बिहार: हाईकोर्ट ने शराबबंदी को उद्देश्य से भटका क़ानून बताया, कहा- पुलिस की मिलीभगत

बिहार में आठ साल पहले अप्रैल 2016 में शराबबंदी क़ानून लागू हुआ था. एक मामले की सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने कहा कि पुलिसवालों समेत कई विभाग के अधिकारियों को यह क़ानून पसंद है क्योंकि इससे मोटी कमाई होती है

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: pixabay)

पटना: पटना हाईकोर्ट ने बिहार में आठ साल पहले अप्रैल 2016 में लागू हुई शराबबंदी कानून की प्रभावशीलता पर गंभीर सवाल उठाए हैं. अदालत ने शराब प्रतिबंध प्रावधानों को ‘कठोर’ मानते हुए कहा है कि इस अधिनियम का खामियाजा राज्य के अधिकतर गरीब तबके के लोग भुगत रहे हैं, जिनमें दिहाड़ी मजदूर शामिल हैं जो अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले हैं .

मालूम हो कि अदालत का यह आदेश 29 अक्टूबर को आया था. कोर्ट पटना के बाईपास पुलिस स्टेशन के पूर्व थाना प्रभारी मुकेश कुमार पासवान द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी.

अपने आदेश में जस्टिस पूर्णेंदु सिंह ने कहा, ‘भारत के संविधान का अनुच्छेद 47 जीवन स्तर को ऊपर उठाने और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राज्य के कर्तव्य को अनिवार्य बनाता है और इसी उद्देश्य से राज्य सरकार ने बिहार निषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम, 2016 लागू किया था, लेकिन यह कानून कई कारणों से गलत दिशा में चला गया है.’

आदेश में आगे कहा गया है कि इस  प्रतिबंध ने वास्तव में शराब और अन्य प्रतिबंधित वस्तुओं के अनधिकृत व्यापार को बढ़ावा दिया है.

पीआईबी डेटा के मुताबिक, बिहार में नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक एक्ट (एनडीपीए), 1985 के तहत 2019 में केवल 697 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2021 में 110% बढ़कर 1469 मामले हो गए.

राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, अप्रैल 2016 से 14 मई 2023 तक राज्य में 1.6 करोड़ लीटर विदेशी शराब और 1.05 करोड़ लीटर देसी शराब जब्त की गई.

पूरा मामला क्या है?

बाईपास थाने में मुकेश कुमार पासवान 2021 में पुलिस इंस्पेक्टर थे, तब उत्पाद विभाग ने एक गोदाम में छापेमारी कर 4 लाख रुपये की अवैध विदेशी शराब बरामद की थी. गोदाम बाईपास थाने से महज 500 मीटर की दूरी पर था, इसलिए उत्पाद (एक्साइज) विभाग का आरोप था कि चौकीदार लालू पासवान के साथ मुकेश कुमार अवैध शराब की बिक्री में शामिल हो सकते हैं.

इस मामले के संबंध में मुकेश को फरवरी 2021 में निलंबित कर दिया गया था, और उत्पाद शुल्क और निषेध कानूनों को लागू करने में उनकी कथित लापरवाही के संबंध में उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था, जो सरकारी आधिकारिक आचरण नियम, 1976 के उल्लंघन से संबंधित है.

इसके बाद मुकेश कुमार ने सभी आरोपों से इनकार करते हुए मार्च 2021 में अपना विस्तृत कारण बताओ नोटिस का जवाब प्रस्तुत किया. बाद में उनके खिलाफ जांच शुरू की गई, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया कि उन्हें दंड के तौर पर बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए.

सरकार ने आदेश दिया कि उन्हें पांच साल के लिए सब-इंस्पेक्टर के मूल वेतनमान पर डिमोट किया जाए और 10 साल तक ‘प्रभारी अधिकारी या कोई जिम्मेदार पद’ नहीं दिया जाएगा.

सरकारी आदेश में कहा गया था, ‘इस आदेश के जारी होने की तारीख से 10 साल तक उन्हें प्रभारी अधिकारी या किसी जिम्मेदार पद पर तैनात नहीं किया जाएगा.’

2023 में मुकेश ने इस आदेश के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में अपील की. दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद हाईकोर्ट ने पाया कि यह सजा पहले से निर्धारित थी और अदालत ने निलंबन और जुर्माना आदेश को रद्द कर दिया.

‘तस्करों के साथ मिली हुई है पुलिस’

उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, ‘सख्त प्रावधान पुलिस के लिए उपयोगी हो गए हैं, जो तस्करों के साथ मिलकर काम कर रही है. कानून लागू करने वाली एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकने के लिए प्रतिबंधित पदार्थ ले जाने और बांटने के लिए नए तरीके ईजाद हुए हैं. न केवल पुलिस अधिकारी, उत्पाद शुल्क अधिकारी, बल्कि राज्य कर विभाग और परिवहन विभाग के अधिकारी भी शराबबंदी को पसंद करते हैं, उनके लिए इसका मतलब मोटी कमाई है.’

