कातिक महीने की परबा है, शरद ऋतु. धूप अब मद्धिम सी पड़ने लगी है. ‘मेला लगे दिवारी की दौज, लांगुरिया’ गाते हुए विंध्यांचल के ‘बिकट पहाड़ों पर बैठी’ रतनगढ़ वाली माता के दर्शन के लिए माथे पर लाल पट्टी बांधे भक्तों के झुंड के झुंड सड़क से गुजर रहे हैं. लाउडस्पीकरों ने धार्मिक आस्था के प्रदर्शन को अभूतपूर्व विस्तार दिया है. आप चाहें भी तो इसके असर से बच नहीं सकते. धार्मिक आस्था की उद्घोषणा आपके कान के पर्दों तक पहुंच ही जाएगी.
जनश्रुति कहती है कि आल्हा ऊदल के समय से ही बुंदेलखंड में लोग दिवाली के बाद दौज पर रतनगढ़ वाली माता के दर्शन के लिए जाते रहे हैं. आज से तीन चार दशक पहले तक जब चंबल में बाग़ियों का बोलबाला था तब बाग़ी भी पुलिस को छकाकर दौज के दिन माता पर घंटा चढ़ाने आते थे. उस विशाल जनसमूह में बाग़ियों की चिन्हार ही न हो पाती. अगले दिन ही पुलिस को इसकी खबर मिल पाती. बाग़ियों के भेष बदलकर आने, पहचाने जाए बिना ही मनौती मांग और चढ़ावा चढ़ा, पुलिस को चकमा देकर निकल जाने के क़िस्से आज भी बूढ़े-पुराने सुनाया करते हैं.
पर पिछले कुछ वर्षों में ऐसे छोटे स्थानीय धार्मिक मेलों में राष्ट्रवाद की घुसपैठ शुरू हुई है. देहातों में लगने वाले इन मेलों में दस-पांच कोस की परिधि से लोग प्रायः समूहों में या तो पैदल ही आते हैं या किसी ट्रैक्टर-ट्रॉली में. पैदल चलने वाले अपने साथ अब डीजे वगैरह लेकर भी चलने लगे हैं, ट्रैक्टरों पर तो डेक होते ही हैं. पहले धीरे-धीरे सामूहिक कंठ से फूटने वाले भजनों की जगह फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर बने गीतों ने ली और अब उन गीतों की जगह ‘जो राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे’, ‘घर-घर भगवा छाएगा’ ने ले ली है.
संगीत और कथा वाचन में घुलती सांप्रदायिकता
हिंदुत्व पॉप म्यूजिक ने पिछले एक दशक में हिंदू चेतना पर जो असर डाला है और मुसलमान विरोधी घृणा को एक अत्यंत लोकप्रिय संप्रेषण माध्यम द्वारा जो अभूतपूर्व विस्तार मिला है उस पर कुणाल पुरोहित ने अपनी पुस्तक ‘एच-पॉप’ (H-POP) में विस्तार से लिखा है. महानगरों के कोलाहल से दूर क़स्बों और गांवों में हिंदुत्व पॉप म्यूजिक सांस्कृतिक कल्पना को धीरे-धीरे बदल रहा है. अनुच्छेद 370, मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या से भारत पर आसन्न संकट, राम मंदिर, देश के ग़द्दारों को गोली मारने जैसे विषयों पर बने गीतों पर उन्माद में नाचते, झूमते नौजवान अपनी धार्मिक आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करते चलते हैं. हिंदू त्योहारों पर ऐसे दृश्य प्रायः भारत के हर शहर क़स्बे में सामान्य हो चुके हैं.
बुंदेलखंड और ब्रजमंडल में भागवत कथाएं बहुत लोकप्रिय सांस्कृतिक आयोजन हैं. सात दिन तक चलने वाली कथा में कथावाचक भागवत पुराण की कहानियों और प्रसंगों का वाचन करते हैं. इन कथाओं को सुनने गांव और आस-पास के पुरवों से सैकड़ों हज़ारों लोग आते हैं. कथाओं में फ़िल्मी गानों की धुन पर कृष्ण पर बने फूहड़ भजन बीच-बीच में बजते रहते हैं. पर पिछले दशक में इसमें एक नई चीज जुड़ी है. अब कथावाचक कथा कहते-कहते बीच में मोहम्मद गौरी, महमूद गजनवी, बाबर और औरंगज़ेब की भी बात करने लगता है. सहिष्णु हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और उनके विरुद्ध जो षड्यंत्र चल रहा है, उससे भोले-भाले गांव वाले अनजान रहें; व्यास जी ऐसा कैसे होने दे सकते हैं!
