क्या साहित्य सियासत से पंजे लड़ा सकता है?

नासिरा शर्मा ने कई फ़िलिस्तीनी रचनाकारों का अनुवाद किया है. उनकी हालिया किताब, फ़िलिस्तीन: एक नया कर्बला, में उनके अनुवादों के साथ इस विषय पर राजनीतिक निबंध भी शामिल हैं. वे इस लेख में अनुवाद प्रक्रिया से जुड़े अपने अनुभव साझा कर रही हैं. उनके अनुसार ये रचनाएं समय की छाती पर लिखी इबारतें हैं जो हथियारों के सामने तनकर खड़ी हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

फिलिस्तीन की रचनाओं का जब मैं अनुवाद कर रही थी तो महसूस हो रहा था कि जैसे मैं उनकी आवाज़ को लबबैक कह रही हूं ताकि उनके संघर्ष और व्यथा को समझने का दायरा और व्यापक हो.

7 अक्टूबर 2023 में हुए हमलों के बाद एक बार फिर से अपनी अनूदित कविताओं को दोहराने का मौक़ा मिला तो एक सवाल कौंधा, क्या वास्तव में इस तरह का लिखा साहित्य अपने में इतनी शक्ति रखता है कि वह सियासत को पछाड़ सके? यदि ऐसा होता तो अब तक माहौल को बदल जाना चाहिए था.

यासीर अराफ़ात का इंतेफ़ादा हो या हमास की हथियारबंद जंग, इन दोनों के बीच के समय में इज़रायल द्वारा किए गए ज़ुल्म पर बहुत कुछ लिखा और पढ़ा गया है. बतौर मिसाल लेखक तलत सोकैरत की कहानी ‘मां’ के अनुवाद को पढ़ते हुए ख़्याल गुज़रा कि इज़रायली फ़ौजियों का मन क्यों नही पिघलता? या फिर उनके नेताओं के लिए साहित्य, सियासत से लड़ने का एक बेहद कमज़ोर हथियार है? इसका महत्व केवल वक़्ती भड़ास निकालने के अलावा कुछ नहीं है जिसकी न कोई सुनवाई है न महत्व!

उस लघु कहानी के कुछ अंश मैं यहां दे रही हूं. जो कल की नहीं आज की सच्चाई है जिसका प्रभाव मुझ पर अनुवाद के समय इतना नहीं पड़ा था जितना आज उसे दोहराते हुए महसूस हो रहा है. यह सच भी सामने आया कि बेजान शब्द समय कि धड़कन को उसी शिद्दत से अपने में समोए रखते हैं जिस दर्द की शिद्दत में वह लिखा गया था.

बच्चा मगन हो दूध पी रहा था. मां के मुलायम स्तन, जो प्यार और ममता की गर्मी से भरे हुए थे. उसे अपने नन्हे हाथों से पकड़े हुए, दूध पीते हुए कभी वह अपने बिना दांतों वाले मसूड़ों से निप्पल को काटता भी था. मां की आंखें उसकी हर शरारत पर चमक उठती थीं फिर दरवाज़े की तरफ़ टिक जातीं अपने शौहर के इंतज़ार में. दरवाज़ा अचानक भड़ से खुला. वे हांफते अंदर आए और एक साथ कई गोलियां सनसनाई और बच्चे पर झुके सिर में धंस गई. बाज़ुओं में जकड़ा और सिर के बीच फंसा बच्चा दूध पीता रहा. वह क़रीब आए चाक़ू निकाला और मुलायम स्तन को काट दिया. निप्पल चूसता बच्चा ख़ून और दूध पीता रहा. यह देख उन्होंने बच्चे को चाकू से गोद दिया. तब तक गोदते चले गए जब तक बच्चे के होंठों ने ख़ून नहीं उगला जिसमें मीठे दूध की मिलावट थी!

इस तरह के अदब को सियासी व बेहिस लोगों ने अतिशयोक्ति का बयान कहकर रद्द किया और कहा यह केवल प्रोपगैंडा है. एक वक़्त था जब तस्वीरें कम छपतीं और लिखित शब्द हमारी नज़रों से ज़्यादा गुज़रते थे मगर आज तकनीक ने वीडियो द्वारा वह सब दिखा दिया जो गुज़र रहा है. 7 अक्टूबर के बाद फिलिस्तीन व इज़रायली जंग के दृश्य आंखों के सामने से लगातार व सिलसिलेवार गुज़र रहे हैं उसे झूठा नहीं क़रार दिया जा सकता है तो भी यह सवाल तो उठता है कि इस सारी बर्बरता के सामने कोई कुछ नहीं कर पा रहा है.

मानव अधिकार, सारी दुनिया में निकलते जुलूस, शांति वार्ताएं, कुछ राष्ट्रों की युद्ध विराम की कोशिशें निरर्थक साबित हो रहे हैं. इन सारे प्लेटफ़ॉर्म ने अपनी गरिमा व भूमिका खो दी है. जो दिख रहा है वह है हठधर्मी और बेजा कब्ज़ा!

जब रास्ता बंद व नाकाबंदी के चलते कभी फ़िलिस्तीनियों ने इंसानी गोश्त को खाने का ‘फ़तवा’ मांगा था. आज भी वह उसी भूख प्यास के दौर से गुज़र रहे हैं. ज़ुल्म के विरोध में लिखा साहित्य पिछले 76 वर्षों से क्या अपनी कोई भूमिका निभा पाया? क्या इज़रायली जनमानस पर इन लिखे शब्दों का कोई प्रभाव पड़ा या कोई भी इज़रायली रचनाकार इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ क़लम उठा पाया तो जवाब होगा, बहुत कम.

