयों में 37% यानी 357 जजों के पद रिक्त हैं. यही हाल निचली अदालतों का भी है.
‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2022’ के आंकड़ों के मुताबिक, निचली अदालतों में करीब 22 फीसदी जजों के पद खाली थे.
भारत में आबादी के अनुपात में जजों की संख्या काफी कम
न्यायिक हलकों में इसके साथ ही एक अहम सवाल बार-बार उठता है कि यह कैसे तय किया जाए कि जजों की कितनी संख्या पर्याप्त होगी. इसका एक सीधा हिसाब है कि कितनी आबादी पर एक जज उपलब्ध है. भारत में यह तरीका ‘लॉ कमीशन ऑफ इंडिया (विधि आयोग)’ ने सुझाया था.
1987 के विधि आयोग की सिफारिश के मुताबिक, देश में प्रति 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए. इस बात को करीब 40 साल हो चुके हैं. तब से लेकर अब तक देश में 13 बार प्रधानमंत्री और 31 बार मुख्य न्यायाधीश बदल चुके हैं, लेकिन ये सिफारिश तब से ऐसी ही है.
इस सिफारिश के वक्त देश में प्रति 10 लाख आबादी पर औसतन 10.5 जज थे और 40 साल बाद हम 21 जजों के आंकड़े पर पहुंच पाए हैं. 1987 में देश में कुल 7,675 जज थे, जिन्हें पांच साल के अंदर 40,357 करने की सिफारिश की गई थी.
असलियत में हमारे पास 10 लाख आबादी पर 21 जज भी नहीं
यही नहीं, इतने समय में भारतीयों की जीवनशैली, याचिकाओं की संख्या और न्यायिक जागरूकता में काफी अंतर आया है, जिसका सीधा असर हर साल अदालतों में दर्ज होने वाले मामलों की संख्या पर पड़ता है. लेकिन हम अब भी उसी आंकड़े को आदर्श मानकर चल रहे हैं. हालांकि, इस आंकड़े को हासिल करने में भी हमें अभी काफी समय लगेगा.
इसे ऐसे समझें कि केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा लोकसभा में 9 फरवरी 2024 को दी गई जानकारी के मुताबिक देश में 10 लाख लोगों पर केवल 21 जज उपलब्ध हैं. हालांकि, इस आंकड़े में एक बड़ी खामी यह है कि इसमें आबादी के लिए तो 2011 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन जजों की संख्या 2023 तक की ली गई है यानी असलियत में 10 लाख आबादी पर 21 जजों की संख्या और कम है.
अमेरिका, चीन, यूरोपीय देशों में जजों की संख्या हमसे काफी ज्यादा है
जजों की संख्या तय करने का एक और तरीका है, जिसे अमेरिका में अपनाया गया है. इसमें हर केस में लगने वाला औसत समय निकाला जाता है और कुल लंबित मामलों की संख्या से इन्हें निपटाने में कोर्ट के कुल समय का अनुमान लगा लिया जाता है. अब एक जज प्रति वर्ष औसतन कितने समय के लिए कोर्ट में उपलब्ध है, यह निकाला जाता है. इस तरीके में केसों के निपटारे में लगने वाले समय को ध्यान में रखकर जजों की जरूरी संख्या निकाली जाती है.
वैसे, दूसरे देशों की बात करें तो चीन में प्रति दस लाख की आबादी पर करीब 300 जज उपलब्ध हैं तो अमेरिका में यह आंकड़ा 150 है. ‘इंटरनेशनल जर्नल फॉर कोर्ट एडमिनिस्ट्रेशन’ के मुताबिक, स्लोवेनिया और क्रोएशिया में यह आंकड़ा 400 के पार है तो ऑस्ट्रेलिया और हंगरी में करीब 280 है. ब्रिटिश क्राउन कोर्ट की बात करें तो वहां पर केस पहुंचने से लेकर केस में फैसला आने तक औसतन 262 से 266 दिन का समय लगता है, जबकि हमारे यहां कुल पांच करोड़ लंबित मामलों में से करीब 10 प्रतिशत यानी 48 लाख केस 10 साल से ज्यादा समय से लंबित हैं.
कई जजों के पास कोर्ट नहीं, स्टाफ की भी भारी कमी
वैसे भारत में सिर्फ जज ही नहीं, उनके लिए कोर्टरूम या जजों के स्टाफ की कमी भी हम पूरी नहीं कर सके हैं. एनजेडीजी के मुताबिक, देश में मार्च 2024 तक 21,572 कोर्ट हॉल थे और कानून मंत्रालय के मुताबिक 2023 तक देश में जजों के 25,423 स्वीकृत पद थे यानी राष्ट्रीय स्तर पर कोर्टहॉल में भी 15% की कमी है.
सीजेआई चंद्रचूड़ ने अगस्त 2024 में अपने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि कई जगहों पर तो एक ही हॉल में तीन-तीन अदालतें चलती हैं. यही नहीं, देश के उच्च न्यायालयों में 25.6 फीसदी स्टाफ के भी पद रिक्त हैं.
न्याय पर प्रति व्यक्ति खर्च 146 रुपये सालाना, बजट का 1% भी नहीं देते राज्य
इसलिए न्याय को समूचे अर्थ में अधिकार बनाने के लिए अदालतों में सभी स्तरों पर जजों और उनके स्टाफ के और भी पद सृजित करने, इनमें विविधता लाने और जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कि संसाधनयुक्त कोर्ट और निवास की सुविधाएं विकसित करने की जरूरत है.
‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट- 2022’ के आंकड़े बताते हैं कि अभी प्रति व्यक्ति न्यायपालिका पर खर्च राष्ट्रीय स्तर पर औसतन केवल 146 रुपये है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को छोड़ दें तो कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने बजट का 1% भी खर्च नहीं करता है. यह तस्वीर न्यायपालिका को लेकर हमारी व्यवस्था की गंभीरता और दृष्टिकोण को जाहिर करती है.