देश ने पिछले कुछ वर्षों में मुसलमान विरोधी घृणा के प्रचार के कारण ही कुछ कथावाचकों को राष्ट्रीय प्रसिद्धि पाते देखा है. देवकीनंदन ठाकुर और बागेश्वर बाबा इसी तरह के कथावाचकों से निकले हैं. जिसमें एक राम जन्मभूमि की तरह कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति के संघर्ष की बात करता है, दूसरा हर हिंदू के घर में बुलडोज़र की ज़रूरत की.
विविधता बनी निशाना
एक सामाजिक परिघटना के रूप में धर्म को देखने वालों ने यह भी लक्ष्य किया है कि जिन हिंदू उत्सवों का संबंध दूसरे देवी देवताओं से उनमें भी राम की घुसपैठ होने लगी है. राम के साथ भारत माता की भी. नवरात्रि में दुर्गा पंडालों में राम को उनकी जन्मभूमि वापस दिलाने के लिए कटिबद्ध हिंदुओं के आह्वान, गीत और शिव के लिए गंगाजल ले जाते कांवड़ियों द्वारा ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ की हुंकारों से अब सब परिचित हैं. 33 करोड़ देवी देवताओं को मनाने वाले हिंदू क्यों सबकी जगह एक ही आराध्य को सौंपते जा रहे हैं, यह विचारणीय है.
वास्तव में धार्मिक विविधता और विविधता से जुड़ी स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा संकट औपनिवेशिक भारत में नहीं बल्कि आज़ादी के 40 साल बाद आया, जब लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से टोयोटा गाड़ी में रथ यात्रा शुरू की. भारत के इतिहास में राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक प्रतीकों का ऐसा फूहड़ उपयोग कभी नहीं हुआ था. यह अनुभव भारतीय जनतंत्र के लिए भी नया था और हिंदू धर्म के लिए भी. इस यात्रा के परिणाम बहुत दूरगामी होने वाले थे. लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने हिंदू धार्मिक प्रतीकों से जुड़े अर्थों को ही बदल दिया.
पिछले वर्षों में हिंदू धर्म के चरित्र में जो बदलाव हुआ है, उसे देखें तो समझ आएगा कि धर्म के एक विशेष रूप का वर्चस्व होता गया है. राजनीतिक हिंदुत्व ने उन विविधताओं को काट डाला है, जिनके उदार मूल्यों से हिंदू धर्म की अलग पहचान बनती थी.
प्रदेशों के उत्सवों में जो स्थानीय रंग होते थे, वे अब नहीं बचे हैं. आप राजस्थान में हों, मध्य प्रदेश में, बिहार, हिमाचल, हैदराबाद या मुंबई में, किसी भी प्रदेश के शहरों की सड़कों पर एक जैसी रंगत में उन्मादी भीड़, उत्तेजक संगीत पर तलवारें लहराती नए हिंदुत्व के जन्म की उद्घोषणा कर रही होती हैं.
90 के दशक से ही राजनीति द्वारा धर्म के संगठित और सुनियोजित उपयोग की जो प्रक्रिया आरंभ हुई 2014 के बाद उसमें और तेज़ी आई. वैज्ञानिक तकनीकी ने जो साधन उपलब्ध कराए हैं, उसका बहुत आक्रामक इस्तेमाल इसने किया है. 1990 में आडवाणी की रथयात्रा को बिना टेलीविज़न इतनी सफलता न मिलती. 2014 के बाद टीवी मीडिया और सोशल मीडिया के बिना हिंदुत्व का प्रसार संभव नहीं था.
राजनीतिक हिंदुत्व के जन्म ने ऐसी किसी संभावना को लगभग ख़त्म कर दिया है. 1990 के बाद बनी इस हिंदू पहचान का अनिवार्य लक्षण मूर्खता, संकीर्णता, कट्टरता और मुसलमान विरोधी घृणा है. इससे निर्मित हिंदू समानता, सहिष्णुता, न्याय और बंधुत्व जैसे आधुनिक जीवन मूल्यों का विरोधी है.
कहने की आवश्यकता नहीं कि संस्कृति के बदलाव बहुत धीमे होते हैं, जैसे इंसानों की उम्र बढ़ती है कुछ वैसे ही. रोज़ होने वाली वृद्धि का एहसास हमें नहीं होता, पर उसी इंसान को कुछ वर्ष बाद देखने पर उसकी शक्ल बदली हुई होती है. संस्कृति भी ऐसे ही बदलती है. इसी से शायद इस बदलाव का ठीक-ठीक बोध हमें नहीं होता. जब हम चेतते हैं तब तक संस्कृति की शक्ल ही बदल चुकी होती है. अशोक वाजपेयी हिंदी समाज को सबसे स्मृतिहीन समाज कहते हैं, यह स्मृतिहीन समाज इसी विकृत शक्ल को ही नैसर्गिक मनाने लगे, तो आश्चर्य कैसा!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं.)