ख़ुद उनके सियासी नेताओं के बीच और बुद्धिजीवियों के बीच इसकी निंदा ज़रूर की गई मगर उनके विरोध के बाद भी राजनेताओं व समर्थक देशों की रणनीति में मूलभूत रूप से कोई बदलाव नहीं आया. चाहे दक्षिण अफ्रीका के इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने इज़रायली राष्ट्रपति को कटघरे में घसीटा हो या विपक्ष ने उनके घर पर रॉकेट दाग़े हों.

फिर सवाल है कि बदला क्या है? मैं यहां मोइन बिसेसो की कविता ‘होती है जब दोपहर’ का एक अंश रखना चाहती हूं-

रख दिया जाता है मेरे सामने काग़ज़ और पेन
थमा दी जाती है मेरी मुट्ठी में मेरे घर की चाबी
जो काग़ज़ शब्दों से भरने के लिए हैं
वही कहते हैं मुझ से, किसी हाल में झुकना नहीं
मेरी कुंजी का लच्छा कहता है
अपने छोटे से घर की किसी भी ईंट के लिए
तुम ‘झुकना’ नहीं हरगिज़.

इस कविता को अनुवाद करते हुए मुझे महसूस हुआ था कि इज़रायली आर्मी फिलिस्तीनियों से उनके बंद घर की चाबी लेकर उन्हें खदेड़ती और फिर वही चाबी देते हुए काग़ज़ पर अपनी मर्ज़ी का लिखवाना चाहती थी और कवि को यह हरगिज़ मंज़ूर नहीं. आज जब मैं वीडियो में इमारतों, अस्पतालों, घरों और स्कूलों को खंडहर में तब्दील होता देखती हूं तो लगता है कि घर वापसी और चाबी देने का तो कोई सवाल ही नहीं क्योंकि वहां कुछ बचा ही नहीं है.

मेरी अपनी कहानी ‘ज़ैतून के साए’ में जो घर की तबाही का मंज़र है और तौफ़ीक़ अपने घर के मलबे पर खड़ा है हैरान व परेशान! उस तरह के कितने तौफ़ीक़ को हमने इस एक वर्ष पुरानी घमासान युद्ध में मलबे के ढेर पर बैठे बर्बाद लोगों के रूप में बार बार देखा है. मलबे में दबे, निकाले गए बच्चों व बूढों को अधमरा देखा, उसे देखकर लगा कि जो कुछ मैंने तीस वर्ष पहले लिखा था वह आज का भी सच है और पहले से बदत्तर है. इसी लेखक की दूसरी कहानी ‘नारंगी की ख़ुश्बू’ है.

इस कहानी में एक मरता हुआ व्यक्ति है जो अजीब सी ख़्वाहिश करता है कि तुममें से कौन है जो मेरे लिए नारंगी ला सकता है? उसकी इच्छा सुन परिवार वाले चकित हुए. मगर वह अपने गली कूचे के नारंगी से लदे पेड़ों को याद करता है. उसे फिलिस्तीन से दूर नहीं मरना है और अपनी मौत को क़रीब देखकर वह हड़बड़ा कर उठता है चप्पलों में पैर डालता है ताकि वह उसी कूचे में मरे मगर यह कैसे संभव हो सकता था इसलिए दम तोड़ते हुए उसने कहा, ‘ख़ुदा की क़सम मैंने नारंगी की खुशबू को महसूस किया है?’

यह कहानी उन सारे किसानों व मालिकों की कहानी है जिनके ज़ैतून के बाग़ या काट दिए गए या जला दिए गए. यह पेड़ फिलिस्तीनियों की विरासत का एक सिलसिला होता है क्योंकि यह पेड़ एक दशक से ज़्यादा का समय उगने और फल देने में लगाता है. बहरहाल सियासत जितना भी बल-दल रखता हो मगर साहित्य निरंतर उसकी गतिविधियों को बेनक़ाब करने में अपनी अहम और बुनियादी भूमिका को निभा रहा है.

फ़िलिस्तीनियों के पिछले 76 वर्षों से समर्पण न करने की इस जिजीविषा ने जो तिलमिलाहट उनमें पैदा होती इज़रायल रक्षामंत्री मोशन दयान के शब्दों में जानें, जो उन्होंने कवयित्री फ़तवा तुकान के बारे में कहा था, ‘इस कवयित्री की एक एक पंक्ति बीस कमांडो पर भारी पड़ती है.’ उनके लिखने, छपने पर रोक लगी उन्हें जेल में डाला गया और मौत की सज़ा भी सुनाई गई. फ़तवा तुकान की तरह आज दर्जनों कवयित्रियां के नाम गिनाए जा सकते है.

यह सारी असहमतियां, यह सारे विरोध, यह सारी व्यथा और अन्याय समय की छाती पर लिखी इबारतें हैं जो लगातार इन हथियारों के सामने तनकर खड़ी हैं जो साहित्य के पन्नों पर दर्ज होकर लगातार सियासत की हर चाल को नाकाम कर देती है.

यरूशलम, कराह रहा है
दोराहे पर खड़ा है
यरूशलम ख़ून आलूदाह है
ज़ुल्म व सितम के आगे
और दुनिया ख़ामोश है.

इस सच को नेपोलियन के इस कथन से समझा जा सकता है कि संसार में दो ही शक्तियां हैं तलवार और क़लम! अंततः जीत क़लम की होती है.

(नासिरा शर्मा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथाकार हैं.)