जीएम बीज: भविष्य को अस्थिर करती और फसलों के लिए विनाशकारी

सरकार जीएम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित कर रही है. लेकिन इन बीजों का दीर्घकालिक उपयोग किसानों को और अधिक निर्भर बना सकता है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: IWMI/Flickr CC BY-NC-ND 2.0)

आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बीजों को एक तकनीकी क्रांति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन इन बीजों के दीर्घकालिक परिणाम हमारे कृषि तंत्र के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं. सरकार जीएम बीजों के उपयोग को प्रोत्साहित कर रही है, लेकिन यह केवल अल्पकालिक लाभों को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है. इसका दीर्घकालिक प्रभाव क्या हो सकता है, इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया जा रहा है.

जीएम बीज संपूर्ण फसलों को नष्ट कर सकते हैं, और यह प्रौद्योगिकी सतत कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है. इसके विपरीत, हमारे देश की स्वदेशी बीज किस्में जलवायु के प्रति अधिक लचीली हैं और स्थानीय परिस्थितियों में बेहतर ढंग से अनुकूलित होती हैं, लेकिन सरकार इन्हें दरकिनार कर रही है.

जीएम बीजों के समर्थकों का कहना है कि ये बीज अधिक उत्पादन, कीटनाशक के कम उपयोग, और किसानों के मुनाफे को बढ़ाने का वादा करते हैं. हालांकि, हकीकत यह है कि यह वादा खोखला साबित हो सकता है.

जीएम फसलों से जुड़ी कई चुनौतियां हैं, जैसे कि ‘सुपरवीड्स’ और ‘सुपरबग्स’ का उभरना, जो जीएम बीजों के रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं. इससे समय के साथ कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के उपयोग में वृद्धि हो सकती है, जिससे किसानों की लागत और भी बढ़ जाती है. इसके अलावा, यह कृषि पद्धति मिट्टी की गुणवत्ता को भी नुकसान पहुंचाती है और जैव विविधता को खतरे में डालती है.

भारत में छोटे और सीमांत किसान, जो पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर निर्भर हैं, इस नई तकनीक के कारण असुरक्षित महसूस कर सकते हैं. पारंपरिक बीज स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होते हैं, और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने में सक्षम होते हैं. इसके विपरीत, जीएम बीजों की एकल फसल प्रणाली (मोनोकल्चर) स्थानीय फसलों को खत्म कर देती है, जिससे हमारी जैव विविधता को भारी नुकसान होता है. यह पारिस्थितिकी संतुलन को भी बिगाड़ सकता है, जिस पर हमारी खेती प्रणाली निर्भर करती है.

सबसे बड़ी चिंता यह है कि जीएम बीजों का दीर्घकालिक उपयोग किसानों को और अधिक निर्भर बना सकता है. बीज कंपनियां ऐसे अनुबंध लागू करती हैं, जो किसानों को हर साल नए बीज खरीदने के लिए मजबूर करते हैं. किसान ‘बीज बचाने’ की परंपरा को त्यागने पर मजबूर हो जाते हैं, और इससे उनके उत्पादन की लागत और अधिक हो जाती है. विशेष रूप से, छोटे और सीमांत किसान, जो पहले से ही आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं, इस स्थिति में और भी कमजोर हो जाते हैं.

विदर्भ, महाराष्ट्र में कपास की खेती का मामला इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे जीएम फसलें विनाशकारी साबित हो सकती हैं. कपास की जीएम किस्मों ने शुरुआती वर्षों में उत्पादन बढ़ाया, लेकिन कीट प्रतिरोध के कारण उत्पादन में गिरावट आई. इसके परिणामस्वरूप, किसानों को भारी कर्ज में डूबना पड़ा, और दुर्भाग्य से कई किसानों ने आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाया.

इसके अलावा, जीएम फसलों के लिए बाजार में भी प्रतिरोध बढ़ रहा है. भारत में जैविक और गैर-जीएम खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ रही है, जिससे जीएम फसल उगाने वाले किसानों के लिए अपनी उपज बेचना कठिन हो सकता है. इसके साथ ही, यूरोपीय संघ जैसे कई अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जीएम फसलों के आयात पर कड़े नियम हैं, जिससे भारतीय किसानों के लिए निर्यात के अवसर भी सीमित हो सकते हैं.

भारत में जीएम बीजों के उपयोग को नियंत्रित करने वाली वर्तमान नियामक प्रणाली अपर्याप्त है. जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेज़ल कमेटी (जीईएसी), जो इस प्रक्रिया की देखरेख करती है, को पारदर्शिता की कमी और कॉर्पोरेट हितों के पक्ष में पक्षपात करने के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है. जीएम फसलों के दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभाव और उनकी सुरक्षा पर व्यापक परीक्षण की आवश्यकता है, जिसे अभी तक ठीक से लागू नहीं किया गया है.

(राजद नेता सुधाकर सिंह बिहार के बक्सर से सांसद हैं. सरीष त्रिपाठी उनके सचिव हैं.)