आदेश में आगे कहा गया है, ‘शराब पीने वाले गरीबों और जहरीली शराब त्रासदी के शिकार गरीब लोगों के खिलाफ दर्ज मामलों की तुलना में सरगना/सिंडिकेट संचालकों के खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या कम है.’

ज्ञात हो कि इस साल अक्टूबर में सीवान और सारण जिलों में जहरीली शराब पीने के चलते 35 लोगों की मौत हो गई थी.

वहीं, पिछले साल निषेध, उत्पाद शुल्क और पंजीकरण मंत्री सुनील कुमार ने बताया था कि अप्रैल 2016 से बिहार में लगभग 200 जहरीली शराब से होने वाली मौतों का आधिकारिक डेटा है, लेकिन विशेषज्ञों का दावा है कि वास्तविक डेटा इससे कहीं अधिक हो सकता है.

राज्य के विपक्षी दल- राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का दावा है कि अवैध शराब पीने से अब तक 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि नेता, पुलिस और शराब माफिया के बीच सांठगांठ के कारण हर साल 30,000 करोड़ रुपये का अवैध शराब का कारोबार फल-फूल रहा है.

उन्होंने कहा कि अप्रैल 2016 से अब तक जहरीली शराब पीने से राज्य में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.

इस मामले को लेकर बिहार के पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास का कहना है कि राज्य में शराबबंदी पूरी तरह विफल है और इसकी वजह यह है कि पुलिस प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रही है.

उनके अनुसार, ‘अगर आप अवैध शराब के कारोबार को रोकना चाहते हैं, तो पहले आपको इस धंधे को चलाने वाले बड़े माफियाओं को पकड़ना होगा. लेकिन, ऐसा नहीं हो रहा है. पुलिस गरीबों और शराब के धंधेबाजों को गिरफ्तार कर रही है. अगर बड़े माफियाओं को गिरफ्तार किया जाएगा तभी शराब कानून प्रभावी ढंग से काम कर सकेगा.’

दशकों से दलितों और आदिवासी समुदाय के बीच काम करने वाले पटना स्थित सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र सुमन ने शराबबंदी को ‘गरीब विरोधी’ बताया.

उन्होंने द वायर से कहा, ‘शराब लोगों की खाद्य संस्कृति का हिस्सा है. शराब पीना एक बुरी लत है लेकिन कोई आपराधिक कृत्य नहीं. लेकिन बिहार सरकार शराब पीने वालों का अपराधीकरण कर रही है और इसके पीड़ित गरीब हैं.’

उच्च न्यायालय ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि इस अधिनियम के असल शिकार गरीब और उनके परिवार हैं.

कोर्ट ने आदेश में कहा, ‘राज्य के ज्यादातर गरीब वर्ग के लोग, जो दिहाड़ी मजदूर हैं वे इस कानून के प्रकोप का सामना कर रहे हैं. वे अपने परिवार के इकलौते कमाऊ सदस्य होते हैं. जांच अधिकारी जानबूझकर किसी भी कानूनी दस्तावेज से मामले में लगाए गए आरोपों की पुष्टि नहीं करते हैं, कमियां छोड़ दी जाती हैं और यही कारण है कि माफिया सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं. कानून के अनुसार तलाशी, जब्ती और जांच नहीं की जाती.’

उल्लेखनीय है कि आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 14 मई, 2023 तक 8.69 लाख लोगों को शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है. राज्य ने 2023 के बाद से डेटा अपडेट नहीं किया है.

गौरतलब है कि कोर्ट ने अपने आदेश में जो कहा है, उसे सालों से विशेषज्ञ दोहराते आ रहे हैं. द वायर ने इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी.

एलएडब्ल्यू फाउंडेशन के संस्थापक प्रवीण कुमार उन लोगों के साथ काम करते हैं, जो कानूनी सहायता लेने में असमर्थ हैं. वो बताते हैं, ‘हम सालों से कहते आ रहे हैं कि इस कानून के तहत गिरफ्तार और जेल में बंद अधिकांश व्यक्ति गरीब हैं और पिछड़े और दलित समुदाय से हैं. पुलिस ने एक ही व्यक्ति पर कई मामले थोप दिए हैं और वे बिना जमानत और सुनवाई के वर्षों से जेलों में बंद हैं.’

कुमार आगे कहते हैं कि मुसहर, जो अनुसूचित जाति के सबसे गरीब लोगों में से हैं, इस कठोर कानून के सबसे बड़े पीड़ित हैं. अगर किसी मुसहर बस्ती से एक व्यक्ति को शराब के मामले में गिरफ्तार किया जाता है, तो पुलिस अक्सर उस मुसहर बस्ती में जाक दर्जनों अन्य लोगों को भी अचानक गिरफ्तार कर लेती है.

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