बांग्लादेश के बारे में डोनाल्ड ट्रंप के दावे उनकी मौक़ापरस्ती का सबूत हैं

ट्रंप द्वारा बांग्लादेश को निशाना बनाना हिंदू-मुस्लिम के बीच की मौजूदा खाई को गहरा कर सकता है और दक्षिण एशियाई मूल के अमेरिकियों के बीच एक होने की भावना को मिटा सकता है.

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डोनाल्ड ट्रंप. (फोटो साभार: फेसबुक पेज) (इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के दोबारा राष्ट्रपति बनने से पहले डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर कुछ अंतरराष्ट्रीय मामलों पर टिप्पणियां की थीं. एक जगह उन्होंने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हुए ‘बर्बर हमलों’ की निंदा की थी.

उनकी पोस्ट मुस्लिम बहुल बांग्लादेश को यहां के हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए गंभीर खतरे के तौर पर पेश करती है. ट्रंप का विश्व दृष्टिकोण हमेशा से संकीर्ण रहा है, जो ज्ञान या कूटनीति पर नहीं बल्कि भावनाओं को भड़काने पर केंद्रित रणनीति के हिसाब से चलता है. वे बांग्लादेश की पेचीदगियों को नहीं जानते, न उन्हें इसकी परवाह है. अंतरराष्ट्रीय मसलों में उनकी रुचि किसी भी ऐसी चीज़ तक सीमित रही है जो उनके अभियान में मदद करे या उनके वोटर को भड़का सके.

इस पोस्ट के पीछे उनका उद्देश्य हिंदू अमेरिकियों के बीच मुस्लिम विरोधी भावना को भड़काना और अपने पक्ष में लाना था.

यह दृष्टिकोण उनके समर्थकों के पूर्वाग्रहों के अनुरूप था. उनके समर्थक यानी ऐसे अमेरिकी जो राजनीतिक और आर्थिक बदलावों में पिछड़े, और जो प्रवासियों, नौकरियां छूटने और विदेशी खतरों से जुड़े डर के अंदेशों को लेकर ज़्यादा ही संवेदनशील हैं. उनका समर्थन आधार, जो अक्सर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से कम जुड़ा होता है, ऐसे नैरेटिव आसानी से प्रभावित हो जाता है. खासकर तब जब अन्य देशों और समुदायों को नकारात्मक रोशनी में पेश किया जाए.

हालांकि, बांग्लादेश के बारे में उनकी हालिया पोस्ट इससे भी आगे बढ़ गई. बांग्लादेश के नाम पर उन्होंने चंद ही शब्द लिखे थे, पर सीधा निशाना डेमोक्रेट्स और निवर्तमान उपराष्ट्रपति कमला हैरिस पर था, जिसमें उन्हें ‘हिंदू विरोधी’ करार दिया गया था. भारतीय मीडिया के कुछ वर्गों द्वारा हाल ही में फैलाया हुआ बांग्लादेश विरोधी स्क्रिप्ट के अनुरूप ट्रंप शेख़ हसीना की सरकार गिरने के बाद भारत द्वारा फैलाई गलत सूचनाओं को दोहरा रहे हैं.

भारतीय मीडिया इस नैरेटिव से खुश था क्योंकि पिछले एक दशक में भारतीय मीडिया अधिकांशतः मोदी सरकार के हिसाब से ही चल रहा है. जो मीडिया संस्थान मोदी सरकार के हिसाब से नहीं चलते हैं, उन्हें या तो किसी न किसी तरह के दमन के तौर पर इस दुस्साहस का खामियाजा भुगतना पड़ता है, या उन पर सरकार के सहयोगियों का क़ब्ज़ा हो जाता है. नतीजतन, आज भारत के मीडिया से निकलने वाली ज्यादातर जानकारी मोदी सरकार के फायदे के अनुसार होती है.

इस समीकरण को समझने के लिए शेख हसीना के राज में बने भारत-बांग्लादेश संबंधों की गहराई को समझना होगा. उनकी सरकार को आम बांग्लादेशियों द्वारा भारत सरकार के करीबी के तौर पर ही देखा जाता था, चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो. 2008 में चुने जाने के बाद से हसीना ने भारत की रणनीतिक और सुरक्षा चिंताओं को प्राथमिकता दी और बदले में, भारत ने उनके बढ़ते निरंकुश शासन को अंतरराष्ट्रीय वैधता दी, जहां हसीना प्रशासन के बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों के हनन और राजनीतिक दमन को नजरअंदाज किया गया.

मोदी सरकार के लिए हसीना इसलिए प्राथमिकता थीं, क्योंकि वे भारत के भू-राजनीतिक हितों के लिए प्रतिबद्ध थीं. उनकी सरकार ने भारत के एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सहयोगी के रूप में काम किया, साथ ही मामूली लागत पर सुरक्षित गलियारे और बंदरगाह भी दिए. लेकिन इस अगस्त में उनका तख्तापलट एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था, जिसके लिए भारत सरकार पूरी तरह से तैयार नहीं था. इसलिए, हसीना के जाने से जो शून्य पैदा हुआ, उसे भारत नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली बांग्लादेश की नई सरकार को खतरनाक रूप से इस्लामी कट्टरपंथ से जुड़ा बताकर भरना चाहता है.

यह स्पष्ट है कि सांप्रदायिक सद्भाव के मामले में बांग्लादेश में आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन हालात इतने ख़राब भी नहीं है. अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुई हैं, लेकिन ये मामले शायद ही कभी सांप्रदायिक घृणा का नतीजा होते हैं. अक्सर, ये आपसी रंजिश या जमीन से जुड़े विवाद से उपजे होते हैं. हसीना के देश से भागने के बाद बेकाबू भीड़ ने विभिन्न पुलिस थानों पर हमला किया क्योंकि उन्होंने देखा था कि किस तरह पुलिस बल के सदस्यों ने निर्दोष प्रदर्शनकारियों की बेरहमी से हत्या कर दी. उन कुछ दिनों के दौरान सुरक्षा के अभाव में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की कुछ घटनाएं हुई थीं. लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि कई समुदायों ने इसके खिलाफ एकजुटता भी दिखाई, जिसमें मुस्लिम वालंटियर भी शामिल थे, जो हिंदू इलाकों को इन अवसरवादी हमलों से बचाने के लिए पहरा दे रहे थे.

इसके अलावा, भारत की तुलना में बांग्लादेश अल्पसंख्यकों के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह है. मोदी राज में भारत ने सरकार द्वारा स्वीकृत अल्पसंख्यक भेदभाव बढ़ा है, जिसमें लगातार होती मुस्लिम विरोधी हिंसा और सांप्रदायिक बयानबाजी शामिल हैं. 2002 के गुजरात दंगों में अपनी भूमिका के लिए बदनाम मोदी ने खुद एक ऐसा माहौल तैयार किया है, जहां असहिष्णुता फैली हुई है. श्वेत वर्चस्ववादियों (white supremacists) और इमीग्रेशन विरोधी कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए जो तरीके ट्रंप ने अपनाए हैं, वही रास्ता मोदी ने हिंदू राष्ट्रवाद को उग्र बनाने के लिए लिया है.

सच तो यह है कि अपने यहां के अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों से ध्यान हटाने के लिए बांग्लादेश को अल्पसंख्यकों के लिए ‘असुरक्षित’ बताने की भारत की कोशिश पाखंड लगती है. भारत सरकार की अपने मीडिया पर पकड़ उसे असहमति की आवाज़ों को दबाने और अपने अनुकूल नैरेटिव का निर्माण करने में सहायक बनती है. इसलिए, जब ये नैरेटिव ट्रंप जैसे किसी व्यक्ति तक पहुंचते हैं, जो शायद ही कभी अपने स्रोतों की पुष्टि करते हैं, तो वे बिना किसी हिचकिचाहट के उस नैरेटिव, अगर वो उनके उद्देश्यों में सहायक है, को अपना लेते हैं. बांग्लादेश के बारे में ट्रंप के गैर-जरूरी दावे हिंदू-अमेरिकी मतदाताओं, वो समूह जिसका समर्थन उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में हासिल किया था, को उकसाने की एक बेशर्म चाल थी.

ट्रंप द्वारा बांग्लादेश को निशाना बनाना खतरनाक है. यह समुदायों के बीच अनावश्यक डर को बढ़ा सकता है, मौजूदा खाई को गहरा कर सकता है और दक्षिण एशियाई मूल के अमेरिकियों के बीच एक होने की भावना को खत्म कर सकता है.

(रुशाद फ़रीदी ढाका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं.)

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